उत्तर प्रदेश के
स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह की इस अमानवीय टिप्पणी के लिए ठीक ही सर्वत्र
निंदा हो रही है कि अगस्त के महीने में गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इन्सेफ्लाइटिस से
रोजाना औसतन 20 बच्चों की मौत सामान्य बात है.
उनके बयान की राजनैतिक
निर्ममता को तूल न दें तो कहना होगा कि यह भयावह सच्चाई है. गोरखपुर का प्रशासन, गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के विशेषज्ञ डॉक्टर,
स्थानीय मीडिया, नेता और इलाके की जनता,
सभी साल भर में करीब हजार बच्चों की मौत को सामान्य मानने और सहने के
आदी हो चुके हैं.
इनमें प्रदेश के
मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी शामिल हैं, जो 1998 से लगातार गोरखपुर क्षेत्र से सांसद हैं और गाहे-ब-गाहे जापानी
इन्सेफ्लाइटिस की समस्या उठाते रहे हैं. यह अलग बात है कि इसके प्रभावी समाधान या
रोकथाम की दिशा में कोई खास काम नहीं हुआ.
यह भयावह सिलसिला
1977 से चला आ रहा है, जब
गोरखपुर और आस-पास के इलाके में जापानी इंसेफ्लाइटिस नाम की महामारी ने पहली बार
दस्तक दी थी. हर साल सैकड़ों बच्चों की मौतों और इससे ज्यादा के अपंग होने की खबरें
शुरू-शुरू में मीडिया और प्रशासन में खलबली मचाती थीं. फिर धीरे-धीरे यह सालाना
रूटीन बन गया. शास्न, प्रशासन और मीडिया की संवेदना कुंद
होती चली गयी.
कई पत्रों और
चेतावनियों के बावजूद 69 लाख रु का भुगतान न होने पर एजेंसी ने अस्पताल को ऑक्सीजन
की आपूर्ति रोकी न होती तो इस साल भी गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज के अस्पताल
में 10-11 अगस्त को 30 बच्चों समेत पचासेक मरीजों की मौत पर हंगामा न बरपा होता.
यह लिखते हुए हाथ
कांपता है, मगर सत्य है कि,
ऑक्सीजन सप्लाई बाधित होने से मौतों का सिलसिला तेज हुआ, बस. ऑक्सीजन मिलती रहती तो उन बदकिस्मत बच्चों की सांसें कुछ समय और चल
जातीं. उनमें से शायद चंद बच जाते मगर ज्यादतर को मौत क्रमश: गले लगाती रहती. अपने
जिगर के टुकड़ों की लाशें गोद में उठाये, चीखते-बिलखते
माता-पिताओं का अस्पताल से निकलना लगातार जारी रहता, जैसे
2016 में इसी अस्पताल से एक-एक कर 514 बच्चों की लाशें उनके अभिभावक उठा ले गये
थे.
अस्पताल में
साल-दर-साल होती आयी मौतों का हिसाब तो लगाया जा सकता है लेकिन जो बच्चे अस्पताल
नहीं पहुंच पाते या जो निजी अस्पतालों अथवा झोला छाप ‘क्लीनिकों’ में दम
तोड़ते आये, उनका कोई गणित?
इंसेफ्लाइटिस
उन्मूलन अभियान के प्रमुख डॉ आर एन सिंह का आकलन है कि गोरखपुर और आस-पास के 12
जिलों में इस बीमारी से अब तक एक लाख से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं.
क्या यह आंकड़ा
चौंकाने वाला है? क्या
कोई चौंक रहा है? क्या कोई गम्भीरता से कुछ कर रहा है?
जुलाई 2016 में
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गोरखपुर में ‘एम्स’ का शिलान्यास करने आये थे. तब उन्होंने अपनी
ओजपूर्ण वाणी में कहा था- ‘एक भी बच्चे को इंसेफ्लाइटिस से
नहीं मरने दिया जाएगा.’ उस समय भी बच्चे दम तोड़ रहे थे. आज
एक साल बाद जब ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की दर्दनाक मौतों से देश दहला हुआ है,
गोरखपुर ‘एम्स’ की खाली जमीन
पर चहारदीवारी भी पूरी नहीं बन पायी है.
अब बीते रविवार को
गोरखपुर गये केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा ने 85 करोड़ रु की लागत से वहां
क्षेत्रीय चिकित्सा अनुसंधान संस्थान खोलने का ऐलान कर दिया है. साथ में मौजूद
मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि जांच से पता चलेगा कि अस्पताल उपचार कर रहा था कि नरसंहार.
जमीनी सच्चाई यह है कि मौजूदा चिकित्सा
तंत्र ही को सघन उपचार की जरूरत है.
