उत्तराखण्ड में वैकल्पिक राजनीति के लिए एक विमर्श
(यह टिप्पणी ‘नैनीताल
समाचार’ के लिए पिछले मास इल्की गयी थी, इस उम्मीद से कि एक बहस और पहल शुरू हो. आप भी इसमें हिस्सेदारी करें-
नवीन जोशी)
विधान सभा चुनाव का नतीजा आये दो महीने हो गये हैं. नयी सरकार की अभी से अपने कुछ फैसलों के
लिए आलोचना होने लगी है. बावजूद इसके कि भाजपा की इस सरकार को उत्तराखण्ड की जनता
ने अपार बहुमत से जिताया, जनता ही के कई वर्गों से असंतोष के स्वर उठने लगे
हैं. जाहिर है कि जनता के मूल मुद्दों, जल-जंगल-जमीन के
सवालों, आदि पर यह सरकार भी पूर्व सरकारों से बहुत भिन्न होने
वाली नहीं.
जिस उत्तराखण्ड राज्य का सपना देखा था, जिसके लिए बलिदान किए थे वह राज्य तो मिला नहीं., जिन सवालों का जवाब मांगा था, वह तो अनुत्तरित
रहे, और भी बड़े सवाल खड़े हो गये हैं. और, जो इन सवालों को लेकर चुनाव में खड़े हुए, वे ठगे-से और
अकेले-अकेले पड़े हैं. तब?
उत्तराखण्ड में मौलिक बदलाव की कामना से चुनाव लड़े
स्थानीय राजनैतिक दल, संगठन, संस्थाएं और उनके
जुझारू कार्यकर्ता एवं समर्थक अब क्या सोच रहे हैं? कुछ ने पराजय का
विश्लेषण किया होगा, हार के कारण तलाशे होंगे. कुछ ने चुनाव लड़ने का आंखें
खोल देने वालाअनुभव प्राप्त किया होगा, चुनावी राजनीति
की कड़वी सच्चाई देखी होगी,धन-बल, बाहु-बल, जातीय गोलबंदियां, वगैरह बहुत करीब से देखी होंगी. इनमें से ज्यादातर का
अनुभव-जनित निष्कर्ष यदि यह है कि व्यापक संगठन, समर्पित
कार्यकर्ताऔर बड़ी पूंजी के बिना चुनाव जीतना तो दूर, मुकाबले में टिका
भी नहीं जा सकता तो कोई आश्चर्य नहीं.
एक और तथ्य नोट किया जाना चाहिए. जनता किसी प्रत्याशी
को सबसे अच्छा, ईमानदार, जुझारू इनसान मान
सकती है. उसकी तारीफ कर सकती है. लेकिन उसकी जीत की सम्भावना वोट देने का निर्णायक
आधार बन जाता है. बीते चुनाव में उत्तराखण्ड में दर्जन भर या ज्यादा ऐसे ही
प्रत्याशी थे. उन्हें हजार-डेढ़ हजार वोट भी न मिलने का रहस्य यही है. जनता के बीच
आपको एक संगठित विश्वसनीय विकल्प के रूप में जाना होगा. जनता को लगना चाहिए कि आप
उसके लिए लड़ने वाले ही नहीं, बेहतर शासन देने वाले भी बन सकते हैं. आपको दिखाना
होगा कि आप इसमें भी सक्षम हैं.
तो, क्या इरादा है? क्या हार मान कर मैदान छोड़ देना चाहिए? या, क्या इसी तरह हर चुनाव में ‘किस्मत’ आजमाते रहना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि कभी न कभी
तो जनता को अक्ल आएगी कि अब राज्य का वास्तविक भला चाहने वालों को जिताना चाहिए? अथवा, एक मजबूत, भरोसेमंद
राज्यव्यापी राजनैतिक विकल्प बनाने की पहल अभी से करनी चाहिए?
