Friday, July 21, 2017

आत्मघाती लापरवाहियों से घिरे हम


ट्रॉमा सेण्टर में आग लगना हादसा हो सकता है लेकिन जब यह पता चलता है कि मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने गम्भीर रोगियों के बेहतर इलाज के वास्ते बने इस सेण्टर के लिए अग्नि-शमन विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र ही नहीं लिया था तो कैसी प्रतिक्रिया होती है? और, जब यह पता चलता है कि राजधानी की कई नयी इमारतें इसी लापरहावी से बनी हैं, तब? अनेक बार निजी भवन निर्माताओं को इसके लिए कटघरे में खड़ा किया जाता है लेकिन बहुत-से सरकारी निर्माण ही इसकी अनदेखी किये चले जा रहे हैं. ताज्जुब होता है कि जिम्मेदार सरकारी विभाग और बड़े स्वायत्तशासी संस्थान ऐसा कैसे कर सकते हैं? आग की चेतावनी वाले देने वाले जो अलार्म सिगरेट के धुंए से भी चीख उठने चाहिए थे, वे आग लगने और पूरी इमारत में धुंआ भर जाने पर भी मुर्दा पड़े रहे. अगर उनकी देख-रेख नहीं करनी थी तो लगाने की औपचारिकता ही क्यों की गयी?    
भ्रष्टाचार ही की तरह क्या आत्मघाती लापरवाहियां भी हमारी पहचान बन गयी हैं? हमारे चरित्र में यह शामिल हो गया है कि बेहद जरूरी सावधानियां भी नहीं बरती जाएंगी? जान-माल की सुरक्षा के अति-आवश्यक उपाय नहीं किये जाएंगे? ट्रॉमा सेण्टर की आग बहुत भयावह नहीं थी मगर हो सकती थी. वार्डों में धुंआ भर गया तो खिड़कियों के शीशे तोड़ने पड़े. अग्नि-शमन मानकों का पालन किया गया होता तो ऐसी नौबत नहीं आती. हादसे बार-बार नहीं होते लेकिन जब होते हैं तभी पता चलता है कि उनसे बचने के पर्याप्त उपाय कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं.
स्वास्थ्य विभाग राजधानी में मच्छर-जनित रोगों की रोकथाम के उपायों के तहत जब विभिन्न विभागों-संस्थानों के परिसरों की जांच कर रहा है तो उसे जगह-जगह डेंगू मच्छर के लार्वा मिल रहे हैं. जब हम सुनते हैं मेडिकल कॉलेज, लखनऊ विश्वविद्यालय, सचिवालय परिसर और राजभवन कॉलोनी में भी खतरनाक मच्छर के लार्वा पाये गये तो हैरत ही ,बहुत दुख भी होता है. क्या इन संस्थानों-विभागों में यह सब देखने वाला, इसके लिए जिम्मेदार कोई है ही नहीं? पद होंगे, उन पर तैनाती भी होगी, वेतन-भत्त्ते और सुविधाएं भी ली जा रही होंगी लेकिन उत्तरदायित्व निभाने के मामले में घोर उदासीनता. ऐसे में जानलेवा बीमारियों के साल-दर-साल बढ़ते जाने पर क्या स्यापा करना. विकास प्राधिकरणों, नगर निगमों और जनता की लापरवाहियों से सारे शहर में वैसे ही जल-भराव रहता है, गंदगी बीमारियों को न्योता देती रहती है, उसके लिए किसे और कितना कोसा जाए.
मनुष्य की जिंदगी की कोई कीमत हमारे यहां नहीं रही, जबकि उसे सर्वोपरि होना चाहिए. मनुष्य को जीने के लिए बेहतर जीवन-स्थितियां मिलें, उसकी जान की रक्षा में कोई कसर न रह जाए, ऐसे हालात हमारे यहां कैसे बनें, जबकि शासन-प्रशासन से लेकर सामान्य जन तक की चिंता में यह शामिल ही नहीं है. पंद्रह मंजिली रिहायशी इमारत बनाने वाला बिल्डर आपातकालीन स्थितियों के लिए आवश्यक दोतरफा सीढ़ियां नहीं बनाता. इससे बचने के लिए उसे विकास प्राधिकरण से लेकत अग्नि-शमन विभाग तक को रिश्वत देना मंजूर है. अब भूकम्प आये या आग लगे, उसमें रहने वाले कैसे बचें? सैकड़ों व्यक्तियों की जान कितनी सस्ती बना दी गयी है?
सरकारी विभागों और बड़े संस्थानों ने भी प्राइवेट बिल्डरों वाला रवैया अपना लिया है. ट्रॉमा सेण्टर के हादसे ने यह साबित कर दिया है. आखिर हालात कैसे बदलेंगे? सरकारें भी इस तरफ उदासीन हैं. (नभाटा, 22 जुलाई, 2017)  

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

हाँ, यह लापरवाही बहुत खतरनाक थी । सही कहा यह सिस्टम का हिस्सा बन गया है।
असल में ऐसी घटनाओं की ओर सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में भी तभी ध्यान देने की आदत है, जब कोई घटना हो जाये। आग तो आकस्मिक घटना है, सो इतने वर्षों से आग ने लगने पर हम आराम से नही बैठ सकते। उपकरणों की नियमित व समयबद्ध जांच होते रहनी चाहिए।