देश के चौदहवें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंगलवार को संसद के सेण्ट्रल हॉल में शपथ लेने के बाद जब अपना पहला भाषण पूरा किया उसी समय संकेत मिल गये थे कि इस पर विवाद अवश्य होगा. कांग्रेस नेताओं की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया तुरंत मिलने लगी थी. सबसे पहली नाराजगी इस पर आयी कि नये राष्ट्रपति ने अपने सम्बोधन में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नामोल्लेख नहीं किया जबकि उनके मंत्रिमण्डल में रहे डॉ भीमराव अम्बेडकर और सरदार बल्लभ भाई पटेल का नाम आदर के साथ लिया.
कांग्रेसियों ही नहीं कई
अन्य नेताओं एवं बुद्धिजीवियों की भी इससे बड़ी नाराजगी राष्ट्रपति के भाषण के
अंतिम अंश से पैदा हुई, जिसमें
उन्होंने एक ही वाक्य और एक ही संदर्भ में महात्मा गांधी और दीन दयाल उपाध्याय का
जिक्र किया. कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा कल सेण्ट्रल हॉल से ही बिफरे हुए थे.
बुधवार को राज्य सभा में शून्य काल शुरू होते ही उन्होंने यह मुद्दा जोर-शोर से
उठा दिया. उनकी घोर आपत्ति है कि महात्मा गांधी की तुलना दीन दयाल उपाध्याय से
करके गांधी जी ही नही, पूरे देश का अपमान किया गया है. अरुण
जेटली के नेतृत्त्व में भाजपा सदस्यों ने इसका तीखा प्रतिवाद किया. यहां तक कह
दिया गया कि राष्ट्रपति के भाषण पर ऐसी कोई टिप्पणी करने का अधिकार ही किसी को
नहीं है.
देश में पहली बार भारतीय
जनता पार्टी पूर्ण बहमत के साथ केन्द्र की सत्ता में है. पहली बार भारतीय जनता
पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से उभरा व्यक्ति राष्ट्रपति भवन पहुंचा है.
सत्ता-प्रतिष्ठान की कई प्राथमिकताएं बदली हुई हैं. नव-निर्वाचित राष्ट्रपति के
भाषण का स्वर भी बदलना था और पहले ही सम्बोधन से उसका प्रमाण भी मिल गया.
राष्ट्रपति ने अपने सम्बोधन के शुरू में कहा कि “हमारी स्वतंत्रता, महात्मा गांधी के नेतृत्व में हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों का परिणाम थी. बाद में, सरदार पटेल ने हमारे देश का एकीकरण किया. हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने हम सभी में मानवीय गरिमा और गणतांत्रिक मूल्यों का संचार किया.”
इसमें प्रथम प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू
का नाम नहीं लिया जाना कोई भी नोट करेगा. स्वाधीनता संग्राम और देश के लोकतांत्रिक
इतिहास में नेहरू की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती. यह भी तय है कि भाजपा
सरकार नेहरू-गांधी-वंश को इतिहास के कई श्रेय नहीं देना चाहती. यदि यहां नेहरू का
भी जिक्र किया गया होता तो ‘कांग्रेस
मुक्त भारत’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और
भाजपा-संघ की घोषित नीति को देखते हुए उसे आश्चर्यजनक किन्तु सदाशयता माना जाता.
राष्ट्रपति ने अपने भाषण का
समापन करते हुए कहा- “हमें तेजी से विकसित होने वाली एक मजबूत अर्थव्यवस्था, एक शिक्षित, नैतिक और साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले और समान अवसर देने वाले समाज का निर्माण करना होगा. एक ऐसा समाज जिसकी कल्पना महात्मा गांधी और दीन दयाल उपाध्याय जी ने की थी.” कांग्रेसियों ही नहीं बहुत सारे और लोगों को भी यह नागवार गुजरा कि राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय का नामोल्लेख इस तरह महात्मा गांधी के
साथ लिया गया. यह अलग अध्ययन-विश्लेषण का विषय है कि दीन दयाल जी ने किस तरह के “साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले और समान अवसर देने वाले” समाज की कल्पना की थी, जो महात्मा गांधी की ऐसी ही किसी कल्पना से
मेल खाती थी, मगर यह तो साफ ही है कि भाजपा-संघ की नजरों में
दीनदयाल जी का स्थान बहुत ऊंचा है. केंद्र से लेकर राज्यों तक की भाजपा सरकारों की
कई योजनाएं, कार्यक्रम और स्थानों का नामकरण उनके नाम पर
किया जा रहा है.
सर्वविदित है कि राष्ट्रपति
के भाषण सरकार तैयार कराती है और वे वही लिखित भाषण पढ़ते हैं. यह एक परिपाटी है जो
संविधान की इस व्यवस्था से बनी है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से काम
करेगा. राष्ट्रपति की सभी शक्तियों पर संविधान के अनुच्छेद 74 का अंकुश है.
अनुच्छेद 74 (1) राष्ट्रपति से अपेक्षा करता है कि वह अपने सभी कृत्यों का निर्वहन
करते समय केवल मंत्रिपरिषद की सहायता तथा सलाह से काम करेगा.
संसद में राष्ट्रपति का
सम्बोधन सरकार का नीति-वक्तव्य जैसा माना जाता है. वहां वह सरकार का लिखा ही पढ़ते
हैं. इससे विचलन अपवाद स्वरूप ही होता है और बड़ी खबर बनता है. नये राष्ट्रपति का
पहला सम्बोधन भी उसी से प्रेरित है. उन्होंने जो कहा वास्तव में वह नरेंद्र मोदी
सरकार का कहा माना जाना चाहिए. मोदी सरकार नेहरू का नाम नहीं लेगी और दीन दयाल उपाध्याय
का नाम जगह-जगह स्थापित करेगी, यह
पूर्व-निश्चित है. कांग्रेसी सिर्फ आपत्ति
और गुस्सा व्यक्त कर सकते हैं. सिविल सोसायटी भी आश्चर्य और खेद ही प्रकट कर सकती
है. भाजपाइयों को यह ऐतिहासिक न्याय नजर लगेगा. बेहतर होता अगर राष्ट्रपति के पहले
सम्बोधन में ऐसे किसी विवाद से बचा जाता.
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