ये प्रश्न उन सभी को सम्बोधित हैं जो उत्तराखण्ड की
बदहाली से चिंतित हैं, जो मानते हैं कि भौगोलिक एवं प्राकृतिक स्थितियों के
अनुरूप राज्य के सर्वागीण विकास के लिए कांग्रेस और भाजपा (या सपा-बसपा टाइप
पार्टियों) से मुक्ति जरूरी है, तथा जो इस दिशा
में कुछ सार्थक हस्तक्षेप करने की कोशिश करते रहे हैं या अब करना चाहते हैं.
ये सवाल पहली बार नहीं उठ रहे हैं. राज्य बनने के बाद
से ही पूछे जा रहे हैं. प्रत्येक चुनाव के बाद क्रमश: भाजपा और कांग्रेस की
सरकारों से निराश एवं क्रुद्ध होते रहने के बाद हमारे सामने ये सवाल और बड़ा मुंह
फैला कर खड़े हो रहे हैं. 2017 के चुनाव से पूर्व, पिछले साल के
उत्तरार्द्ध से ‘नैनीताल
समाचार’ समेत उत्तराखण्ड के चुनिंदा पत्रों में इन प्रश्नों
पर कुछ विमर्श भी हुआ है. सोशल साइटों, खासकर फेसबुक में
भी चुनाव पूर्व ये सवाल जेर-ए-बहस थे. मैंने भी कुछ टिप्पणियां लिखी थीं.
ज्यादातर प्रतिक्रियाएं ठण्डी और निराशावादी थीं. ‘कुछ
नहीं हो सकता वाला’ भाव. कुछ दलो-संगठनों ने मिलकर चुनाव लड़ने या एक
दूसरे का साथ देने के बारे में थोड़ी बातचीत भी की थी. कोई नतीजा नहीं निकला था.
कतिपय भागीदारों से हुई मेरी चर्चा और फेसबुक-प्रतिक्रियाएं गुस्से और निराशा से
भरी हुई थीं.
चिपको, नशा नहीं रोजगार
दो, और कई स्थानीय जन-आंदोलनों से निकले नेताओं की तरफ
अक्सर वैकल्पिक राजनीति की पहल करने के लिए उम्मीद से देखा जाता रहा है. उसके बाद
के ढाई-तीन दशकों में कुछ तेज-तर्रार युवा और उभरे. एनजीओ सेक्टर से भी बदलाव की
चाहत और पहल करने वाले कुछ युवा निकले. राज्य-आंदोलन वैचारिक दृष्टि से बहुत
गड्ड-मड्ड था, मगर मौलिक बदलाव चाहने वाले तेवर वहां से भी निकले
ही. राज्य बनने के बाद जनता के संसाधनों की बढ़ती लूट से उपजे गुस्से और नाराजगी ने
भी नए नेतृत्व की सम्भावना विकसित की है.
आशय यह है कि उत्तराखण्ड व्यापी वैकल्पिक राजनीति की
सम्भावना कमजोर नहीं है. जरूरत उन्हें जोड़ने की है. दिक्कतें बहुत बड़ी नहीं लगतीं.
पुरानी पीढ़ी के जो लोग अब अलग-अलग सक्रिय हैं उनमें परस्पर अविश्वास है. कतिपय
व्यक्तिगत नाराजगियां भी. लगभग समान वैचारिक आधार के इन लोगों के बीच खायी इतनी
बड़ी नहीं है कि पाटी न जा सके. बीते चुनाव में प्रत्याशी रहे करीब एक दर्जन
जन-नेता और उनके समर्थक ऐसे हैं जिन्हें उत्तराखण्ड के व्यापक हित में एक मंच पर
लाना मुश्किल नहीं होना चाहिए.
अगर गम्भीरता से प्रयास किया जाए तोअगले पांच साल में
एक वैकल्पिक राजनैतिक दल खड़ा किया जा सकता है. आम आदमी पार्टी ने अपनी स्थापना के
मात्र दो साल में दिल्ली की सत्ता हासिल कर ली. उसकी त्रासद परिणति को छोड दें तो
वह एक उदाहरण है कि विश्वसनीय संगठन खड़ा हो जाए तो चुनाव-खर्च और कार्यकर्ताओं की
कमी नहीं रहती.