1977 से लगातार
भयावह होती आयी इस माहमारी से निपटने में चिकित्सा-तंत्र और अत्यावश्यक संसाधन किस
हाल में हैं, यह देखना अत्यंत
ठण्डे, गैर-जिम्मेदार, अक्षम और
सम्वेदनहीन तंत्र से दो-चार होना है.
बाबा राघवदास मेडिकल
कॉलेज इंसेफ्लाइटिस के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के 12 जिलों का आधिकारिक और बिहार
तथा नेपाल से आने वाले मरीजों के लिए भी विशेषज्ञ चिकित्सा केंद्र है. यहां इंसेफ्लाइटिस
के 2500-300 मरीज हर साल भर्ती होते हैं. क्षमता से दस गुणा अधिक. इनमें बच्चों की
संख्या सबसे ज्यादा है.
पीडियाट्रिक
इंटेंसिव केयर यूनिट में सिर्फ 10 बिस्तर हैं. एक बिस्तर और एक वार्मर में चार-चार
बच्चे रखे जाते हैं. कम से कम पचास बिस्तर के वार्ड और 300 चिकित्सा कर्मचारियों
की मांग कई साल से की जाती रही है. कोई
सुनवाई नहीं.
सन 2102 और 2104 में
इंसेफ्लाइटिस पर रोकथाम के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम बने. टीकाकरण पर कुछ
प्रगति के अलावा बाकी कार्यक्रम फाइलों में दफ्न रहे. टीकाकरण ने महामारी की
विभीषिका कुछ कम जरूर की है.
गोरखपुर के अस्पताल
पर मरीजों का बोझ कम हो और बीमार बच्चों को अपने ही इलाके में इलाज मिल जाए, इसके लिए ‘यूनिसेफ’
के मॉडल की तर्ज पर बारह वर्ष पहले बीमार नवजात शिशुओं के लिए स्थानीय
स्तर विशेष केंद्रों की व्यवस्था की गयी थी. बीते शनिवार को आयी केंद्रीय टीम ने
पाया कि ये केंद्र कहीं बने ही नहीं और जहां बने वहां काम नहीं करते.
गोरखपुर जिले के 68
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से सिर्फ 11 चालू पाये गये. रेफरल यूनिट सिर्फ छह और मात्र विशेष नवजात
शिशु केंद्र मात्र एक है. ऐसा ही हाल आस-पास के जिलों का है.
इन हालात में पूरे
पूर्वांचल के लोग इंसेफ्लाइटिस पीड़ित बच्चों को गोरखपुर मेडिकल कॉलेज लाने के लिए
मजबूर हैं. बिहार के पड़ोसी जिलों और नेपाल से भी मरीज यहां आते हैं. नतीजा यह कि
राघवदास अस्पताल क्षमता से दस गुणा मरीजों का समुचित इलाज करने में सर्वथा असमर्थ
रहता है.
पिछले तीन दशकों से
किसी भी सरकार ने इस स्थिति में सुधार के बारे में गम्भीरता और ईमानदारी से
प्रयत्न नहीं किये. शासन की कामचलाऊ नीति देख कर अस्पताल प्रशासन भी लापरवाह बना
रहा. मौतें होती रहीं.
इसी लापरवाही का
नतीजा था कि नौ अगस्त को मुख्यमंत्री के अस्पताल दौरे में न उनको और न ही वहां
मौजूद संबद्ध प्रमुख सचिवों को यह बताना जरूरी समझा गया कि एजेंसी का भुगतान न
होने के कारण उसने ऑक्सीजन सप्लाई बंद कर देने की चेतावनी दी है.
अब यह तथ्य सामने आ
चुका है कि एजेंसी ने भुगतान के लिए इस साल फरवरी से अगस्त के पहले सप्ताह तक 14
पत्र लिखे थे. कुछ पत्रों की प्रतिलिपि स्वास्थ्य महानिदेशक और प्रमुख सचिवों को
भी भेजी गयी थीं.
शासन ने मुख्य सचिव
के नेतृत्त्व में जो जांच बैठाई है, उसका दायरा बहुत सीमित है. मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री जांच से पहले
ही निष्कर्ष दे चुके हैं कि मौतें ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुईं. सरकार इस भयावह
गैर-जिम्मेदारी को रूटीन बता कर टालने पर आमादा लगती है. इसीलिए आंकड़े दिये जा रहे
हैं कि पिछली सरकारों में और भी ज्यादा मौतें हुईं.
असली बीमारी पकड़ने
का इरादा दिखता नहीं. पूरे चिकित्सा तंत्र में जो खामियां और लापरवाहियां गहरे
पैठी हुई हैं, उनको उघाड़े और
दूर किये बिना पूर्वांचल में बच्चों की मौत का सिलसिला थमने वाला नहीं.
( http://hindi.firstpost.com/india/whole-system-is-habituated-of-witnessing-yearly-death-of-thousands-of-children-47374.html) 16 जुलाई, 2017
No comments:
Post a Comment