Saturday, March 18, 2017

विपक्षहीनता और प्रचण्ड विजय के खतरे



नवीन जोशी
जैसे भी हा-हाकारी या आह्लादकारी चुनाव नतीजे आए हैं उनका सम्मान किया जाना चाहिए. लोकतंत्र नाम की जो व्यवस्था हमारे यहां है उसका भी तकाजा यही है. जो जीते वे तो मगन हैं ही, जो हारे वे भी पिटे मुंह पर मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए कह रहे हैं कि हम जनादेश का सम्मान करते हैं. सिर्फ मायावती और केजरीवाल को इसमें ईवीएम मशीनों के साथ छेड़खानी की साजिश नजर आई है, जिसमें अखिलेश यादव और हरीश रावत ने भी अपना मद्धिम सुर लगाया है.
उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत विस्मयकारी एवं स्तब्धकारी है. धारा के विपरीत पंजाब में कांग्रेस की वापसी हुई है तो वैकल्पिक राजनीति के रूप में उभरी आपके लिए सबक निकले हैं कि बाकी दलों की राह अपनाने में उसका भविष्य नहीं है. नरेंद्र मोदी का जादू जनता के सिर चढ़कर बोल रहा है. वे कुशल मदारी या बाबाओं की तरह हमारे अधकचरे लोकतंत्र के लोक को सम्मोहित करने में खूब कामयाब हुए हैं. इस सम्मोहन की पोल खोलने या उन्हें चुनौती देने की स्थिति में फिलहाल कोई नेता नहीं है. मणिपुर और गोवा में कांग्रेस के बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सत्ता पर भाजपाई कब्जा कतई शुभ संकेत नहीं.
उत्तराखण्ड : हरीश रावत की सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि मोदी का मायाजाल जरा भी कम हो पाता. रावत जी की उत्तराखण्ड के जन आंदोलनों में भागीदारी रही है और राजनीति की सीढ़ियां उन्होंने पहले पायदान से चढ़ी हैं. वे इस राज्य की मूल समस्याओं और जनता की आकांक्षाओं से भली-भांति परिचित हैं. वे चाहते तो मुख्यमंत्री बनने के बाद इस दिशा में कुछ शुरुआत कर सकते थे. यह संदेश जनता तक पहुंचा सकते थे कि राजनीति के दांव-पेंचों के बावजूद उनका इरादा नेक है. लेकिन उन्होंने उलटे-उलटे काम किए. अपने परिवार को निजी लाभ पहुंचाने से लेकर जालसाजी से ग्रामीणों की जमीन बड़ी कम्पनियों को सौंपने तक. गैरसैण में विधान सभा की बैठकें करने के नाटक उन्हें जनहितैषी साबित करने वाले नहीं थे.
सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों और ग्रामीणों के दमन ने मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत का जन विरोधी चेहरा उजागर किया. उनकी सरकार को पार्टी के असंतुष्टों और भाजपा  द्वारा अस्थिर करने की साजिशें सत्ता की राजनीति का घिनौना रूप हैं लेकिन सिर्फ इसीलिए काम नहीं करने देने के उनके बहाने चलने वाले नहीं थे. इसलिए उत्तराखण्ड में कांग्रेस की हार पहले से ही दीवार पर लिखी इबारत जैसी थी. मोदी के जादू ने उसे और शर्मनाक बना दिया. हरीश रावत की दोनों सीटों से पराजय साबित करती है कि मुख्यमंत्री के रूप में खुद उनकी छवि कितनी खराब थी.
राज्य की जनता एक बार फिर भाजपा का शासन देखेगी. कोई भी मुख्यमंत्री बने, शासन के तौर तरीके, नौकरशाही की तिकड़में और माफिया वर्चस्व का स्थाई भाव राज्य के हालात में कोई जमीनी बदलाव शायद ही ला पाए. परिवर्तन के जोशीले नारों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी भी चार धाम यात्रा के लिए ऑल वेदर रोडजैसे हवाई सपने ही दिखा पाते हैं. जल-जंगल-जमीन की कुव्यवस्था, प्राकृतिक संसाधनों का असंगत दोहन, उजड़ते-निर्जन होते गांवों, शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं की दुर्दशा, बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों पर भाजपा या मोदी जी के पास भी कोई कोई स्पष्ट जनमुखी नीति नहीं है.