तो क्या उत्तराखण्ड की दुर्दशा से व्यथित और बदलाव के
लिए बेचैन संगठन, सक्रिय संस्थाएं, एनजीओ, आदि मिलकर एक विश्वसनीय राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं कर सकते? परिवर्तनकामी संगठन, राज्य में जगह-जगह अपने अधिकारों तथा संसाधन बचाने के
लिए लड़ रहे लोग, महिलाओं के विविध संगठन, हमारे सचेत सचेत पाठक और जिन विचारशील व्यक्तियों के भी पढ़ने में ये पंक्तियां
आएं, वे इस बारे में क्या सोचते हैं? चुनाव में भागीदार रहे विभिन्न दल और संगठन इसे अमल में लाने के लिए कितने
उत्सुक और उदार हैं.? विचार को सिरे से खारिज कर देना आसान है, उसमें सम्भावना और आशा के बीज तलाशना धैर्य की मांग करता है.
2
उत्तराखण्ड में वैकल्पिक राजनीति यानी साफ-सुथरी और
जनहितैषी राजनैतिक पार्टी की सम्भावना है, ऐसा हम मान कर चल
रहे हैं. यह मानने का आधार राज्य के बिग़ड़ते हालात में है. मूलत: जिस पहाड़ और पहाड़ी जनता की सतत उपेक्षा से पृथक राज्य की
मांग उठी, लड़ाई लड़ी गयी, बलिदान दिये गये, जो सपने देखे गये, उनकी अब तक होती अनदेखी में यह मानने का आधार है.
राज्य के विभिन्न इलाकों में उठते असंतोष और आक्रोश के स्वरों में भी यह है. पलायन
से उजड़ते गांवों, बढ़ते शहरीकरण और संसाधनों की लूट में तो है ही. क्या
हमारा सोचना गलत है?
पूछा जा सकता है कि अगर उत्तराखण्ड की जनता में
कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की सरकारों के प्रति नाराजगी है और उनसे उम्मीदें
खत्म हो रही हैं तो हाल के चुनाव में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत कैसे मिल गया? निश्चय ही यह ईवीएम से की गयी जालसाजी नहीं हो सकती. इसका एक ही जवाब है कि हर
चुनाव में नाउम्मीद और नाराज जनता विरोधी दल को सत्ता सौंप देती है, उस पर फिर से आशा जगाते हुए. इसीलिए उत्तराखण्ड में आज तक भाजपा या कांग्रेस, किसी को जनता ने दोबारा शासन चलाने का मौका नहीं दिया. यह सबूत है नाउम्मीद
होने और फिर-फिर उम्मीद पाल लेने का.
सपा और बसपा अपने चरित्र के कारण स्वाभाविक ही
राज्यव्यापी पार्टी नहीं बन सके. उत्तराखण्ड क्रांति दल राज्य निर्माण ही से फूला
नहीं समाया और उसे ही अपनी सफलता मान बैठा. उसने जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप
राजनीतिक दल के रूप में विकसित होने की कोशिश ही नहीं की. सिर्फ पिछलग्गू
पार्टी बनी रही और अपनी नियति को प्राप्त हुई. कांग्रेस और भाजपा अपने दीर्घ
अनुभवों से श्रेय लूटने और बारी-बारी सत्ता हथियाने में कामयाब रहे हैं.
उत्तराखण्ड उन इलाकों में है जहां स्वतंत्रता और उसके
बाद अपने हालात से लड़ने की लम्बी और शानदार परम्परा रही है. इस आंदोलनकारी चेतना
के संवाहक भी यहां लगातार हुए. राजनैतिक और
सांस्कृतिक दोनों धरातलों पर अब भी बराबर मौजूद है. राज्य के विभिन्न हिस्सों में
स्थानीय लेकिन मूल मुद्दों के लिए चलने वाले जन-संघर्ष गवाह हैं.
