कोई आठ साल पहले एक दिन
अपने घर बुलवा कर उन्होंने मुझे एक कागज पकड़ाया था. उनके सुन्दर हस्तलेख में किसी
रजिस्टर का एक पन्ना दोनों ओर लिखा हुआ था. शीर्षक था- ‘मेरी वसीयत.’ इस वसीयत में उन्होंने तीन
सम्पतियों का जिक्र किया था. एक- ‘मेरे पिताश्री ने कोई वसीयत नहीं की थी, सो उनकी सम्पति पर मेरा
कोई हक नहीं बनता.’ दो- ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे मरण के उपरांत कोई भी धार्मिक कर्म का आयोजन न
किया जाए. मेरी देह का दान (मेडिकल कॉलेज) ट्रामा सेण्टर, लखनऊ को कर दिया जाए...’ और तीन- ‘मेरी पुस्तकों, पत्रिकाओं, उपयोगी कतरनों को मेरी श्रीमती
किसी साहित्यिक संस्था, जो कि उत्तराखण्डीय प्रवासियों द्वारा लखनऊ में स्थापित की
गई हो, उन्हें दान स्वरूप प्रदान कर सकती हैं.’
निर्धारित प्रपत्र पर हस्ताक्षर करा कर देह दान करने का
उनका संकल्प मैंने मेडिकल कॉलेज में विधिवत दर्ज करा दिया था लेकिन उनके परिवार से
इसकी चर्चा करने का साहस तब मुझे नहीं हुआ था.
आठ जुलाई 2016 की सुबह जब जिज्ञासु जी के छोटे बेटे दीपू ने
उनके निधन के खबर दी तो शोक के साथ मेरी पहली चिंता उनकी इस इच्छा को पूरा कराने
की हुई. मैंने संसकोच दीपू से कहा कि देह दान किया था उन्होंने,
मेडिकल कॉलेज को फोन करना होगा. दीपू ने बताया कि वह सब हो रहा है. देह दान तो पिता जी ने मम्मी का भी करा रखा है.
मेडिकल कॉलेज की टीम के उनका पार्थिव शरीर उठा ले जाने तक
भी मैं उनके अंतिम दर्शन को नहीं पहुंच पाया लेकिन इसका बहुत मलाल नहीं हुआ. संतोष
हुआ कि उनकी सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई. मुझे शंका थी कि उनकी धर्मप्राण, संस्कारी-कर्मकाण्डी
पत्नी देहदान पर आपत्ति करेंगी और उन्हें मनाना मुश्किल होगा. लेकिन मैं गलत समझता
रहा. वह स्त्री जो जीवन भर अपने पति की अथक सेवा करती रही और उसके हर फैसले में
साथ रही, वह आज कैसे विरोध कर सकती थी. वे मुझे देखते ही
आंसू बहाते हुए बताने लगीं ‘कहते थे,
नवीन को फोन कर देना, वह सब करा देगा.’
[] []
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
सन 1971 का साल. शाम ठीक
पौने सात बजे मैं आकाशवाणी, लखनऊ के फाटक के सामने खड़ा हूं. पांच-दस मिनट के बाद सामने
स्टूडियों की तरफ से वे आते दिखाई दिए. एक हाथ में स्पून-टेप, रजिस्टर, वगैरह और दूसरे हाथ में
जलती सिगरेट का कश पूरे जोर से खींचते हुए. कार्यक्रम खत्म कर स्टूडियो से बाहर
आते ही उनका पहला काम सिगरेट जलाना होता था. ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम तब पूरे एक घण्टे का हो चुका था और
उसका संचालन करते हुए इतनी देर सिगरेट पीना मुश्किल ही होता था. तो भी वे पांच
मिनट के समाचार ब्रेक में बाहर आकर दो-चार सुट्टे मार लिया करते थे. लेकिन पूरे
इतमीनान से सिग़रेट कार्यक्रम खत्म होने के बाद ही पी जा सकती थी. मुझे फाटक के
बाहर खड़ा देख कर वे हाथ हिलाते हैं कि अभी आया... सामान कमरे में रख कर वे आ गए
हैं और कह रहे हैं- ‘आज विद्या के यहां चलें?’
-‘चलिए.’ और मैं उनके साथ चल पड़ता
हूं. यह लगभग हर शाम का किस्सा होता. कभी वे कहते, चलो आज इगराल साब के यहां चलते हैं, कभी डॉ भाकूनी के यहां, कभी नजरबाग हेमा के यहां, कभी सुंदर बाग, कभी मॉडल हाउस, कभी
सदर, कभी निराला नगर, कभी महानगर.
मुरली नगर, उदय गंज, क्ले स्क्वायर तो
पड़ोस में ही हुआ. कभी मिल गई तो सिटी बस, वर्ना लमालम पैदल.
1971 से अगले आठ-दस सालों में मैंने उनके साथ घूमते हुए लखनऊ के करीब-करीब सभी
मुहल्लों में पहाड़ियों के घर छान लिए थे.