पिछले सोलह सालों में भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने उत्तराखण्ड की जनता और उसके संसाधनों के साथ जो किया है उससे बाहर निकलने का उपाय वैकल्पिक राजनीति में ही दिखता है. राजनैतिक विकल्पहीनता के लिए आंदोलनकारी और परिवर्तनकामी शक्तियां कम जिम्मेदार नहीं हैं. वे एक विश्वसनीय, जिम्मेदार, राज्यव्यापी सम्मिलित प्रतिपक्ष खड़ा नहीं कर सकीं. उनके अलग-अलग, फुटकर संघर्ष और चुनावी महत्वाकांक्षाएं अधिकतम हजार-बारह सौ वोट जुटा पाते हैं. राज्य की जनता के पास बारी-बारी कांग्रेस और भाजपा को चुनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता.
क्या उत्तराखण्ड के विभिन्न कोनों में बदलाव के लिए सक्रिय व्यक्ति, संगठन, नए-पुराने आंदोलनकारी और बेचैन युवा अगले पांच साल में एक राजनैतिक विकल्प तैयार करने की शुरुआत अभी से करेंगे?
उत्तर प्रदेश का किस्सा उत्तराखण्ड से इस मायने में थोड़ा भिन्न है कि यहां राष्ट्रीय दलों के अलावा दो क्षेत्रीय विकल्प मौजूद हैं. जातीय-धार्मिक गोलबंदियों के आधार पर बनीं समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने पिछले सत्रह साल से भाजपा को और सत्ताईस साल कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर रखा था.
मण्डल-बाद की राजनीति में सपा और बसपा का उदय हुआ. सपा ने समाजवाद के नाम पर कतिपय पिछड़ी जातियों को राजनैतिक-सामाजिक ताकत दी तो बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुसलमानों के संरक्षण के बहाने ताकतवर राजनैतिक विकल्प बनाया. बसपा ने दलित और अतिशय पिछड़ी जातियों के राजनैतिक सशक्तीकरण का जरूरी काम किया. लेकिन इन जातीय गोलबंदियों ही में घिरे रहना, इन्हें वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल करना और वास्तविक विकास की उपेक्षा करना इन दोनों दलों की कमजोरी भी बना. इसी कमजोरी को मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ी चालाकी से अपनी ताकत में बदला.
मुसलमानों को किसी भी कीमत में खुश रख कर उनके वोट हथियाने की कोशिशों एवं तथाकथित मुस्लिम नेताओं की सौदेबाजी से उपजे तुष्टीकरण-असंतोषको भाजपा ने अपने हिंदू और राष्ट्रवादी एजेण्डे से खूब हवा दी. पिछड़ी जातियों के नाम पर अधिकतम लाभ चंद यादव परिवारों तक सीमित कर देने से जन्मे अन्य पिछड़ी जातियों की नाराजगी को भी उसने खूब भुनाया. उधर, दलित सशक्तीकरण की राजनीति से आगे विकास की मुख्य धारा में आने की उम्मीद पाल रही दलितों की नई पीढ़ी मायावती की राजनैतिक गुलाम बनी रहने को तैयार न थी. इन सब जातियों की चतुर व्यूह रचना भाजपा ने तैयार की, जिसमें बिहार में हुई भूलें सुधार दी गईं.
जब अमित शाह इस सोशल इंजीनियरिंग को परवान चढ़ा रहे थे तभी नरेंद्र मोदी काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक युद्ध का ऐलान कर रहे थे. कभी चाय बेचने वालेऔर अपने को पिछड़ीजाति के गरीब परिवार का बेटा बताने वाले इस प्रधानमंत्री का भ्रष्ट अमीरों के खिलाग जंग का ऐलान इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओनारे की तरह गरीब-गुरबों पर जादू-सा असर कर रहा था. जो नोटबन्दी गरीबों के लिए कष्टकारी और बेरोजगारी लाने वाली बनी, आम जनता उसे नरेंद्र मोदी के जादू में काले धन के खिलाफ युद्ध में आवश्यक आहुति मान रही थी. ऊपर से उनका आक्रामक चुनाव प्रचार और नाटकीय भाषण एक सम्मोहन रच रहे थे. मीडिया अपनी जिम्मेदारी भूल कर मोदी के फुलाए गुब्बारे में अपनी भी हवा भर रहा था. विपक्ष में ऐसा कोई प्रभावशाली, विश्वसनीय नेता नहीं था जो इस गुब्बारे की हवा निकाल सके. पिटे हुए नेताओं की मोदी की निंदा-आलोचना ने उनकी लोकप्रियता ही बढ़ाई. 
