‘शिक्षा-मित्र’ (नाम कितना अच्छा है!) फिर हड़ताल पर हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने सहायक अध्यापक पद पर उनका
समायोजन रद्द कर दिया. जब वे तैनात किये गये थे, तब
तय था कि वे अध्यापक नहीं बनाये जाएंगे. इसलिए उनकी अर्हता अध्यापक लायक नहीं रखी
गयी थी. बाद में सरकार ने उन्हें धीरे-धीरे सहायक अध्यापक बना दिया. यह शिक्षा के
साथ खिलवाड़ था. इस देश में सरकारें शुरू से शिक्षा के साथ खिलवाड़ करती आयी हैं.
शिक्षा-मित्रों के साथ हमें सहानुभूति है. उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए, वेतन मिलना चाहिए. वे नौकरी और वेतन के लिए ही सड़क पर उतरे
हैं, शिक्षा के लिए नहीं. शिक्षा के
लिए कोई सड़क पर नहीं उतरता. शिक्षक न
सरकार, स्कूल न अभिभावक. सब
उसके साथ खिलवाड़ करते हैं.
सरकारी विद्यालय खिलवाड़ हैं. मुफ्त की कॉपी-किताबें-बस्ता-ड्रेस-मध्याह्न भोजन, आदि खिलवाड़ के अलावा और क्या हैं? इन सब से बच्चे कैसी शिक्षा पा रहे हैं? कक्षा पांच का बच्चा कक्षा दो का सवाल हल नहीं कर पाता. स्कूल
में दिन में खाना मिलेगा, इसलिए स्कूल जाओ.
शिक्षा मिलेगी, इसलिए नहीं. भोजन के
बहाने बच्चों को स्कूल बुलाना एक तरीका हो सकता है लेकिन उसमें पेट की भूख बड़ी हो
जाती है. शिक्षा की भूख गायब. मध्याह्न भोजन के कीड़े अक्सर खबरों में दिखते हैं, शिक्षा में पड़े कीड़े किसी को दिखते नहीं. कोई शायद ही
उन्हें देखना चाहता हो.
महंगे, पंचतारा निजी स्कूल और
भी बड़ा खिलवाड़ हैं. वे वंचित तबके के लिए सबसे बड़ी ईर्ष्या हैं. उनके मुंह पर
तमाचा हैं. सरकारी विद्यालयों और पंचतारा
निजी स्कूलों के बीच स्कूलों की विविध श्रेणियां हैं. वहां अभिभावकों की
सामाजिक-आर्थिक औकात का भौण्डा प्रदर्शन होता है. रिजल्ट में डिवीजन और नबरों के
प्रतिशत की प्रतियोगिता होती है. ज्यादातर बच्चों के हिस्से कुण्ठा आती है. इन
स्कूलों से निकले बच्चे कैसे पढ़े-लिखे नागरिक बनते हैं, हम सब उसके गवाह हैं.
इस देश की संसद ने सबको शिक्षा का अधिकार भी दे ही दिया है. शिक्षा पाना हर
बच्चे का अधिकार बन गया है. यह अपने आप में कम बड़ा मजाक नहीं . संविधान ने बहुत
सारी चीजें हमें बतौर नागरिक दे रखी हैं लेकिन किससे पूछें कि वे मिलती क्यों नहीं
और मिलती हैं तो कितनी और किस रूप में.
शिक्षा के अधिकार के तहत हर निजी स्कूल को कुछ सीटों पर गरीब बच्चों को दाखिला
देना जरूरी है. शिक्षा के लिए गरीब और अमीर बच्चे का भेद क्यों होना चाहिए, हमें तो यही समझ में नहीं आता. चलिए, होता है तो महंगे निजी स्कूल गरीब बच्चों को दाखिला देने से
ही इनकार कर देते हैं. प्रशासन का डण्डा चलने पर दाखिला दे देते हैं लेकिन उनके
साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं. उन्हें ‘अमीर’ बच्चों के साथ नहीं बैठाते. उनके
लिए अलग समय पर अलग कक्षा चलाते हैं. शिक्षक/शिक्षिका भी उनके लिए स्तरीय नहीं
होते. उन्हें किसी तरह पढ़ते हुए दिखाना होता है. औपचारिकता पूरी करनी होती है. ये
बच्चे कैसी शिक्षा पा रहे होंगे, कैसी कुण्ठा उनके मन
में भर रही होगी. संवैधानिक अधिकार के नाम पर इन बच्चों के साथ कैसा खिलवाड़ हो रहा
है.
शिक्षा-मित्रों को पक्की नौकरी चाहिए. पूरी
नौकरी वाले शिक्षकों को बढ़ा हुआ वेतनमान चाहिए. अभिभावकों को स्कूल का बड़ा नाम चाहिए. बड़े स्कूल को बड़ा मुनाफा चाहिए. अच्छा इनसान बनाने वाली शिक्षा किसी को नहीं चाहिए. असली शिक्षा के लिए कोई सड़क पर
नहीं उतरता.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 29 जुलाई, 2017)
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