मैं दो-चार दिन उनसे मिलने नहीं जा पाता तो वे कैनाल कॉलोनी
वाले हमारे डेरे पर चले आते. बाबू उनके नमस्कार का जवाब तो देते लेकिन उख़ड़े-उखड़े.
उनकी समझ में नहीं आता था एक लड़के की अपने पिता की उम्र के व्यक्ति से यह कैसी
दोस्ती है!
तो, कैसी दोस्ती थी यह?
दोस्ती के आवरण में, दरअसल, यह गुरु-शिष्य
का अनौपचारिक रिश्ता था. कोई स्कूल या आश्रम नहीं, कोई कक्षा
या लेक्चर नहीं. यह पैदल चलते फुटपाथ पर और लखनऊ के पहाड़ियों
के घरों में मिलने वाली अनोखी दीक्षा होती थी. उन्हें ‘उत्तरायण’ के लिए कुमाऊंनी-गढ़वाली वार्ताकार चाहिए होते थे,
कवि-गीतकार चाहिए थे, गायक-वादक चाहिए थे. नाम से ‘जिज्ञासु’ आगे-आगे और साथ में मन से जिज्ञासु यह
शिष्य.
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं-
‘स्याल्दे-बिखौती’ आ रहा है. इस पर कुमाऊंनी
में वार्ता कौन लिखेगा? हम गुरु-शिष्य की जोड़ी पहुंच गई गौरी
दत्त लोहनी जी के महानगर वाले घर. चाय पी जा रही है और द्वाराहट का कौतिक, लोक-गीत और ध्वज-निशाण सब साक्षात अवतरित हो जाते उस छोटी सी बैठक में.
फूलदेई पर वार्ता लिखनी है शांता पाण्डे को और उनके ड्राइंग रूम में गुनगुनाया जा
रहा है- ‘लाओ चेलियो, कुकुड़ी का फूल... फूल टिपी तौ बोकिये ले खै छौ...’ और मेरी स्मृतियों में ताजा हो रहा है गांव का बिम्ब, लिपी-पुती ऐपण डली छापरी सिर पर धरे बच्चों की टोली का देली पूजना, गुड़-चावल पाना और सुस्वादु सै की गंध... किसी की कविता ठीक की जा रही है, बोली के शब्दों के अर्थ और अनर्थ समझाए जा रहे हैं. किसी की वार्ता को
दुरुस्त किया जा रहा है, उसमें बोलियों के मुहावरे डाले जा
रहे हैं, लोकोक्तियों की व्याख्या हो रही है और सुन-गुन रहा
है यह शिष्य. ‘कल दिन में चारू चंद्र पाण्डे जी के यहां चलना है... जाड़ों की
छुट्टियों में वे अपने भाई के यहां आ गए है.’ जिज्ञासु जी के
साथ गायक लड़के-लड़कियों की छोटी-सी टोली और मैं. पाण्डे जी लोक धुनों के स्वर
समझा रहे हैं, हारमोनियम पर स्वर निकाल रहे हैं, गायक-गायिकाओं के सुर साध रहे हैं. कभी पाण्डे जी को लेकर हम पहुंच गए
हैं नजर बाग वीना तिवारी के यहां. कब शाम हो गई पता ही नहीं चलता. ब्रजेंद्र लाल
साह गीत नाटक-प्रभाग के उपनिदेशक बन कर लखनऊ क्या आए,
जिज्ञासु जी ने लोक-संगीत प्रशिक्षण कार्यशाला ही चला दी. विज्ञानी दीवान सिंह
भाकूनी जी से उनका ड्राइंग रूम दो घण्टे के लिए मांग लिया गया और रोज शाम को वहा
लोक-संगीत सिखाने लगे साह जी. सीखने वाले और सिखाने वाले और सुनने वाले सब मगन.
कभी केशव अनुरागी को डांटा जा रहा है कि यार अनुरागी जी,
लखनऊ के बच्चों को कुछ सिखाते क्यों नहीं हो.
बिना फिल्टर वाली सिगरेट को जीभ से गीला करके सुलगाते हुए
धुआं उड़ाते जिज्ञासु और उनका यह अघोषित शिष्य दौड़े जा रहे हैं. उनके कंधे पर लटके
झोले में रखे हैं वार्ताकारों, कवियों, गायकों के
कॉण्ट्रेक्ट. घर-घर जा कर हस्ताक्षर कराना तो बहाना है, असल
मकसद है वार्ता, कविता और गीतों को देखना, दुरुस्त करना और अक्सर उनकी सामग्री भी लोगों को उपलब्ध कराना. लोक कथाओं
की पुस्तिकाएं घर से ले जाकर दी जा रही हैं कि इसे पढ़कर अपनी बोली में लोक कथा लिख
कर लाओ. ये लो, माधो सिह भण्डारी की कहानी, यह लो रामी बौराणी का काव्य, इन पर गढ़वाली में आठ-आठ
मिनट की वार्ताएं लिखनी हैं. बीच-बीच में गीत के टुकड़े भी डाल
देना, हां!
