कांति देवी और जगदीश शर्मा की नौ साल की बिटिया संध्या को
ब्रेन ट्यूमर था. बरेली में कई डॉक्टरों के इलाज और तमाम जांचों के बाद उसे पीजीआई, लखनऊ लाया गया. विषेषज्ञ डॉक्टरों ने बताया कि ऑपरेशन करना पड़ेगा जिसमें
एक लाख का खर्च होगा. कांति और जगदीश मजदूर हैं. उनके पास जो भी था अब तक इलाज में
खर्च हो गया था. लोगों की सलाह पर बीती मई में बरेली के डी एम के माध्यम से
मुख्यमंत्री को अर्जी भेजी गयी. जुलाई के पहले हफ्ते में बरेली के डीएम के पास
मुख्यमंत्री सचिवालय से पत्र आया कि संध्या के इलाज के लिए पचास हजार रु मंजूर
किये गये हैं. डीएम दफ्तर ने जगदीश को बताया तो पता चला कि संध्या को मरे डेढ़
महीना हो चुका है.
इस वाकये की याद हमें गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज
में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की दर्दनाक मौत के संदर्भ में आयी है. इस काण्ड का
एक पहलू सरकारी चिट्ठियों और फाइलों का भी है जो आज भी बड़ी मंथर चाल से सरकती हैं
या मेजों में पड़ी रहती हैं. यह समझ से परे है कि बकाया भुगतान न होने की स्थिति
में ऑक्सीजन आपूर्ति बाधित होने के आसन्न खतरे की सूचना ई-मेल से क्यों नहीं भेजी
गयी? मेडिकल कॉलेज, जिलाधिकारी, चिकित्सा महानिदेशक एवं विविध सचिवों को कम्प्यूटर और
वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग सुविधा सजावट के लिए दी गयी है क्या?
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज को ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाली एजेंसी
ने बकाया भुगतान के लिए फरवरी 2017 से अगस्त के पहले सप्ताह तक चौदह पत्र लिखे. अब
पता चला है कि मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य ने भी ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाली एजेंसी
के पत्रों का हवाला देकर 22 मार्च से 09 अगस्त, 2017 के बीच
लखनऊ में बैठे आला अफसरों को 10 पत्र भेजे. ये पत्र स्वास्थ्य महानिदेशक और
चिकित्सा-शिक्षा के अपर मुख्य सचिव तक को लिखे गये.
फाइलों में कैद इन पत्रों का शासन सतर पर कोई संज्ञान नहीं
लिया गया. लखनऊ में बैठे आला अफसरों ने जान-बूझ कर अनदेखी की या फिर फाइलों में
नत्थी इन चिट्ठियों पर उनकी नजर ही नहीं गयी या इन पत्रों की तात्कालिकता नहीं
समझी गयी, यह तो वही जानें. ब्रेन ट्यूमर के ऑपरेशन के लिए आर्थिक
सहायता दो महीने बाद मंजूर करने का कोई अर्थ नहीं था. और, किसी
डॉक्टर या आला अफसर को यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि आईसीयू में भर्ती
बच्चों के लिए ऑक्सीजन की सतत आपूर्ति कितनी जरूरी है.
कॉरपोरेट जगत में बड़े-बड़े फैसले ई-मेल पर मिनटों में लिये
जाते हैं. अरबों-खरबों के सौदे इसी तरह फटाफट होते हैं. गड़बड़ियों की सूचना और
चेतावनियां मिनटों में दुनिया भर में पहुंचा दी जाती है. हमारा सरकारी तंत्र
अति-महत्त्वपूर्ण मामलों में भी चिट्ठी लिखता और फाइलों में कैद करके संदेशवाहक के
हाथ पठाता है. क्यों? संध्या की जान बच जाती अगर बरेली के डीएम
और मुख्यमंत्री सचिवालय के बीच आर्थिक सहायता का फैसला तुरंत लिया जाता. ऑक्सीजन
आपूर्तिकर्ता की चेतावनियों पर ई-मेल या वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग से हल्ला क्यों नहीं
मचाया जा सकता था. आज हमारे आस जो त्वरित और पारदर्शी टेक्नॉलॉजी है, उसका इस्तेमाल सरकारी तंत्र क्यों नहीं करता?
लगता है इस तंत्र को पारदर्शिता ही से परहेज है. बहाने
बनाने या सफाई पेश करने में लेकिन कोई देर नहीं होती. (सिटी तमाशा, नभाटा, 20 जुलाई, 2017)
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