नवीन जोशी
विधान सभा चुनाव में बड़ी प्राजय के बाद समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय
अध्यक्ष,अखिलेश यादव क्या
सोच रहे हैं? अगले पांच साल के
लिए उनकी रणनीति क्या है? वे योगी के नेतृत्व
वाली भाजपा सरकार के खिलाफ सजग विरोधी नेता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में मोर्चा
सम्भालते हुए क्या वे समाजवादी पार्टी को नया स्वरूप और तेवर देंगे? या, सत्ता छिन जाने के
बाद बसपा नेत्री मायावती की तरह राज्य सभा का रास्ता पकड़ेंगे? अथवा, क्या पिता मुलायम
और चाचा शिवपाल के ताजा तीखे हमलों से विचलित हो समर्पण कर देंगे? इन सवालों का जवाब युवा अखिलेश यादव का राजनैतिक भविष्य तय
करेगा, जिन्होंने अपनी पार्टी की दागी
छवि और समझौतावादी बुजुर्ग नेतृत्व से बगावत करके समाजवादी पार्टी की बागडोर अपने
हाथ में ली थी. अपनी सरकार का विकास-एजेण्डा सामने रखकर बड़ी उम्मीद से चुनाव में
उतरे अखिलेश की बड़ी हार ने उनके सामने ये सवाल पेश किये हैं.
अखिलेश यादव के बारे में मुलायम सिंह की चंद रोज पहले की गई कटु टिप्पणी और
उसके बाद चाचा शिवपाल यादव ने बिना अखिलेश का नाम लिये जो कहा, वह अप्रत्याशित नहीं. माना जा रहा था कि विधान सभा चुनाव
में करारी शिकस्त के तुरंत बाद अखिलेश पर मुलायम खेमे और परिवार के दूसरे गुट की
ओर से तीखे हमले होंगे. पूरी कोशिश होगी कि हार का सारा दोष अखिलेश के सिर मढ़ कर
मुलायम को फिर पार्टी की बागडोर सौंपी जाए. पार्टी में पुनर्प्रतिष्ठा और अखिलेश से
‘बदला’ लेने का इससे अच्छा मौका उनके लिए और क्या हो सकता था.
आश्चर्यजनक रूप से चुनाव नतीजों के तुरंत बाद मुलायम ने अखिलेश को जिम्मेदार नहीं
ठहराया. बल्कि, उनकी पहली
प्रतिक्रिया बहुत संयत और समझौते वाली थी. उन्होंने कहा था कि चुनाव में पराजय की
जिम्मेदारी किसी एक की नहीं है. शिवपाल
ने जरूर इशारे में अखिलेश पर निशाना साधा था, यह
कह कर कि यह समाजवादी पार्टी की नहीं, ‘घमण्ड’ की हार है. परंतु मामले को किसी ने तूल नहीं दिया.
अमर सिंह ने उसी समय अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोलने की कोशिश की थी. उनका बयान
था कि समाजवादी पार्टी को बचाने के लिए नेता जी को पुन: पार्टी का राष्ट्रीय
अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए. इस पर भी मुलायम ने कोई तवज्जो नहीं दी थी.
अब अचानक मुलायम ने कह दिया कि अखिलेश ने मेरा बहुत अपमान किया. उनकी यह
टिप्पणी सुर्खियां बनी कि प्रधानमंत्री ने जब यह कहा था कि जो अपने बाप का नहीं
हुआ, वह आप का क्या होगा, तो क्या गलत कहा. इसी के अगले दिन शिवपाल ने बिना नाम लिये
अखिलेश को अनुभवहीन एवं परम्परा और
पारिवारिक मर्यादा का सम्मान नहीं करने वाला बताया.
पूछा जाना चाहिए कि मुलायम ने चुनाव नतीजों के तीन सप्ताह बाद सार्वजनिक मंच
से अखिलेश के खिलाफ ऐसा तीखा बयान क्यों दिया? क्या
उन्हें उम्मीद थी कि भारी पराजय के बाद अखिलेश को उनका महत्व समझ में आ जायेगा और
वे उनसे क्षमा मांगने दौड़े आएंगे? क्या वे यह आशा लगाये
थे कि अखिलेश राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर उन्हें फिर से वहां प्रतिष्ठित
कर देंगे? या, क्या वे यह इंतज़ार कर रहे थे कि अखिलेश कम से कम शिवपाल को पार्टी में सम्मानजनक ढंग से पुनर्प्रतिष्ठित करते हुए
उन्हें विधायक दल का नेता बना देंगे?
