नव-निर्मित मुख्यमंत्री सचिवालय से बहुत दूर नहीं जाना है. किसी भी दिशा में
पांच किमी के दायरे में ऐसे सरकारी विद्यालय मिल जाएंगे जो इस बारिश में टपक रहे
हैं, जहां आवारा छोड़े गये ढंगरों ने
गोबर कर रखा है, या कुत्तों, सुअरों ने डेरा जमा लिया है या किसी ने दीवार में छेद कर रात में सिर छुपाने की जगह बना रखी है या किसी
दबंग ने कब्जा करने की नीयत से कुछ सामान ठूंस दिया है. वहां पढ़ने के लिए आये
बच्चे भी मिल जाएंगे और कुछ अध्यापक भी. जुलाई का महीना है, स्कूल खुल गये हैं. ‘स्कूल
चलो अभियान’ का मौसम है. मुफ्त
में स्कूल ड्रेस, किताबें, बस्ता, वगैरह बंटने का मौसम
है. इसलिए भी बच्चे आ रहे हैं, टीचर दिख रहे हैं.
कहीं-कहीं स्कूल की सफाई हुई भी दिखती है, हालांकि
बारिश के कारण जल-भराव ने सब बराबर कर दिया है.
शिक्षा विभाग हर साल की तरह इस बार भी बेहद आराम से है. सत्ता में पार्टी बदल
गयी लेकिन उसके काम करने का तरीका नहीं बदला. समय पर स्कूल-ड्रेस के लिए टेण्डर, कॉपी-किताबों की छपाई की व्यवस्था, आदि इस बार भी नहीं हुई. पिछली बार के जो स्कूल-बस्ते बचे
थे, उनमें अखिलेश यादव की तस्वीर छपी
है. वह बांटी नहीं जा सकती. यह अफसरों
ही का कारनामा है. कल अखिलेश की फोटो छापने वाले आज योगी की तस्वीर छापना चाह रहे
होंगे. सिर्फ इशारे की देर है. सारा जोर इसी ‘सेवा
भाव’ में है. बच्चों की पढ़ाई और पढ़ने लायक न्यूनतम जरूरी माहौल देने की
चिंता किसे है.
जैसे-तैसे कुछ व्यवस्था करके मुख्यमंत्री से कुछ जिलों में बच्चों को
पाठ्य-सामग्री बंटवाई जा रही है. बाकी आधा साल बीतने तक बंटेगा, जब टेण्डर होने के बाद सामान आने लगेगा. किसी को कोई जल्दी
नहीं है कि पढ़ाई समय पर शुरू हो, बच्चे अच्छी तरह
पढ़ें, पास हों और आगे बढ़ें. मुख्य
चिंता इसकी है कि मुख्यमंत्री का कार्यक्रम बहुत अच्छी तरह निपट जाए, उनके हाथों कुछ बच्चों को पाठ्य-सामग्री मिल जाए. बस, फिर तो जंग जीत ली. यह तंत्र मुख्यमंत्री और मंत्रियों को
खुश कर लेने और एक-दूसरे की पीठ ठोक लेने का काम बहुत बढ़िया करता है. इसीलिए
प्रचार और जमीनी सच्चाई के बीच हमेशा बड़ी खाई होती है.
जिन स्कूलों में अब तक मुख्यमंत्री ने पाठ्य-सामग्री बांटी है, वे अधिकारियों के चुने हुए स्कूल हैं. जाहिर है वे बहुत
बेहतर हालत में हैं और रातों रात चमका भी दिये गये होंगे. वर्ना, मुख्यमंत्री आवास में बच्चों को बुला लिया. सौ फीसदी टंच
काम. सरकारी स्कूलों का हाल राजधानी लखनऊ में भी दयनीय है और बस्ती, बुलन्दशहर में भी. वहां कोई कार्यक्रम नहीं होगा. वहां
स्कूल भवन खण्डहर बना रहेगा, जहां छतें टपकती
रहेंगी, दरवाजे-खिड़की गायब
होंगे या मवेशी गोबर करते होंगे, इसके बावजूद जहां टीचर होंगे और स्कूल चलता होगा.
यह दशकों बरस पुराना दृश्य है और आज तक वैसा ही चला आ रहा है. निजी स्कूलों की
पंचतारा शृंखला खुल गयी लेकिन अपने सरकारी
प्राइमरी-मिडिल स्कूलों का हाल बिल्कुल न बदला. आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लखनऊ में
ही बहुत सारे स्कूल –भवन असुरक्षित घोषित हैं यानी वे कभी भी गिर सकते हैं. उनमें बच्चों को बैठाना खतरनाक है. स्कूल चलो अभियान के
किसी जिम्मेदार को ‘असुरक्षित’ स्कूल भवन से खतरा नहीं है. वे अपनी ड्यूटी परम भक्ति-भाव
और निष्ठा से करते आये हैं. यह ‘ड्यूटी’ जारी रहेगी, पूरे समर्पण से, कोई सरकार हो! (NBT, Lko July 08, 2017)
1 comment:
कटु सत्य व्यक्त करता हु आ लेख। खाली पठन-पाठन सामग्री बांटने से कुछ नही होगा, ये समय से भी बंटनी होगी। विद्यालयों में पढ़ाई के लिये उपयुक्त वातावरण और व्यवस्था भी देनी होगी।
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