उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण का एक
दौर गुजर जाने के बाद जो कतिपय प्रश्न महत्वपूर्ण बने रह गये हैं उनमें एक बहुजन
समाज पार्टी और उसकी एकछत्र नेत्री मायावती के बारे में है. दलितों के
सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण के लिए कांशीराम ने सत्ता की जिस राजनीति को अनिवार्य
माना था, क्या उसी राजनीति के विद्रूप ने दलित आंदोलन और बसपा को
त्रासद अंत तक ला दिया है? बसपा के सामने अब सिर्फ राजनैतिक
बियाबान है या मायावती सम्पूर्ण दलित समाज को एक बार फिर राजनैतिक रूप से एकजुट
करने में समर्थ होंगी? क्या उनमें इसकी क्षमता और दृष्टि है?
अपनी पराजय के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में छेड़-छाड़
की साजिश को जिम्मेदार ठहरा कर मायावती ने प्रकट रूप में अपनी अपरिपक्वता ही का
परिचय दिया. क्या वे इसके वास्तविक कारण तलाशने का प्रयास भी कर रही हैं? क्या उन्हें लगता है कि कुछ रणनीतिक भूलें हुई हों? क्या
दलित आंदोलन के मूल मिशन से भटकने के जो आरोप लगे हैं, उनमें
कुछ सच्चाई हो सकती है?
बसपा छोड़ने वाले कई नेता मायावती पर तरह-तरह के आरोप लगाते
रहे हैं लेकिन पार्टी के भीतर, वह भी काडर स्तर से नेतृत्व के प्रति
शिकायत और असंतोष के स्वर पहली बार उठ रहे हैं. बसपा के कुछ नेता और खासकर
कार्यकर्ता स्वीकार करने लगे हैं पार्टी अपने मूल उद्देश्य और एजेण्डे से भटक गयी.
इसीलिए उसकी दुर्गति हुई.
कहा जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी को ‘बहुजन’ की बजाय ‘सर्वजन’ की पार्टी बना दिया गया. सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों
को बहुत महत्व दिया गया. दलित, विशेष रूप से गैर-जाटव दलित
जातियां उपेक्षित रह गईं. पार्टी के पुराने, समर्पित नेताओं
की उपेक्षा की गयी.
दलित अध्ययेता और राजनैतिक चिंतक इस बारे में काफी समय से
मायावती को सचेत करते रहे हैं. 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता में आयी
बसपा जब 2009 के लोक सभा चुनाव में अपेक्षित सीटें नहीं जीत सकीं तब दलित चिंतक
चंद्रभान प्रसाद ने ‘मायावती के लिए पांच बातें’ शीर्षक से एक छोटा लेख
लिखा था. उसमें एक सवाल यह था कि “किसकी सलाह पर मायावती ने इतने व्यापक पैमाने पर
ब्राह्मणों को उच्च पदों पर बैठा दिया? क्या दलित सरकार का
कोई स्पष्ट दलित एजेण्डा है? अभी हाल में प्रदेश के
महाविद्यालयों में 85 प्रिंसिपल नियुक्त किये गये जिसमें एक भी दलित नहीं है.” उन्होंने चेतावनी दी थी कि “इन बातों पर बसपा
फौरन विचार नहीं करती तो आगामी विधान सभा चुनावों में उसे विपक्ष में बैठना पड़ेगा,
वह भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में नहीं, बल्कि
तीसरे या चौथे पायदान पर.”
आज लोक सभा में बसपा का एक भी सदस्य नहीं. प्रदेश विधान सभा
में मात्र 19 विधायकों के साथ वह तीसरे पायदान पर है.
2007 में पूर्ण बहुमत पाने वाली बसपा 2012 में अपनी सत्ता
बचा नहीं सकी थी. उसी साल अमेरिका की केलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र
विभाग के प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने बसपा की राजनैतिक रणनीति और चुनावी
प्रदर्शन पर अध्ययन किया. उन्होंने लिखा था कि “2009 से विभिन्न राज्यों के विधान
सभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन खतरनाक गिरावट के संकेत देता है और लगता नहीं कि
वह 2007 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी.” इसके
कारणों की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा था कि “एक तो बसपा में बाहर से आये ऐसे
नेताओं को तरजीह दी गयी जिनकी निष्ठा उसकी विचारधारा में है ही नहीं. दूसरा कारण, जो कहीं ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ, यह कि मायावती
ने पार्टी संगठन में सत्ता-केंद्र पनपने
के भय से दूसरे नेताओं को उभरने नहीं दिया. किसी पार्टी के लम्बे समय तक सक्रिय
रहने और विस्तार पाने के लिए दूसरे-तीसरे दर्जे के नेताओं का विकास जरूरी होता
है.”
