Friday, June 15, 2018

बड़े मकानों के छोटे इनसान


वरिष्ठ पत्रकार और कवि सुभाष राय को एसटीएफ के एक इंस्पेक्टर ने जिस तरह अपमानित किया और धमकाया उसके खिलाफ राजधानी के पत्रकारों-साहित्यकारों में आक्रोश स्वाभाविक था. उस इंस्पेक्टर का निलम्बन काफी नहीं है. कड़ी सजा मिलनी चाहिए. इस स्तम्भ में उस घटना का जिक्र आक्रोश से इतर उस नागर व्यवहार के लिए किया जा रहा है जो इस अशोभन एवं निंदनीय घटना के मूल में है.

सुभाष राय के पड़ोसी ने ट्रक भर मौरंग उनके घर के ऐन फाटक पर गिरवा दी. एकाधिक बार कहने के बावजूद उसे हटवाया नहीं, जबकि वे अच्छी तरह देख रहे थे कि श्री राय मौरंग के कारण अपनी कार बाहर नहीं निकाल सकते. अव्वल तो उन्हें अपने पड़ोसियों की सुविधा-असुविधा का बराबर ध्यान रखना चाहिए था. ट्रक वाले ने मौरंग गलत जगह गिरा दी थी तो यथाशीघ्र उसे हटवा कर इसअसुविधा के लिए माफी मांगनी चाहिए थी. ऐसी अपेक्षा सामान्य नागरिक व्यवहार है. उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया होगा?

एक महीना पुरानी बात है. हमारे मुहल्ले में एक डॉक्टर और उनकी बेगम ने अपने पड़ोसी के मकान के गेट के दोनों तरफ पौधा लगाने के लिए बनवाये जा रहे गमले अपनी गाड़ी चढ़ा कर ध्वस्त कर दिये. उससे पहले वे बालकनी में खड़े होकर चिल्ला रहे थे कि वह हमारी गाड़ी खड़ी करने की जगह है. उनकी बड़ी गाड़ी के लिए वहां पर्याप्त जगह है,  तो भी एक पौधा वे रात में चुपके से पहले उखड़वा चुके हैं. गमले दोबारा बनवाये गये. फिलहाल पौधे सुरक्षित हैं.

शहरों में कार खड़ी करने और ‘डॉगी’ को पॉटी कराने पर पड़ोसियों के झगड़े आम हैं. गाली-गलौज और मार-पीट के बाद अक्सर थाना-पुलिस की नौबत आती है. एक-दूसरे के गेट के सामने जाने-अनजाने कार खड़ी कर देने और हटाने को कहने पर तू-तू-मैं मैं. एक-दूसरे का सम्मान छोड़िए, सामान्य शिष्टाचार भी नहीं. कोई मकान बनवाये तो सहयोग करने वाले पड़ोसी कम, नाक-भौं सिकोड़ने और बवाल करने वाले ज्यादा हैं. रिश्तों की मानवीयता मरती जा रही है. दूसरे को छोटा समझा जाता है. मकान और कार से हैसियत नापी जाती है. अब अगल-बगल के घरों में तीज-त्योहार और विशेष अवसरों पर पकवानों की तस्तरियों का आदान प्रदान शायद ही होता हो.

गोमती नगर में रहते तीस साल हो गये. कॉलोनियों में धीरे-धीरे महंगी कारें आती गयीं. मकान बड़े और भव्य बनते गये. उनमें रहने वाले छोटे, और छोटे होते जा रहे हैं. इन छोटे लोगों की नाक बहुत बड़ी है. वह सबसे आगे रहती है और हर जगह टकराती है. घरों से बाहर निकलते लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट नहीं दिखती. पहले कौन ‘हैलो-हाय’ करे, इस चक्कर में संवादहीनता पनपती गयी. घरों की दीवारों पर लगे महंगे पेण्ट से बदगुमानी की बू आती है. इस बू पर वे इतराते हैं. सब वीआईपी हैं. पड़ोसियों को डराने-धमकाने के लिए कभी मंत्री-विधायकों के गुर्गे आ जाते हैं, कभी एसटीएफ के इंस्पेक्टर.

यह वह मध्य-वर्ग है जो सारी कायनात को ठेंगे पर रखे हुए है. वह बिना जरूरत धरती के गर्भ से खींच कर बेहिसाब पानी खर्च करता है और खुश होता है. वह खूब पेट्रोल फूंकता है, कमरे-कमरे एसी चलाता है, प्लास्टिक का ढेर कचरा उगलता है, मिट्टी से उसे घिन आती है और हरियाली से दुश्मनी मानता है. गरीबों, ग्रामीणों और भूखों से उसे नफरत है, जिन्होंने इस देश का कबाड़ा किया हुआ है. वह पूरी सृष्टि को अपने जीते-जी अकेले भोग लेना चाहता है.

दुर्भाग्य कि वही हमारी अर्थव्यव्स्था के केंद्र में है. वही ‘विकास’ का पैमाना है. सो मित्रो, कीजै कौन उपाय? 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 जून, 2018) 



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