दो ताजा घटनाक्रमों ने देश में भाजपा की बाढ़ और विपक्ष के
सूखे को बढ़ाने का ही काम किया है. तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के दोनों गुटों का
विलय हो गया. किसी पार्टी में विभाजन के बाद विलय की यह सम्भवत: पहली घटना है, लेकिन इससे ज्यादा इसका महत्त्व इसलिए है कि अब अन्नाद्रमुक के राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल होने का रास्ता साफ हो गया है. अर्थात दक्षिण
भारत का यह बड़ा राज्य भी भाजपा के खेमे में आ जाने वाला है, जिसे
अन्यथा जीतने का ख्वाब फिलहाल वह देखने की स्थिति में नहीं है.
दूसरी ओर, एक दिन पहले बसपा के विपक्षी एकता वाले
पोस्टर के ट्वीट से अगर विपक्षी सूखे में कुछ बौछारें पड़ने की सम्भावना बनी थी तो
दूसरे ही दिन उस ट्वीट के वापस होने और मायावती के स्पष्टीकरण से आसमान एकाएक खरा
हो कर तीखी धूप से विपक्षी धरती को और भी चटकाने लगा.
तो क्या विपक्ष का अंत हो रहा है? जिस तरह भाजपा को हराने वाला बिहार और नीतीश कुमार जैसा ताकतवर प्रतिपक्षी
नेता राजग के खेमे में चले गये, उससे इस चर्चा को खूब हवा
मिली है कि क्या 2019 के बाद विपक्ष रहेगा ही नहीं? इस तरह
के विश्लेषण भी पढ़ने में आये हैं कि 2019 का चुनाव विपक्ष का आखिरी चुनाव होगा.
तमिलनाडु इस मायने में विशिष्ट राज्य है कि अन्नादुरई के
नेतृत्त्व में दविड़-राजनीति के उभरने के बाद कांग्रेस भी वहां क्षेत्रीय दविड़-दलों
के गठबंधन से ही पैर टिकाये रह सकी. भाजपा भी यह द्रविड़-बाधा पार कर पाने की
स्थिति में नहीं है. नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद वह तमिलनाडु से लोक सभा की एक
भी सीट नहीं जीत सकी. विधान सभा में उसका एकमात्र सदस्य है. इसलिए भाजपा-नेतृत्त्व
ने शुरू से ही जयललिता से बेहतर रिश्ते बना रखे थे. जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक
में विभाजन भाजपा के लिए सुखद नहीं था. वह अन्नाद्रमुक के दोनों गुटों को एक करने
में परदे के पीछे से काफी सक्रिय थी. अब जबकि अन्नाद्रमुक (शशिकला के भांजे
दिनाकरन के नेतृत्त्व में करीब 20 विधायकों के गुट को छोड़कर) फिर से एक हो गयी है तो उसके राजग में शामिल
होने की घोषणा में बहुत देर नहीं होनी चाहिए.
जहां राजग का खेमा लगातार बड़ा होता जा रहा है, वहीं भाजपा के खिलाफ एकजुट होने की विपक्ष की कोशिशों को झटके ही लग रहे
हैं. सबसे बड़ा धक्का नीतीश कुमार के जाने से लगा. उससे यह भी साबित हुआ कि विपक्षी
एकता की सूत्रधार बनी कांग्रेस प्रभावहीन है अथवा उसकी बात सहयोगी सुन नहीं रहे.
यदि कांग्रेस लालू को इस बात के लिए मना लेती कि विपक्षी एकता के लिए तेजेश्वरी
यादव नीतीश सरकार से अलग हो जाएं, भले ही लालू परिवार का कोई
दूसरा उसकी जगह ले ले, तो नीतीश इतनी आसानी से राजग खेमे में
न गये होते. इधर शरद पवार की भी कांग्रेस से नाराजगी सामने आ रही है.
फिलहाल विपक्षी एकता की कोशिश शरद यादव को आगे रख कर की जा
रही है. नीतीश कुमार की तुलना में शरद यादव का कोई जनाधार नहीं है और जद (यू) के
भीतर भी उनका खास समर्थन नहीं है. तो भी, साझा विरासत के नाम पर एक सम्मेलन करके शरद
यादव ने विपक्षी एकता के प्रयास जीवित रखे हैं. पहले यह चर्चा थी कि केंद्र में मंत्री
बनाकर भाजपा शरद यादव को भी अपने खेमे में ले लेगी. शरद नहीं माने या प्रस्ताव ही
नहीं था, जो भी सच हो, विपक्ष के पास
एक बड़ा नाम बचा रह गया. अब वे 14 दलों की विपक्षी-एकता के संयोजक हैं.
