Friday, April 07, 2017

दारू के खिलाफ महिलाओं के गुस्से को समझिए


हमारे समाज में महिलाएं अनेक कारणों से दुखी रहाती हैं. गुस्सा उन्हें कभी-कभी आता है. आजकल वे बहुत गुस्से में हैं. शराब की दुकानों-ठेकों पर उनके गुस्से का बांध टूट रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राष्ट्रीय राजमार्गों से शराब की दुकानें दूर करो. नशे में गाड़ियां चलाने से दुर्घटनाएं बेहिसाब बढ़ती जा रही हैं. जानें जा रही हैं.  500 मीटर दूर करो दारू की दुकानें. सो, राष्ट्रीय राजमार्गों से हट रही दुकानें बस्तियों में खुलने लगीं. वहां पहले से बहुत दुकानें हैं. बस्तियों में, बाजारों में, गली-मुहल्लों में, जो नेशनल हाईवेनहीं कहलाते, वहां या जिनका नाम नेशनल हाईवेसे बदल कर स्टेटया डिट्रिक्ट हाईवेकर दिया गया है, सब जगह दारू के ठेके हैं. साल-दर-साल ये दुकानें बढ़ती जा रही हैं.
महिलाएं कब से देख रही हैं. भुगत रही हैं. रोती रही हैं. नशे की सबसे बड़ी आफत उन्ही पर टूटती है. जेवर-जमीन गिरवी रख दिए गए या बिक गए. पति-बेटे-भाई नाकरा हो गए, अपाहिज हो गए या मर गए. मजूरी और वेतन घर आने से पहले ठेकों की भेंट चढ़ गए. बच्चों के स्कूल छूट गए और रसोई के डिब्बे रीते रह गए. जब आवाज उठाई तो पीटी गईं. फिर भी परिवार की गाड़ी उन्ही को खींचनी है. उन्होंने ही संभालने हैं बच्चे. नशे की यह बीमारी बढ़ती ही जाती है. पर्याप्त दवा नहीं, दारू. पेट भर खाना नहीं, शराब. अच्छी पढ़ाई नहीं, नशा. उन्ही के तन-मन पर होते हैं सारे हमले. गुस्सा फूट रहा है.
सुन रही है सरकार ? अब तक तो किसी सरकार ने नहीं सुनी. उलटे, सरकारी आय का सबसे बड़ा साधन बनाते गए इस धंधे को. सरकार नशे से खूब कमा रही है. बड़ी-बड़ी कम्पनियां, ठेकेदार उससे ज्यादा कमा रहे हैं. सब मालामाल हो रहे हैं. सिर्फ परिवार उजड़ रहे हैं, जिसकी धुरी स्त्रियों को सम्भालनी होती है. सरकार और कारोबारियों की कमाई के लिए महिलाएं भांति-भांति के अत्याचार झेल रही हैं.
सरकार में आने से पहले इस पार्टी ने बड़े-बड़े वादे किए. महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर इसे वोट दिए. शायद इसलिए उन्हें इससे उम्मीद है कि यह धंधा कुछ कम हो. उनके कष्ट कुछ कम हों. मगर यहां तो दूर की दुकानें भी करीब चली आ रही हैं. गुस्सा नहीं फूटेगा?
क्या इतना जरूरी है नशे का धंधा? सरकार को विकास कार्यों के लिए या उसके नाम पर आय चाहिए तो क्या नशा ही मुख्य स्रोत बचा है? नशाबंदी नहीं कर सकते ? चलो, नशाबंदी को व्यावहारिक नहीं मानते; तो क्या जरूरी है कि दवा-राशन की दुकानों और स्कूलों से ज्यादा दारू के ठेके खुलें? दवा की दुकान रात दस बजे तक ही खुलेगी मगर दारू रात ग्यारह-बारह बजे तक बेचने की इजाजत क्यों जरूरी है? दुकानों के भीतर ही पीने की व्यवस्था करना क्यों आवश्यक है? बस्तियों से दूर उसकी नियंत्रित और सीमित विक्री क्यों नहीं की जा सकती? आय के दूसरे स्रोत नहीं ढूढे जा सकते?
उजड़ते परिवारों को सम्भालते-सम्भालते खुद टूटी जा रही स्त्रियां तर्क नहीं कर पा रहीं. सिर्फ आक्रोश फूट रहा है. इस गुस्से में ढेरों सवाल हैं. रोमियोऔर बूचड़खानों के खिलाफ व्यस्त सरकार इन महिलाओं का आक्रोश भी समझेगी?   (नभाटा, 08 अप्रैल, 2017)


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