पीजीआई, मेडिकल कॉलेज और
दूसरे बड़े सरकारी अस्पतालों की ओपीडी में स्वाइन-फ्लू के लक्षणों वाले मरीज अन्य
रोगियों-तीमारदारों की भीड़ में जिस तरह घूम रहे हैं, उसे
देखते हुए अचम्भा नहीं होना चाहिए कि यह खतरनाक रोग ऐन राजधानी में सबसे ज्यादा
फैल रहा है. पीजीआई और मेडिकल कॉलेज का प्रशासन ऐसे मरीजों को भीड़ से अलग करने या
कम से कम मास्क लगाने की हिदायत देने की भी चिंता न करे तो क्या कहा जाए? जनता का एक वर्ग इतना सचेत नहीं है, मगर इन संस्थानों के कर्ता-धर्ता ? स्वाइन-फ्लू के मरीज अस्पतालों की भीड़ में संक्रमण फैला रहे
हैं. डॉक्टर और अस्पताल कर्मचारी सबसे
ज्यादा संक्रमित हो रहे हैं, यह तथ्य भी प्रशासन
को चौंकाता नहीं. आइसोलेशन वार्ड बनाकर क्या होगा, जब
ओपीडी से ही रोग फैल रहा हो? सरकार और प्रशासन
बचाव के सुझाव देते विज्ञापन देकर जिम्मेदारी पूरी मान लेते हैं, उन सुझावों पर स्वयं अमल नहीं करते.
बिजली विभाग जिस तरह ट्रांसफॉर्मर लगाता है और जो उसके सुरक्षा मानक हैं, उनमें जमीन-आसमान का अंतर है. वे कहीं भी सड़क किनारे, फुटपाथ पर, किसी पार्क के कोने
में यूं ही रखे देखे जा
सकते हैं. अक्सर उनसे दुर्घटनाएं होती हैं. ट्रांसफॉर्मर छोड़िए, जिस तरह बिजली कर्मचारी बिना पर्याप्त उपकरणों के लाइन पर
काम करते हैं, वह बेहद
गैर-जिम्मेदाराना है. बिजली कर्मचारियों (आम तौर पर दिहाड़ी वाले) की करण्ट से और
सफाई कर्मचारियों की सीवर की जहरीली गैस से होने वाली मौतें बहुत पुराना सिलसिला
हैं. आज तक उनकी सुरक्षा के सामान्य उपाय भी किसी सरकार, बिजली विभाग और नगर निगम के जिम्मेदारों ने नहीं किये. हर मौत के बाद गुस्सा
फूटने पर कुछ अश्वासन और थोड़ा मुआवजा, बस. असल में यह
लापरवाही आपराधिक है. ऊपर से नीचे तक सबको पता है कि यह जानलेवा काम है और चंद
सुरक्षा उपाय जिंदगी बचाएंगे, तब भी कोई हलचल नहीं
होती.
खुले मैनहोल, सड़कों के गड्ढे और रोड डिवाइडर जरा-सी दुर्घटना में जानलेवा साबित होते हैं. गड्ढों और मैनहोल
में से झांकती टहनियां, जो किसी जागरूक
नागरिक का काम होता है, आपको सावधान कर दें
तो ठीक वर्ना तो बीच सड़कों पर मौत का सामान सजा ही है. रोड-डिवाइडर सरिया-कंक्रीट
से इतने मजबूत बनाये जाते हैं जैसे कि बांध की दीवार हो. कोई उनसे टकराया तो मरेगा
या हाथ-पैर तो तुड़वा ही बैठेगा. एक पुराने इंजीनियर बता रहे थे कि रोड-डिवाइडर
मामूली गारे से बनाये जाने चाहिए ताकि कोई टकराये तो डिवाडर टूटे, मनुष्य और उसके वाहन की दुर्गति न हो. मगर यहां चिंता यह है
कि मनुष्य मर जाए तो कोई बात नहीं, डिवाडर सुरक्षित
रहना चाहिए.
गैर-जिम्मेदारियां हममें किस कदर भर गयी हैं, सोच
कर ही सिहरन होती है. बिजली की हाई-टेंशन लाइन के ठीक नीचे तक अपने मकान का छज्जा
बढ़ाते वक्त यह ख्याल तो आता ही होगा कि यह कितना खतरनाक है. एक दिन अचानक वही लाइन
घर के एक युवक की जान ले लेती है. गुस्साई जनता बिजली विभाग के खिलाफ नारे लगाते
हुए सड़क जाम करती है. जिला प्रशासन मुआवजा देकर मामला शांत कराता है. सब मान लेते
हैं कि हादसा था और हादसे होते रहते हैं!
इलाज के लिए अस्पताल जाइए और खतरनाक बीमारी लेकर घर लौटिए. जान बचाने के लिए खून चढ़वाइए और जानलेवा हेपटाइटिस-बी या सी
से संक्रमित हो जाइए, यह हमारे यहां कितना
आम हो गया है. जन-स्वास्थ्य के प्रति ऐसी घोर लापरवाही आपराधिक तथा अक्षम्य होनी
चाहिए. अफसोस कि कहीं कोई हलचल नहीं. (नभाटा, 5 अगस्त, 2017)
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