ध्यान दिया जाए कि मुलायम ने अखिलेश पर यह हमला तब किया जब विधान सभा में
समाजवादी पार्टी विधायक दल का नेता शिवपाल को नहीं बनाया गया. समाजवादी पार्टी में
और मीडिया में भी यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि क्या अखिलेश, शिवपाल को सपा विधायक दल का नेता बनाएंगे? क्या
उनके मन में कहीं यह अपराध बोध है कि उनका विद्रोह करना इतनी बुरी हार का कारण बना? लेकिन अखिलेश ने समझौते के कोई संकेत दिये बिना पार्टी के
एक वरिष्ठ विधायक राम गोविंद चौधरी को विधान सभा में सपा विधायक दल का नेता
नियुक्त किया. इस पद के लिए उन्होंने शिवपाल तो दूर,
आजम खां के नाम पर भी विचार नहीं किया जो मुलायम के चहेते होने के साथ-साथ सपा का
मुस्लिम चेहरा भी रहे हैं. इससे एक सवाल का जवाब मिल गया कि अखिलेश समर्पण करने
वाले नहीं.
निर्विवाद तथ्य है कि मुलायम सिंह ने बहुत मेहनत और संघर्ष करके समाजवादी पार्टी
को बनाया एवं मजबूत किया, जिसकी वे बार-बार
दुहाई देते हैं. शुरुआती दौर में मुलायम बड़े लड़ाका विरोधी नेता के रूप में
जाने-माने गये. उतना ही सच यह भी है कि कालान्तर में उन्होंने सपा को समाजवादी राह
से भटक कर पिछड़ों के नाम पर यादवों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को किसी
भी कीमत पर खुश रखने वाली पार्टी बन जाने दिया. अराजक, भ्रष्ट एवं अपराधी पृष्ठभूमि वाले नेताओं को प्रश्रय दिया.
अगर आज उदार लोकतांत्रिक सोच वाला जनता का बड़ा तबका मोदी के नेतृत्व में भाजपा के
उग्र हिंदू राष्ट्रवाद तथा भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार से सम्मोहित हुआ है तो इसके
लिए ‘मौलाना’ मुलायम की राजनीति को भी जिम्मेदार मानना चाहिए.
अखिलेश यादव ने पहले सपा प्रदेश अध्यक्ष और बाद में मुख्यमंत्री के रूप में
सपा को इस दागदार छवि से मुक्ति दिलानी चाही. यह कोशिश उन्हें पहले शिवपाल और फिर मुलायम
से बगावत की हद तक ले गयी. जब उनके सामने यह अवसर आया कि उन्हें पार्टी की बागडोर
अपने हाथ में लेनी होगी तो वे चूके नहीं. तब वे चूक गये होते तो मुलायम-शिवपाल के
आज्ञाकारी पिछलग्गू बन कर रह जाते. पार्टी के अधिसंख्य नेताओं तथा कार्यकर्ताओं ने
उन्ही का साथ दिया.
सन 2017 की चुनावी पराजय ने उनके सामने एक और महत्वपूर्ण अवसर उपस्थित कर दिया
है. रचनात्मक एवं सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा कर अपनी राजनीति को धार देने का.
उनके लिए बहुत अच्छा रहेगा यदि वे कोई उपचुनाव लड़कर विधान सभा पहुंचें. सरकार की
कमजोरियां उजागर करके एवं जनता के जरूरी मुद्दे उठा कर विरोधी दल के नेता के रूप
में अपनी बेहतर छवि गढ़ें. अभी वे विधानमण्डल दल के नेता हैं. इस हैसियत में भी वे विपक्षी
नेता की भूमिका में आ सकते हैं. शर्त यह है कि उन्हें प्रदेश भर का दौरा कर जनता
से लगातार मिलना, उसकी ज्वलंत
समस्याएं जानना, पार्टी का नया
ढांचा तैयार कर कार्यकर्ताओं को सक्रिय बनाना और वाजिब मुद्दों पर सड़क पर संघर्ष
करना होगा. उनके पास पांच साल का पर्याप्त मौका है. वे युवा हैं, उनका राजनैतिक करिअर अभी शुरू ही हुआ है और चुनाव में पराजय
के बावजूद जनता में उनकी छवि अच्छी है.
कठिन जरूर है लेकिन यदि अखिलेश यह रास्ता चुनते हैं तो दीर्घकालीन राजनीति की
मजबूत सीढ़ियां वहीं से शुरू होती हैं. कभी उनके पिता इसी मार्ग से शीर्ष तक पहुंचे
थे. जनता के मुद्दों पर पांच साल तक संघर्ष की तुलना में एक अपेक्षाकृत आसान
रास्ता राज्य सभा का है लेकिन वह राजनीति की खुरदुरी जमीन से उनका पलायन माना
जायेगा. सत्ता-च्युत होने पर मायावती यही रास्ता चुनती रहीं और इसीलिए जनता से
बराबर दूर होती गयी हैं. एक खास वोट बैंक पर निर्भर राजनीति ज्यादा नहीं चल सकती, यह इस चुनाव ने साबित कर दिया है.
प्रदेश में योगी सरकार ने अपने एजेण्डे पर अमल शुरू कर दिया है. अखिलेश के लिए
अपना एजेण्डा तय करने का भी यही समय है.
(First post Hindi, April 04, 2017)
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