Friday, June 22, 2018

नहीं, यह कुपाठ हमें नहीं पढ़ना है



दो महीने पहले विश्व हिंदू परिषद के एक मीडिया सलाहकार ने अपने ट्विटर पर बड़े गर्व से यह टिप्पणी लिखी थी कि जो ओला-टैक्सी मैंने बुक की, उसका ड्राइवर मुसलमान निकला, इसलिए मैंने बुकिंग रद्द कर दी. मैं जिहादियों को पैसा नहीं देना चाहता.

चंद रोज पहले लखनऊ की एक अच्छी पढ़ी-लिखी और सेवारत युवती ने एयरटेल कम्पनी से अपने डिश कनेक्शन की समस्या दूर करने को कहा. कम्पनी ने उन्हें संदेश भेजा कि शोएब नाम का टेक्नीशियन आपकी शिकायत देखने पहुंचेगा. उस युवती ने फौरन ट्वीट किया कि प्रिय शोएब, चूंकि तुम मुसलमान हो और मुझे मुसलमानों की कार्यशैली पसंद नहीं है, इसलिए कृपया कोई हिंदू टेक्नीशियन भेजिए.

दो दिन पहले एक पति-पत्नी को लखनऊ पासपोर्ट कार्यालय के एक कर्मचारी ने इसलिए अपमानित किया कि पत्नी हिंदू और पति मुसलमान है. उसने ऐसे विवाह पर आपत्ति जताते हुए दोनों के पासपोर्ट रोक लिए.

तीनों ही मामले सोशल साइटों और अखबारों में उछले, उनका व्यापक विरोध हुआ. पासपोर्ट बनवाने वाली महिला ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, विदेश मंत्री तक को ट्वीट किया. वरिष्ठ अधिकारियों के हस्तक्षेप से उनका पासपोर्ट जारी हो गया. मुसलमान ड्राइवर पर आपत्ति जताने वाले विहिप के मीडिया सलाहकार को सेवा प्रदाता कम्पनी ने काफी हुज्जत के बाद जवाब दिया कि हम सेवा देते समय धर्म के आधार पर फैसले नहीं करते. एयरटेल कम्पनी ने पहले उस युवती को मुसलमान की बजाय सिख टेक्नीशियन देने का और भी निंदनीय प्रस्ताव किया लेकिन चूंकि सोशल साइट पर काफी हंगामा मच चुका था, इसलिए बाद में उन्होंने अपना रुख बदलते हुए कहा कि हम अपने ग्राहकों, कर्मचारियों और सहयोगियों में धर्म के आधार पर कोई अंतर नहीं करते.

इन तीन बिल्कुल ताजा मामलों का उल्लेख करने का मंतव्य यहां यह सवाल उठाना है कि हमारे देश में यह प्रवृत्ति क्यों दिखाई देने लगी है? पिछले कुछ दशक से यह तो अक्सर सुनने-देखने में आने लगा था कि मुसलमानों को किराये का मकान ढूंढने में बहुत दिक्कत आती है. हिंदू मकान मालिक उन्हें किरायेदार नहीं रखते. यह भी अपेक्षाकृत नयी चिंताजनक प्रवृत्ति है, लेकिन यह तो सुनने में कभी नहीं आया था कि मुसलमान ड्राइवर के साथ नहीं जाएंगे या मुस्लिम कारीगर को घर में नहीं आने देंगे या हिंदू पत्नी और मुसलमान पति का पासपोर्ट बनाने में आपत्ति की जाएगी.

हमारा समाज ऐसा क्यों होने लगा? गांवों-कस्बों से लेकर शहरों तक मिश्रित आबादी शांति-सद्भाव से रहती आयी है. अपने-अपने नियम-धरम बरतते हुए सब में भाईचारा कायम रहा. एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल होना तो आम है ही, खान-पान का परहेज बरतने वालों के लिए शादियों में अलग से रसोइये लगाए जाते थे, लेकिन न्योता अवश्य निभाया जाता था. यह साझा विरासत सदियों से चली आ रही है. ब्रिटिश हुकूमत के दौरान इसे तोड़ने की कोशिशों और कालान्तर में बढ़ते साम्प्रदायिक तनावों के बावजूद यह साझा बना रहा. ड्राइवर और टेक्नीशियन का धर्म पूछ कर उसकी सेवा लेने से मना करना कभी नहीं सुना गया.

स्पष्ट है दिमागों में जहर कहीं से भरा जा रहा है. सदियों से चले आ रहे सामाजिक ताने-बाने को उधेड़ने की साजिश है. देश के संविधान की मूल भावना का मखौल उड़ाया जा रहा है. हमारी बहुलता को बनाये रखने की कोशिश करने वालों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. इतिहास की मनमानी व्याख्या की जा रही है. सोशल साइटों पर झूठ फैला-फैला कर विष घोला जा रहा है. तकलीफ इस बात से और बढ़ जाती है कि ऐसी निंदनीय हरकतों के समर्थक भी खूब निकल आते हैं.

यह खतरनाक सबक पढ़ाने वाले कौन हैं? उनकी और उनके इरादों की पहचान जरूरी है. इससे भी जरूरी है कि यह कुपाठ हमें नहीं पढ़ना है.

(सिटी तमाशा, 23 जूम, 2018) 

No comments: