Friday, April 01, 2016

सिटी तमाशा / पेड़ों पर लटकी गृहस्थियां

साथ में छपी फोटो देखिए. पेड़ के तने पर ऊपर-नीचे बंधी ये गठरियां क्या हैं? कई दिन से ऐसी ग़ठरियां दिखाई दे रही थीं. एक दिन ठहर कर, करीब से देखा तो समझ में आया. ये वास्तव में सीमेण्ट की खाली बोरियां हैं, जिनमें बंधे सामान का आकार सभी में लगभग एक जैसा है. एक बड़ी थाली का आकार स्पष्ट दिखाई देगा, एक डेग या बटुली का भी. पेड़ के तने की परिक्रमा करिए तो किसी-किसी गठरी में लोटे या मग का आकार नजर में आएगा. हर गठरी पूरी एक गृहस्थी है, दिहाड़ी मजदूरों की, जिनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं. जहां ये गठरियां बंधी हैं वहीं पेड़ों के नीचे लाइन से ईंटों के चूल्हे दिखाई देंगे और मामला साफ होता जाएगा. शाम को ये गठरियां एक-एक कर उतारी जाती हैं, थाली में आटा गूंथा जाता है, बटुली में चावल-दाल या सब्जी पकाई जाती है और खा-पी कर सड़क किनारे ही निश्चिंत नींद निकाली जाती है. सुबह छह बजे फिर चूल्हे जलते हैं, सात बजे भोजन हो जाता है और बाकी चावल या रोटी की पोटली लिए लोग चौराहों की मजदूर मण्डी में दिहाड़ी की तलाश में जा बैठते हैं. हां, जाने से पहले बोरी में सारी गृहस्थी समेट कर, उसका मुंह कस कर बांध देने के बाद उसे पेड़ के तने में कुछ ऊपर सुरक्षित बांध दिया जाता है. दिन भर यह गृहस्थी पेड़ों पर सुरक्षित रहती है जब तक कि इनके मालिक लौट नहीं आते.
यह राजधानी है, एक महानगर, जहां दूर गांव-देहातों से तरह-तरह के लोग रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं. दिहाड़ी मजदूरों की बहुत बड़ी संख्या है जिनकी कमाई इतनी नहीं होती कि सिर छुपाने के लिए किसी कोठरी का इंतजाम किया जा सके. हाड-तोड़ मेहनत से जो कुछ मिलता है उसका बहुत छोटा हिस्सा पेट भरने में जाता है और बाकी घर-परिवार के लिए बचाया जाता है. ऐसे लोगों के लिए फुटपाथ (जो अब गायब हो रहे हैं) या कोई खाली प्लॉट या कोई उजड़ा पार्क खाना पकाने और रात गुजारने के काम आते हैं. गोमती नगर के मनोज पाण्डे चौराहे के आस-पास, जहां पेड़ों पर ये गृहस्थियां पहले-पहल दिखीं, मजदूर बंद नाले के ऊपर पकाते-सोते थे. अब नाले पर खूबसूरत साइकिल पथ बन गया है. साइकिल पथ पर बहुत सारे अवैध कब्जे हैं लेकिन मजदूरों की हिम्मत न तो वहां खाना पकाने की होती है, न सोने की. वे पथ से हटकर सड़क किनारे सोते हैं. इनके लिए कोई शौचालय नहीं है, जाड़ों में वे कथरी या बोरों की गठरी बने सड़क किनारे, किसी दुकान के बरामदे या किसी उजाड़ बस स्टॉप के नीचे पड़े रहते हैं. बरसात में इनकी रातें कैसे गुजरती हैं, हम क्या जानें!

आए दिन निर्माणाधीन इमारतों से मजदूरों के गिरने-मरने की खबरें हम पढ़ते हैं. कई मजदूर खुदाई में मिट्टी ढहने से मर जाते हैं. कुछ सोते समय सड़क पर कुचल कर भी मारे जाते हैं. उनकी मौत चंद लाइनों की खबर बन कर रह जाती है. उनके लिए सुरक्षा के मानक हैं न न्यूनतम मजदूरी की दरें. घायल होने पर इलाज को कौन पूछे. ये सबसे बड़े मेहनतकश हैं और सबसे निरीह एवं असुरक्षित, इसी राजधानी में. ये वोट बैंक भी नहीं कि कोई इनके लिए कुछ करे. मजदूर संगठनों के लिए भी इनका कोई अस्तित्व नहीं. ये सिर्फ पेड़ों पर लटकी गठरियां भर हैं. जाने किस शाम उसे उतारने वाला लौटे ही नहीं!   (नभाटा, 01 अप्रैल 2016)

1 comment:

अभय पन्त said...

ओह 😣😣।