इसलिए कहा कि उत्तराखण्ड को ठीक से समझने और उसके लिए
बेहतर करने की प्रबल सम्भावना हम देख पा रहे हैं. इस वास्ते ठोस, सम्मिलित और समर्पित प्रयासों की जरूरत है. इस जरूरत को मानना, शिद्दत से महसूस करना और बाधाओं-विवादों से निराश हुए बिना प्रयास करते रहना
होगा.
भारतीय राजनीति में हाल के दो उदाहरण बहुत प्रासंगिक
हैं, जिन्हें इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए. बहुजन समाज
पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप). भारतीय राजनीति में सवर्ण-वर्चस्व-विरोधी
दलित-चेतना बहुत पहले से थी. अम्बेडकर के अलावा अन्य कई क्षेत्रीय नेता इस चेतना
को बढ़ाते-फैलाते रहे, तो भी उसे सत्ता की राजनीति तक ले जाने वाली एक
व्यावहारिक राजनैतिक पार्टी बनाने में कांशीराम को दो दशक तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी.
(महाराष्ट्र में पहले बनी रिपब्लिकन पार्टी को हम जानबूझकर नहीं गिन रहे) उन्होंने
महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और यूपी
में घूम-घूम कर दलितों को यह विश्वास दिलाया कि उनके सामाजिक-राजनैतिक सशक्तीकरण का रास्ता दलितों की, जो कि वास्तव में
बहुजन हैं, अपनी राजनैतिक पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने से ही
खुलेगा. बसपा का सत्तारोहण उत्तर प्रदेश में ही क्यों हो पाया, अन्यत्र क्यों नहीं, यह अलग विश्लेषण का विषय है लेकिन मायावती के
मार्ग-विचलन के बावजूद बसपा आज एक बड़ी वास्तविकता है. उसने दलितों को जो
राजनैतिक-सामाजिक ताकत दी, वह आर्थिक ताकत पाने की पूर्व-शर्त है.
बसपा का उदाहरण हम उत्तराखण्ड की स्थितियों में छोड़
सकते हैं क्योंकि उसके मूल में भारतीय समाज की क्रूर जाति-व्यवस्था रही है. ‘आप’ का उदाहरण देखते
हैं, जो यहां खूब प्रासंगिक है. उत्तराखण्ड की तरह दिल्ली
में भी कांग्रेस और भाजपा की सरकारें आती-जाती रही हैं. शीला दीक्षित की कांग्रेस
सरकार को जरूर लगातार तीन पूरे कार्यकाल मिले. इसके बावजूद ‘आप’ को जनता ने
आशातीत समर्थन दिया. अपने गठन के मात्र दो साल में ‘आप’दिल्ली की सत्ता पा गयी. यह जनमत
भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ समान रूप से था. इससे भी ज्यादा इसमें एक नयी, साफ-सुथरी, मूल मुद्दों की बात करने वाली राजनीति पर जनता का भरोसा था.
यह भरोसा क्यों बना? केजरीवाल और उनकी
टीम ने कांशीराम की तरह दर-दर दौड़ कर भरोसा नहीं जीता. उन्होंने सर्वव्याप्त
भ्रष्टाचार के खिलाफ, पारदर्शिता के पक्ष में, लोकपाल कानून के लिए अन्ना के गैर-राजनैतिक किंतु विश्वसनीय मंच का इस्तेमाल
किया. यानी कि शुरुआत करने के लिए एक भरोसेमंद मंच और बेहतर छवि वाले जुझारू
चेहरों की जरूरत है.
ताकतवर लोकपाल विधेयक के लिए लड़ने वालों की कोई समान
राजनैतिक विचारधारा नहीं थी. अन्ना का कोई राजनैतिक विचार नहीं है. केजरीवाल का भी
नहीं है. उसमें किरण बेदी थीं, बाबा रामदेव भी
कूदे. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार जैसे
कुछ वैचारिक और पहले से बेहतर छवि वाले व्यक्ति भी थे. यानी जनता जिनकी बात गौर से
सुन सकती थी, समझने की कोशिश कर सकती थी, उनका समूह था. हां, उनका संघर्ष पारदर्शिता के लिए था, जिसकी जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी.
आज के उत्तराखण्ड में हम किन सबसे बड़े मुद्दों पर
संघर्ष की जरूरत को उतनी ही शिद्दत से महसूस कर रहे हैं?क्या उनके लिए खिलाफ स्वच्छ छवि वाले व्यक्तियों के दवाब-समूह
से कोई शुरुआत हो सकती है? क्या पहाड़ में ऐसे व्यक्तित्त्वों और संगठनों का अभाव
है?
राजनैतिक दल के रूप में ‘आप’ के उभरने तक लोकपाल आंदोलन के कई शुरुआती बड़े चेहरे
अलग हो गये थे. मूल आधार-व्यक्ति अन्ना हजारे भी विरोध में चले गये थे लेकिन तब तक
बात व्यक्तित्त्वों से ऊपर निकल गयी थी. बड़े बदलाव के लिए एक नयी राजनतिक पार्टी
की जरूरत का मुद्दा सबसे बड़ा बन गया था. यही असली मोड़ था. एक गैर-राजनैतिक आंदोलन
ने, एक दवाब-समूह ने खुद बिखरने के बावजूद वैकल्पिक राजनीति
की आवश्यकता को सर्वोपरि बना दिया. फिर ‘आप’ दिल्ली में छा गयी. गली-मुहल्लों में उसके कार्यकर्ता
बन गये, संसाधनों की कमी न रही. बदलाव की आंकक्षा लहर बन गयी.
आज ‘आप’ किस हाल में है, पार्टी क्यों
भटकती गयी, और क्यों हालात यहां तक पहुंचे, यह बहस अलग, लेकिन उस नजीर को सामने रख कर उत्तराखण्ड क्या
के लिए एक-दो अत्यंत ज्वलंत मुद्दों पर कोई दवाब-समूह नहीं बन सकता? क्या पता वही एक चिंगारी साबित हो.
इन प्रश्नों-सम्भावनाओं पर धैर्यपूर्वक, आशावान होकर मंथन करने की जरूरत है. रास्ता निकल सकता है. पुराने आंदोलनकारी
सहायक हो सकते हैं लेकिन इस प्रक्रिया में उन्हें यह भी लग सकता है कि उनका अब तक
का संघर्ष या त्याग व्यर्थ चला गया. कुछ बिल्कुल नये लोगों, युवाओं की भूमिका अचानक बड़ी हो सकती है. विचार-भिन्न व्यक्तियों को चंद बड़े
मुद्दों पर गलबहियां डालनी पड़ सकती हैं. पिछले मतभेदों-टकरावों से आगे देखना होगा.
यानी एक समूह-मंथन होगा जिसमें पहले से बनी पार्टियां, गुट, संगठन, समूह, व्यक्तित्त्व सब
शामिल हों, स्वतंत्र अस्तित्व की चिंता किये बगैर. तभी बड़े बदलाव
के लिए एक नये जन्म की सम्भावना बनेगी.
इसमें समय लगेगा, इसलिए शुरुआत अभी
करनी होगी. रुकावटें आएंगी और विवाद भी होंगे. मगर लगे रहना होगा.‘आप’ में मचे हाल के घमासान पर सबसे अच्छी प्रतिक्रिया
योगेंद्र यादव की रही. उन्होंने कहा था- ‘राजनीति में प्रयोग होते रहते हैं. वे विफल भी होते हैं लेकिन
सपने टूटने नहीं चाहिए.’