ये बहुत महत्वपूर्ण सुझाव थे जिन पर मायावती ने ध्यान नहीं
दिया. चुनावों में वे 50 फीसदी तक टिकट सवर्णों को देने लगीं. नतीजा यह हुआ कि
दलित जातियों का, मायावती के अपने जाटवों को छोड़कर, बसपा से मोहभंग होने लगा. बसपा के कई पुराने नेता, जो
कांशीराम के समय से दलित या बहुजन आंदोलन को खड़ा करने में समर्पित थे, पार्टी छोड़कर जाने लगे या मायावती ने ही उन्हें बाहर कर दिया.
2017 के विधान सभा चुनावों के लिए भाजपा की रणनीति में बसपा
की इन कमजोरियों का लाभ उठाना प्राथमिकता पर था.
इसकी अनदेखी कर मायावती अपनी तथाकथित ‘सोशल इंजीनीयरिंग’
पर लगी रहीं, जिसके साथ इस बार मुसलमानों पर
अत्यधिक फोकस भी जोड़ दिया गया. मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया, सवर्णों ने किनारा कर लिया और बहुतेरे दलित साथ छोड़ गये.
चूंकि उत्तर प्रदेश में दलित इतनी बड़ी तादाद में नहीं हैं
कि अकेले उनके समर्थन से बसपा सत्ता पा सके, इसलिए सवर्णों को साथ लेना मायावती की चुनावी
रणनीति की मजबूरी थी. कांशीराम ने भी इसे अपने ‘भागीदारी’
सिद्धांत में शामिल किया था. मगर मायावती ने इसे ही सत्ता-प्राप्ति
का सदाबहार फॉर्मूला मान लिया और दलित एजेण्डे की उपेक्षा की. कांशीराम दलित-सवर्ण
एकरसता को तब तक व्यावहारिक नहीं मानते थे जब तक कि दलित बराबरी का दर्जा नहीं पा
लेते.
कांशीराम ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक अथक मेहनत और
अविराम संघर्ष से जिस दलित आंदोलन को ‘मिशन’ मान कर खड़ा किया
था, वह आज बिखरने की कगार पर है. इसकी जिम्मेदारी स्वाभाविक
ही मायावती पर आती है. ये वही मायावती हैं जिन्हें कांशीराम ने 2001 में अपना
वारिस घोषित किया था. 25 अगस्त 2003 को लखनऊ की विशाल रैली में उन्होंने कहा था कि “मेरी तीव्र इच्छा है कि मेरी मृत्यु
के बाद मायावती मेरे अधूरे कामों को पूरा करें.” वे मायावती को इसमें सक्षम मानते थे और अपने
पुराने साथियों से कहीं ज्यादा उन पर भरोसा करते थे.
2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा को पूर्ण बहुमत के
साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज देखने के लिए कांशीराम जीवित नहीं थे. लेकिन
उसी के बाद बसपा का लगातार पराभव और विचलन भी होता गया. आज दस साल बाद के चुनाव
नतीजों ने मायावती के नेतृत्व और बसपा के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है.
1983 से कांशीराम के साथी रहे दलित नेता दद्दू प्रसाद को, जिन्हें डेढ़ साल पहले मायावती ने पार्टी से निकाल दिया था, हाल में बसपा में वापस लिए जाने से
क्या यह समझा जाए कि मायावती आत्मचिंतन कर रही हैं? क्या
वे बसपा को ‘मिशन’ की राह पर वापस
लाएंगी?
ऊंची चहारदीवारी और अत्यंत गोपनीयता में रहने वाली मायावती
के बारे में कोई भी जवाब समय ही दे सकता है.
(http://hindi.firstpost.com/politics/up-assembly-elcection-2017-will-mayawati-be-able-to-restore-bsp-might-in-up-politics-sa-23177.html )
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