लगातार चुनावी पराजयों से राजनीति
के हाशिए पर पहुंचीं मायावती फिर सुर्खियों में हैं. उन्होंने न केवल मुख्यधारा की
तरफ वापसी की है, बल्कि इधर एकाएक भाजपा-विरोधी मोर्चे की धुरी के रूप में
उनकी चर्चा होने लगी है. चर्चा अकारण भी नहीं है.
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी
के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने रविवार को कह दिया कि 2019 में भाजपा के विरुद्ध
विपक्षी गठबंधन में हमें कम सीटें मिली तो भी मंजूर है. उनके बयान का मंतव्य यही
समझा जा रहा है कि वे बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन बनाए रखेंगे, भले ही उनकी पार्टी के हिस्से कम
सीटें आएं.
उधर मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य
सिंधिया और कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता बसपा-प्रमुख मायावती से निरंतर सम्पर्क में
हैं. नवम्बर में होने वाले विधान सभा चुनाव में वहां कांग्रेस-बसपा गठबंधन लगभग तय
माना जा रहा है. मायावती पहले भी मध्य प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस को समर्थन
दे चुकी हैं. मध्य प्रदेश ही नहीं, छत्तीसगढ़ में भी दोनों दलों का गठबंधन होने के आसार हैं.
मायावती होने का मतलब
अस्सी लोक सभा सीटों वाले उत्तर
प्रदेश में मायावती कितनी महत्त्वपूर्ण हैं, यह हाल के उप-चुनावों से साबित हो
जाता है. गोरखपुर, फूलपुर से लेकर कैराना और नूरपुर के प्रतिष्ठा वाले लोक
सभा-विधान सभा उप-चुनावों में भाजपा को हराने में उनकी बड़ी भूमिका रही. उन्होंने
कहीं घोषित तौर पर तो कहीं मौन संकेतों से विपक्ष का साथ दिया. मायावती के
प्रतिबद्ध मतदाता के लिए उनका एक इशारा काफी होता है.
इस चुनावी फॉर्मूले में 2014 से अब
तक अजेय समझे जा रहे नरेंद्र मोदी को परास्त करने का सूत्र विपक्ष के हाथ लगा.
कर्नाटक में अंतत: भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में मिली सफलता ने विपक्ष को
एकजुट करने में सहायता की है. इस एकता में मायावती की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं
है. बंगलूर के विपक्षी मंच के बीचोंबीच न
केवल सोनिया गांधी ने मायावती को गले लगाया बल्कि बसपा का एकमात्र विधायक कर्नाटक
में मंत्री बना है.
अखिलेश यादव का ताजा बयान भी मायावती
को भाजपा-विरोधी मोर्चे के केंद्र में ले आता है. मायावती 2019 तक सपा से गठबंधन
का ऐलान कर चुकी हैं लेकिन यह भी कह चुकी हैं कि सीटों का बंटवारा पहले हो जाना
चाहिए. सभी जानते हैं कि मायावती इस मामले में मंजी हुई किंतु सख्त सौदेबाज हैं.
इसी आधार पर भाजपा यह प्रचार कर रही थी कि सीटों के बंटवारे पर सपा-बसपा गठबंधन
टूट जाएगा. अखिलेश ने साफ कर दिया है कि वे झुक जाएंगे लेकिन गठबंधन टूटने नहीं
देंगे.
यू पी से बाहर भी असरदार
मायावती उत्तर प्रदेश के बाहर भी
कम प्रभावशाली नहीं. हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उनके दलित वोटरों की संख्या काफी
है. मध्य प्रदेश के 2013 के विधान सभा चुनाव में सीटें उन्हें चार ही मिली थीं
लेकिन वोट प्रतिशत 6.29 था. कांग्रेस की नजर
इसी वोट प्रतिशत पर है. छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस बसपा से समझौता करना
चाहेगी.
राजस्थान में अभी कांग्रेस ने बसपा
का साथ लेने की पहल नहीं की है. उसे अपने दम पर विधान सभा चुनाव जीतने की उम्मीद
है. मगर 2019 के लिए भाजपा विरोधी संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए राजस्थान में भी
मायावती को साथ लेना ही होगा.
उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान,
मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ की कुल 155 लोक सभा सीटों को प्रभावित कर
सकने वाली मायावती विपक्षी मोर्चे में महत्त्वपूर्ण नेतृत्त्वकारी भूमिका चाहें तो
क्या आश्चर्य. आज भाजपा विरोधी कोई क्षेत्रीय नेता इतनी राजनैतिक हैसियत में नहीं
है. सबसे बड़ी बात कि वे ‘दलित की बेटी’ हैं और दलित मतदाता इस समय राजनीति के फोकस में हैं.
इसी आधार पर राजनैतिक टिप्पणीकार सागरिका घोष ने अपने ताजा
लेख में 2019 के चुनावी संग्राम को ‘चाय वाला’ बनाम ‘दलित की बेटी’ के रूप में देखने की कोशिश की है.
उनका विचार है कि विपक्ष मोदी के मुकाबले मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए
संयुक्त उम्मीदवार बनाए तो टक्कर जोरदार होगी. यह प्रश्न लेकिन अपनी जगह है कि
क्या विपक्षी नेता मायावती को इस रूप में स्वीकार कर पाएंगे?
हाशिए से जोरदार वापसी
कुछ महीने पहले तक मायावती राजनीति की मुख्यधारा से बाहर हो
गयी लगती थीं. उत्तर प्रदेश में 2012 के
चुनाव में वे मात्र 19 विधायकों तक सिमट गयी थीं. 2014 के लोक सभा चुनाव में एक भी
सीट उन्हें नहीं मिली थी. उनके कई पुराने वफादार साथी एक-एक पार्टी छोड़ गये और
उन्होंने अपनी पूर्व इस नेता पर भ्रष्टाचार के अलावा कांसीराम की बनाई बसपा को
खत्म करने का आरोप लगाया था.
उसी दौरान उभरी ‘भीम सेना’ ने उत्तर
प्रदेश के राजनैतिक मंच पर धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराई थी. तब कई राजनैतिक विश्लेषकों ने टिप्पणियां लिखीं कि
क्या मायावती की राजनीति का अंत हो गया है?
मायावती को राजनैतिक पराजय मिलीं जरूर लेकिन उनके वोट
प्रतिशत में खास गिरावट नहीं आयी थी. कुछ दलित उपजातियां भाजपा की तरफ झुकीं किन्तु प्रमुख दलित जातियां उनके साथ डटी रहीं. खुद
उन्होंने राजनैतिक परिपक्वता दिखाई. अपने भाई को पार्टी का महासचिव बनाकर जो निंदा
कमाई थी, उसे पिछले दिनों हटाकर ‘परिवारवाद की
राजनीति’ के आरोप धो डाले.
अभी चंद रोज पहले सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सरकारी बंगला
खाली करना पड़ा तो उसमें भी उन्होंने चतुर दांव खेला. बंगले को कांशीराम का
विश्राम-स्मारक बता कर पत्रकारों की मार्फत जनता को दिखाया और उसके रख-रखाव का
उत्तरदायित्व सरकार पर डाल कर कोठी खाली कर दी.
2014 में राजनैतिक बियाबान में जाती दिखने वाली मायावती
2019 के संग्राम से पहले भाजपा-विरोधी राजनीति के केंद्र में विराजमान नजर आती
हैं. (फर्स्ट पोस्टट,11 जून, 2018) ,
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