समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव का यह ताजा बयान
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि उनकी पार्टी को कम सीटें दी गईं तो भी वे 2019 में
भाजपा को रोकने के लिए विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे. मध्य प्रदेश में नवम्बर
में होने वाले विधान सभा चुनाव में समझौते के लिए कांग्रेस नेताओं और मायावती में
सहमति लगभग बन चुकी है. शरद पवार विपक्षी एकता की पहल आगे बढ़ाने के लिए राहुल
गांधी से मिलने दिल्ली पहुंचे. कर्नाटक में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह के
मंच पर जुटे विरोधी दलों के नेताओं का परस्पर सम्पर्क लगातार बना हुआ है.
मोदी और भाजपा को रोकने के लिए संयुक्त मोर्चा आवश्यक है, यह सहमति बन गयी दिखती है. और तो और, महाराष्ट्र में
भाजपा की बहुत पुरानी सहयोगी शिव सेना भी विपक्षी मोर्चे के पक्ष में बयान दे रही
है. यह स्पष्ट नहीं है कि यह एकता व्यवहार में कैसे उतरेगी. शरद पवार कह रहे हैं
कि आज 1977 जैसी स्थिति बन गयी है, जब इंदिरा गांधी को हराने
के लिए सभी विरोधी दलों ने हाथ मिला लिये थे.
विपक्षी एकता के कारण हाल में मिली चुनावी पराजयों और 2019
में संयुक्त मोर्चे की सम्भावना देखते हुए भाजपा नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया
है कि न तो विरोधी दलों के पास मोदी के मुकाबले कोई बड़ा नेता है, न ही वे ज्यादा दिन तक एक रह पाएंगे. यानी भाजपा ने सम्भावित विपक्षी गठबंधन की अस्थिरता को
रेखांकित करना शुरू कर दिया है.
1977 से आज की तुलना इसलिए नहीं की जा सकती कि तब बहुत सारे
क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर ला देने वाला आपातकाल जैसा बड़ा कारक मौजूद था. विरोधी
दल ‘मोदी हटाओ’ का चाहे जितना शोर करें,
संविधान तक को निलंबित कर देने जैसी इंदिरा गांधी की निरंकुशता से
आज की तुलना नहीं की जा सकती. तुलना करनी ही हो तो हमारे राजनैतिक इतिहास में 1969
तथा 1989 के सटीक उदाहरण उपलब्ध हैं, जब
भिन्न कारणों से गैर-कांग्रेसवाद और ‘राजीव हटाओ’ का नारा लेकर विपक्ष एकजुट हुआ था. कांग्रेस की जगह ले चुकी भाजपा के
खिलाफ आज ‘गैर-भाजपावाद’ का सुर
भिनभिनाता सुनाई दे रहा है. क्या इस सुर में इतना जोर है कि कांग्रेस समेत सभी
क्षेत्रीय दलों को जोड़ सके?
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस एवं क्षेत्रीय दलों का संयुक्त
मोर्चा बनने में इतने अधिक अंतर्विरोध हैं कि उसके वास्तव में बन जाने तक वह
सवालों के घेरे में ही रहेगा. कुछ क्षेत्रीय दलों की कांग्रेस से अपने राज्यों में
ही बड़ी लड़ाई है तो कुछ कांग्रेस से भी उतना ही परहेज करते हैं, जितना भाजपा से. कई दल अवसर आने पर भाजपा के साथ हो जाते हैं तो कभी
कांग्रेस के. नेतृत्त्व को लेकर भी उनके नेताओं की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं.
टकराव और बिखरने के अनेक कारण उनके परस्पर राजनैतिक हितों में निहित हैं.
अलग-अलग राज्यों में भाजपा के खिलाफ क्षेत्रीय दलों में
आपसी चुनावी समझौते अपेक्षाकृत सरलता से सम्भव हैं. जैसे उत्तर प्रदेश में
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में अगला लोक सभा चुनाव मिलकर लड़ने की सहमति
बन चुकी है. हाल के उपचुनावों में इस गठबंधन ने भाजपा को मात देकर अपनी ताकत दिखाई
भी है. कांग्रेस इस गठबंधन का बहुत छोटा भागीदार बनना मंजूर करे या नहीं, सबसे बड़े राज्य में यह भाजपा को रोकने में कामयाब हो सकता है. बिहार में
लालू की राजद, कांग्रेस और कुछ अन्य छोटे दल साथ आयेंगे.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान,
गुजरात, जैसे राज्यों में भाजपा की मुख्य
प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही है. वहां छोटे दल कांग्रेस के साथ मोर्चा बना सकते हैं.