इन सब ने मिलाकर ऐसा चमत्कारी प्रभाव पैदा किया, जिसका अंदाजा किसी को नहीं था, शायद खुद मोदी और भाजपा को भी नहीं. उत्तर प्रदेश की 403 में 325 और उत्तराखण्ड की 70 में 56 सीटें जीत कर आज मोदी देश के अजेय और आजादी के बाद के सबसे बड़े नेतामाने जा रहे हैं. वास्तव में भाजपा की यह जीत जितनी सत्तारूढ़ पार्टियों और उनके मुख्यमंत्रियों की विफलता का नतीजा है उतनी ही मोदी के मायाजाल और भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद की.
इस जीत के खतरे: नरेंद्र मोदी का उदय ऐसे समय में हुआ जब देश के राजनैतिक मंच पर नेताओं का अकाल हो गया है. नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित कांग्रेस सोनिया गांधी की सीमित आभा और अपरिपक्व राहुल की नादानियों (या बेवकूफियों) से सिमट रही है. यूपीए के दस साला शासन के भ्रष्टाचार और योग्य किंतु निष्क्रिय एवं मौन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कारण राजनैतिक निर्वात पैदा हो गया था. वामपंथी पार्टियां अपने ही अंतर्विरोधों से चुक गईं और क्षेत्रीय दलों के अहंवादी, बूढ़े क्षत्रप 1997, 1989 और 1996 की तरह संयुक्त विकल्प बनाने की स्थिति में नहीं रहे.
ऐसे में आर एस एस पोषित नरेंद्र मोदी का बरास्ता गुजरात राष्ट्रीय अवतार हुआ. उनकी डिजिटल-पीआर टीम ने राजनीति का जो मोदी मॉडल तैयार किया उसने देश के राजनैतिक निर्वात को तेजी से भरना शुरू किया. सत्तर साल की नाकामयाबियोंएवं परिवारवाद और भ्रष्टाचारको जड़ से मिटाने तथा देश को बदल डालनेके नारे के साथ कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी एजेण्डे ने विंध्य पर्वत माला के पार दक्षिण और सुदूर उत्तर-पूर्व भारत तक भाजपा का झण्डा पहुंचा दिया. दिल्ली और बिहार विधान सभाओं ने इस अभियान पर तनिक विराम लगाया था. अब उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में उसने और भी आक्रामकता के साथ ब्राण्ड मोदी को स्थापित कर दिया है.
आज देश में विपक्षहीनता की स्थिति बन रही है. कांग्रेस का सिकुड़ना और क्षेत्रीय दलों का हाशिए पर जाना कतई अच्छा नहीं. भाजपा में भी मोदी ने अपने आस-पार किसी नेता को उभरने नहीं दिया है. 2014 से लेकर 2017 तक उनकी निजी जीत के रूप में पेश किए जा रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संस्थानों की स्वायत्तता, बहुलतावाद और समाज के इंद्रधनुषी ताने-बाने पर इतना खतरा पहले कभी नहीं था. तर्कवादियों की हत्या से लेकर गोहत्या-निषेध के नाम पर देश भर में पिछले साल जो हुआ वह प्रवृत्ति क्या अब और नहीं बढ़ेगी? एक बड़ी असहमत आबादी भय में रहेगी. लोक सभा में भारी बहुमत वाली मोदी सरकार को अगले साल तक राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाएगा. तब सरकार की मनमानियां भी रोकी नहीं जा सकेंगी.
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं . मोदी के भाषणों के मैंऔर मेरी सरकारसे वैसे भी निरंकुशता की गंध आती है. 1971 में इंदिरा गांधी ने ऐसी ही ताकत पाई थी जो प्रतिरोध और चुनौती मिलने पर 1975 में तानाशाह और हिंस्र हो उठी थीं. विखरे विपक्ष को और ब्राण्ड-मोदी की अजेयता से खुश होने वालों को भी इस खतरे पर जरूर ध्यान देना चाहिए. आखिर नरेंद्र मोदी के पराक्रम का गुब्बारा फूटेगा ही. तब उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी?  


  



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