क्या हम बेहतर उत्तराखण्ड के अपने सपने टूटते हुए
देखते रहेंगे? या कोई नया प्रयोग करने की पहल करेंगे? क्या हम इस पर बात करने को, सोचने को तैयार
हैं?
3
इस विमर्श की शुरुआत उत्तराखण्ड में कांग्रेस- भाजपा
(और सपा-बसपा टाइप भी) से इतर एक पारदर्शी वैकल्पिक राजनैतिक दल की सम्भावना
तलाशने की अपेक्षा से की गयी है. यह मान कर चला गया कि कांग्रेस और भाजपा की
सरकारें उत्तराखण्ड को एक हिमालयी राज्य के रूप में, उसके विशिष्ट
भौगोलिक-प्राकृतिक लिहाज से जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप विकसित करने के बारे में
कुछ करना तो दूर सोच के स्तर पर भी असफल रही हैं. इन दोनों दलों की सरकारों ने
उत्तराखण्ड को ‘मिनी
उत्तर प्रदेश’ के रूप में देखा, चलाया और उसके संसाधनों का दुरुपयोग किया, लूट की और होने दी. आज का उत्तराखण्ड इस मायने में कल के उत्तर प्रदेश के
पहाड़ी हिस्से से कई मायनों में विपन्न और बरबाद है.
इसलिए, अब तक की चर्चा
से अगर यह संदेश गया हो कि वैकल्पिक राजनीतिक दल/समूह के गठन में
कांग्रेस,भाजपा, सपा, बसपा, उकांद, आदि में सक्रिय
अथवा उससे सम्बद्ध पहाड़ के शुभेच्छु राजनैतिक अछूत की तरह दूर ही रखे जाएं, तो क्षमा कीजिएगा, मैं अब ऐसा नहीं सोच रहा. बल्कि, सुझाव इसके उलट
है.
कई मित्रों को यह चौंकाने वाला विचार लग सकता है.
सोचते हुए कुछ देर के लिए चौंका मैं भी था. फिर लगा कि कोई भी नया प्रयोग, नयी पहल पूर्वाग्रहों के साथ नहीं होनी चाहिए, खासकर जब कि हम
एक व्यावहारिक, राज्यव्यापी,जनता
तक पहुंच सकने और उसे प्रभावित कर पाने वाला दल या समूह बनाने का प्रयोग करने की
वकालत कर रहे हों. इस राह में कोई राजनैतिक अछूत नहीं होना चाहिए. बाद में क्रमश:
छंटनी-वंटनी, आना-जाना, वगैरह लगा रहेगा,लेकिन फिलहाल पहली शर्त सिर्फ पहाड़ को बचाने-बनाने बारे में
न्यूनतम किंतु घनघोर सहमति होनी चाहिए.
यानी हमें कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा, वाम दलों एवं
उक्रांद के भीतर मौजूद उत्तराखण्ड के हितचिन्तकों की ओर भी अवश्य देखना चाहिए और
उन्हें वैकल्पिक राजनैतिक पहल से जोड़ना चाहिए. यह नहीं मानना चाहिए कि इन दलों के
भीतर उत्तराखण्ड के वासतविक हितैषी नहीं होंगे, कम से कम कुछ
न्यूनतम मुद्दों पर. गम्भीर, जमीनी, सम्भावनाशील
प्रयास होने पर ऐसे कुछ लोग साथ आ सकते हैं. उनके जनाधार का लाभ मिल सकता है.
वैचारिक मतभिन्नता को फिलहाल के लिए अलग रखना होगा, यह बात पहले कही
जा चुकी है.