जैसे, मध्य प्रदेश में कांग्रेस और बसपा में तालमेल होने के
आसार हैं.
बंगाल, आंध्र, तेलंगाना,
तमिलनाडु, उड़ीसा जैसे कुछ राज्यों में तितरफा
मोर्चे हैं? वहां भाजपा काफी कमजोर है इसलिए भाजपा-विरोधी
मोर्चा बनने का औचित्य नहीं. दूसरे, वहां मजबूत क्षेत्रीय
दलों के साथ कांग्रेस की जड़ें रही हैं. इसलिए क्षेत्रीय दलों की लड़ाई खुद कांग्रेस
से होगी. कुल मिला कर क्षेत्रीय स्तर पर भी अखिल भारतीय भाजपा-विरोधी मोर्चे की
तस्वीर साफ नहीं उभर रही .
हाल के उप-चुनाव नतीजों ने संकेत दिया है कि क्षेत्रीय स्तर
पर दो विरोधी दलों के गठबंधन से भी भाजपा को खतरा है. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा
सकता है कि उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों में भाजपा 2014 के मुकाबले इस बार
नुकसान में रहेगी. यह नुकसान कितना बड़ा होगा, यह कई कारकों पर निर्भर करेगा. विरोधी दलों को उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़,
गुजरात और कर्नाटक में भाजपा से काफी सीटें छीन सकने की उम्मीद है.
बिहार का परिदृश्य इस बार बदला हुआ है. पंजाब में कांग्रेस मजबूत है. बंगाल में
भाजपा की बढ़ती चुनौती के बावजूद ममता की पकड़ कायम है. केरल, आंध्र,
और तेलंगाना में भाजपा को खुद ज्यादा उम्मीदें नहीं.
ऐसे आकलन के आधार पर ही विरोधी दलों को लगता है कि वे भाजपा
को फिर से सत्ता में आने से रोक सकेंगे. भाजपा ने 2014 के बाद उत्तर-पूर्व में
अपना अच्छा विस्तार किया है. लोक सभा चुनाव में उसे वहां फायदा होगा लेकिन वह बाकी
देश में सम्भावित नुकसान की भरपाई शायद ही कर पाए. वहां सीटें ही कितनी हैं!
स्वाभाविक ही है कि भाजपा सत्ता बचाने के लिए उत्तर प्रदेश
समेत बड़े राज्यों में ही आक्रामक चुनाव अभियान चलायेगी. उसकी कोशिश होगी कि विरोधी
दलों के अंतर्विरोधों को हवा देकर उनकी एकता के राह में रोड़े पैदा करे. इसलिए उसने
अभी से ‘विपक्ष का नेता कौन’ और अस्थिरता के सवाल
उठाने शुरू कर दिये हैं.
विरोधी दलों का मोर्चा बन पाएगा या नहीं और बना तो वह भाजपा
को रोक पाएगा कि नहीं, इनका उत्तर भविष्य देगा. महत्त्वपूर्ण बात
यह है कि भारतीय राजनीति में एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को समय-समय पर झटका देने
की क्षमता अंतर्निहित है. जब भी विरोधी दल एक हुए, वे
दीर्घजीवी भले न हुए हों, उन्होंने केंद्र में सत्तारूढ़ दल
की राजनैतिक शैली या प्रवृत्तियों में आवश्यक संशोधन करने का काम किया. गैर-कांग्रेसवाद
इसी का नतीजा था. अब जबकि स्थितियों ने कांग्रेस को अप्रासंगिक बना दिया है,
क्या गैर-मोदीवाद या गैर-भाजपावाद की स्थितियां बन रही हैं?
कांग्रेस की कुछ अतियों ने बीच-बीच में क्षेत्रीय दलों को उभारा और फिर भाजपा की अखिल-भारतीयता को
जन्म दिया. क्या मोदी सरकार की नीतियों और कार्यशैली में क्षेत्रीय दलों के उभार
और अन्तत: कांग्रेस के पुनर्जन्म के बीज छुपे हुए हैं? गैर-कांग्रेसवाद का विचार बनाने में देश को बीस वर्ष लगे थे. अगर
गैर-भाजपावाद पांच वर्ष में ही कुनमुनाने लगा है तो मानना होगा कि लोकतंत्र के रूप
में हम परिपक्व हुए हैं.
(प्रभात खबर, 13 जून, 2018)
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