कभी आकाशवाणी के उत्तरायण एकांश कक्ष में जम जाती महफिल.
नंद कुमार उप्रेती जी आ गए हैं, उनके सखा यज्ञदेव पण्डित जी विराजमान हैं, ‘मालुरा हरियाली डाना का पार...’ वाले प्रद्युम्न सिंह भी हैं. जरधारी जी को नाटक
देखने रवींद्रालय जाना है फिर भी डटे हैं. और भी कई चेहरे
हैं. बातचीत पांखू (पिथौरागढ़) के ओड्यारों से शुरू हो कर हैड़ाखान बाबा के आश्रम और
जिम कॉर्बेट तक पहुंच गई है. इतनी बातें कि अगले दिन मुझे हैड़ाखान बाबा और जिम कॉर्बेट
पर किताबें मांगने जिज्ञासु जी के घर जाना पड़ता है. तब उनके किराए के घर की निशानी
हुआ करती थी, हथेली में पर्वत धारण किए उड़ते हनुमान जी की
मूर्तिवाला उदयगंज का मकान.(क्रमश:)
(नोट- 'तस्व्वुरात की परछाइयां उभरती हैं' साहिर लुधियानवी की एक मशहूर नज्म की पंक्ति है)
7 comments:
दाज्यू यानी जिज्ञासु जी को एक पल के लिये सामने खड़ा कर दिया। कुछ नई जानकारियां भी मिली मुझे। तुम्हारे दाज्यू के साथ बीते पल और उससे जुड़ी घटनायें रोमांचित करती हैं । सच पूछो तो मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।
गज़ब ....रेखाचित्र ऐसा लगा कि आप दोनों के साथ ही मैं भी चल रहा हूँ.....लखनऊ के पुराने दिनों के साथ ही जिज्ञासु जी के साथ जुड़ी इक्का दुक्का
मुलाकातों की अनायास याद दिला दी।
अति सुंदर रेखाचित्र. कुछ क्षण को लगा जिज्ञासु जी साक्षात सामने आ खड़े हुए हैं.
बहुत आत्मीयता व ऋद्धा सॆ आपने जिग्यासु जी को याद किया है, मुझे बरबस उन दिनों की याद ताजा हॊ आई जब आप दोनों गुरू चेला कंधे पर
झोला टांगे हुए सारे लखनऊ के कुमाऊनी परिवारॊं के घर घर जा कर लोक
साहित्य को जुटाने का दीवानगी भरा उद्यम करते थे। मैं नवीं दसवी मॆं पढंता
था,तब आप दोनों का ऊद्देशय उतना समझ नहीं आता था, गौरी दत्त लॊहनी जी के , सी-८२५ महानगर वाले घर में मैने आप दॊनॊं कॊ सुराही
का ठंडा जल अपने हाथ सॆ पिला रक्खा है, जब पसीने से तरबतर न जाने
कितने और ठिकानों सॆ पैदल नाप कर आ रहॆ हॊतॆ। तत्कालीन लखनऊ मॆं
अपनी बॊली भाषा व संस्कृति कॆ प्रति प्रवासियॊं मॆं नराई की हद तक
अनुराग कॆ साथ साथ गर्व पैदा करनॆ का काम आप दॊनॊं गुरू शिष्य ने
जिस 'हौस'के साथ किया वह वन्दनीय है। आप दॊनॊं के बहाने इतने पुराने
दिनॊं का भावपूर्ण स्मरण हॊ उठा,ये क्या कम बात है।।
उपरॊक्त कथन राजेश सकलानी की पॊस्ट से गलत चला जा रहा है,यह मेरा
कथन है,मैं ऊर्फ दिनेश चन्द्र जॊशी,पुराना लखनवी अब देहरादूनी,माज्यत।
जिज्ञासु जी (और उनके अनन्य जरधारी जी) से मेरा परिचय 1990 में हुआ। आकाशवाणी में। इनमे उत्तरायण कार्यक्रम के प्रति जो निष्ठा थी अतुल्य थी। जिस आपने कहा, मेरी पत्नी भी बताती हैं कि जब उनकी रेकॉर्डिंग हो जाती थी तो वे कहते थे चलो विद्या जी के यहां चाय पीने चलते हैं। यह तो मुझे बाद में पता चला कि विद्या जी हमारे बी एस आई पी के डॉ नीलाम्बर अवस्थी जी की धर्मपत्नी थीं और उत्तरायण की नियामित वार्ताकार। हैम जिज्ञासु जी के खुर्रम नगर वारे घर भी गए। बेच में लंबा अंतराल रहा और फिर उनके बेटे का संदेश मिलने पर अंतिम दिन गए जब वे विलीन हो गए थे। वे एक पत्रिका भी निकलते थे । ऐसे समर्पित,गुणी, सुहृदय व्यक्तित्व को हृदय से श्रद्धान्जली। अपने ऐसे संस्मरण अवश्य प्रकाशित कीजिए।
आपकी स्मृति के खजाने से कुछ बहुमूल्य रत्न !
हार्दिक बधाई !
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