बीते रविवार की शाम बसपा के कथित ट्विटर हैण्डल पर जारी पोस्टर
ने विपक्षी खेमे में बड़ी आशा का संचार कर दिया था. इस पोस्टर में मायावती के साथ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय
अध्यक्ष अखिलेश यादव, सोनिया गांधी, शरद
यादव, ममता बनर्जी, लालू यादव और उनके
बेटे तेजेश्वरी यादव की तस्वीरें थीं. पोस्टर का नारा था- ‘सामाजिक
न्याय के समर्थन में विपक्ष एक हो.’ बसपा का यह पोस्टर-ट्वीट
एक दिन बड़ी राजनैतिक सनसनी मचा कर अगले दिन वापस ले लिया गया. खुद मायावती ने साफ
किया कि वे अपनी बातें प्रेस कॉन्फ्रेंस या विज्ञप्ति के जरिए कहती हैं, ट्वीट से नहीं.
ट्वीट के वापस होने के बावजूद चर्चा चल पड़ी है. अगर उत्तर
प्रदेश की राजनीति के ये दो बाहुबली, बसपा और सपा विपक्षी मोर्चे में शामिल हो
जाएं तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए मुश्किल पैदा हो जाएगी. ममता बनर्जी और
लालू यादव अपने-अपने राज्यों में मोर्चे को ताकतवर बना सकेंगे. कांग्रेस इसमें
अखिल भारतीय नाम की तरह होगी तो बाकी छोटे दलों का जनाधार कुछ जोड़ेगा ही. यानी
2019 के लिए भाजपा के सामने कुछ ठीक-ठाक काठी वाला पहलवान उतारा जा सकता है. यानी
अंत की चर्चाओं के बावजूद विपक्ष एक सम्भावना भी है.
सवाल यह कि क्या सपा-बसपा एक मंच पर आएंगे? अखिलेश तैयार दिखते हैं और मुलायम का सामने न होना मायावती के लिए फैसला
लेना आसान बना सकता है. लालू यादव इस कोशिश में लगे हैं. जब सीबीआई ने उनके परिवार
के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में शिकंजा कसा तो लालू ने इसे भाजपा की साजिश
कराकर देते हुए उसके विरुद्ध निर्णायक संघर्ष का ऐलान किया था. उसी समय उन्होंने
27 अगस्त को पटना में विपक्षी दलों की विशाल रैली करने की घोषणा की थी और बताया था
कि इसमें अखिलेश यादव के साथ मायावती भी शिरकत करेंगी.
अखिलेश यादव पटना जा रहे हैं लेकिन मायावती अब तक मौन हैं. उन्होंने संकेत दिये
हैं कि वे विपक्षी मोर्चे के साथ आ सकती हैं लेकिन उनकी अपनी दिक्कतें और संशय
हैं. दलित आधार बचाये रखते हुए ही वे मोर्चे में शामिल होंगी, जिसे छीनने की बहुतेरी कोशिशें हो रही हैं. बसपा के कई बड़े नेता भाजपा ने
तोड़ लिए या अलग हो गये. दलितों का नया दल बनाने की कोशिश भी चल रही.
मायावती पटना रैली में शामिल होने का फैसला करती हैं तो यह
विपक्षी एकता के लिए बड़ी खबर होगी. वैसे उनके खुद पटना जाने की सम्भावना कम है.
अधिक से अधिक वे सतीश मिश्र या किसी और को रैली में भेज सकती हैं. यह भी सम्भावना
है कि वे अभी भाजपा-विरोधी मुहिम का हिस्सा बनना टाले रहें और चुनाव के बिल्कुल
करीब उसमें शामिल हों. भाजपा ने जिस तरह भ्रष्टाचार के मामलों में लालू यादव को
लपेटा, उसे देखते हुए मायावती का आशंकित रहना स्वाभाविक ही है.
बहुत कुछ निर्भर करेगा कांग्रेस पर कि वह कैसे भाजपा-विरोधी
मोर्चे को विश्वसनीय रूप दे पाती है.
(प्रभात खबर, 24 जुलाई, 2017)
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