उदाहरण के लिए, कांग्रेस के
प्रदीप टम्टा का नाम लेने की इजाजत चाहता हूँ. कभी उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी के
जुझारू कार्यकर्ता-नेता रहे प्रदीप के भीतर क्या उस उत्तराखण्ड का सपना जीवित नहीं
है, जिसके हम सब साझीदार हैं? कांग्रेस की राजनीति ने उन्हें आज जहां भी, जैसा भी बना रखा
हो, मैं समझता हूं कि उत्तराखण्ड के लिए वैकल्पिक राजनीति
की तलाश में वे महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं. उक्रांद के काशी सिंह ऐरी का भी नाम
लूंगा. मेरी जानकारी अत्यंत सीमित है लेकिन भाजपा, सपा, बसपा और वाम दलों की उत्तराखण्ड इकाइयों में भी ऐसे कुछ नाम निश्चय ही होंगे.
जो तड़प इन सबको अलग राज्य की मांग के लिए एक कर सकती थी, वैसी ही जरूरत और ललकार इस नये प्रयोग के लिए एकजुट क्यों नहीं कर सकती?
ऐसे लोगों के साथ आने से वैकल्पिक राजनैतिक सम्भावना
का आधार व्यापक होगा, पहले से यत्र-तत्र सक्रिय परिवर्तनकामी ताकतों को
अपने सीमित दायरे से निकल कर बड़े क्षेत्र में काम करने का, अपनी बात ले जाने का अवसर मिलेगा. इससे नयी
राजनैतिक पहल को बेहतर परिचित चेहरा मिलेगा और जनता के बीच पहचान बनाने में आसानी
होगी.
इस सुझाव से कुछ मित्र बिदकेंगे, सवाल उठाएंगे, पुरानी निष्ठाओं-दगाओं की बात करेंगे, लेकिन अर्ज किया जा चुका है कि राजनैतिक मतभेद, पुराने त्याग, दगाबाजी, विवाद, निजी मनमुटाव, वगैरह दूर रखना प्रयोग के लिए आवश्यक शर्त है.
याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि भारतीय
राजनीति की तात्कालिक जरूरतों ने ऐसे प्रयोग पहले भी किये हैं. 1963-67 के दौर में राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद के लिए
ऐसा प्रयोग किया था. इसी के बाद 1967 में नौ राज्यों में बनी संयुक्त विधायक दल की
सरकारों में जनसंघ और वाम दल साथ थे. 1977 में ‘आपातकाल’ के बाद जय प्रकाश
नारायण के आह्वान पर बनी जनता पार्टी में जनसंघ भी शामिल थी. आज की भारतीय जनता
पार्टी उसी विलय से निकला जनसंघी अवतार है.
वे प्रयोग अल्पजीवी रहे लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि
वे सफल नहीं हुए. वे भारतीय राजनीति में नयी राह बनाने वाले प्रयोग साबित
हुए. आज के उत्तराखण्ड में हम भी किसी दीर्घजीवी राजनैतिक विकल्प की बात नहीं कर
रहे. कोई जन-हितैषी दीर्घजीवी विकल्प बन जाए, इससे अच्ची बात
क्या हो सकती है लेकिन अभी तो सिर्फ एक नयी राह की तलाश है. इसलिए प्रयोग करने की
बात हो रही. विफल हो तो हो, प्रयोग होंगे तो उनसे सम्भावनाएं बनती हैं. बंद दीवार
में एक झरोखा खुलता है. उत्तराखण्ड में हमें आज ऐसे ही एक झरोखे की जरूरत नहीं
महसूस होती क्या?
योगेंद्र यादव की बात दोहराते हुए कि राजनीति में
प्रयोग होते रहते हैं, वे विफल भी होते हैं लेकिन सपने टूटने नहीं चाहिए, इस अपील को बहस के लिए आप सब के बीच छोड़ता हूं. अगले चुनाव तक काफी समय है
लेकिन शुरुआत अभी ही करनी होगी. छोटी-छोटी समूह-चर्चाओं, आम हो गये सोशल साइट-ग्रुप एवं फोन तथा दुर्लभ होते पत्रों से भी शुरुआत की जा
सकती है.
तो मित्रो, सकारात्मक सोच के
साथ इस सम्वाद को आगे बढ़ाइए.
शुभकामनाएं.
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