Friday, August 03, 2018

हथिया बरसी तौ का होई, कक्का?



पिछला पूरा सप्ताह बारिश के नाम रहा. सतझड़ी. ऐसा कई साल बाद हो रहा है कि हफ्ते भर से ज्यादा हो गया, बादल छाये हैं और जब-तब बरस रहे हैं. कभी फुहारें, कभी तेज धार. राजधानी और आस-पास बाढ़ जैसी आ गयी है. सड़कें, गलियां पानी में डूबी हैं, धंस रही हैं. घरों में पानी घुस रहा है. नगर निगम और प्रशासन हलकान है. हालात काबू से बाहर वैसे ही रहते हैं, अब सब निरुपाय हैं. मीडिया कह रहा है कि बारिश ने सरकार एवं शहर प्रशासन के दावों तथा तैयारियों की पोल खोल दी है. ढोल में पोल ही होता है. तभी वह बजता है.

यह अति-वृष्टि नहीं है. मौसम विभाग के आंकड़े बता रहे हैं कि सामान्य बारिश है. औसत से थोड़ा ज्यादा. बस, सावन जैसा सावन आया है. अब यह सावन का दोष नहीं है कि हमने उसके स्वागत के लिए भी गुंजाइश नहीं छोड़ी. सामान्य वर्षा भी हमारे शहर बर्दाश्त नहीं कर पाते. हमने शहरों को न वैसा बनाया, न इस लायक रहने दिया. शहर असामान्य हैं. सामान्य मौसम को कैसे सहें?

सावन-भादौ में हफ्ते-दस दिन लगातार बारिश सामान्य ही बात होती थी. खेती-किसानी से लेकर दूसरे कई काम न हो पाते तो सयाने आसमान की ओर देख कर कहते थे- क्या मंशा है, नहीं करने देता कुछ काम? वह न सुनता तो बड़बड़ाते और गांवों-खेतों की नालियों, गूलों, नहरों की देखभाल को निकल जाते कि पानी अटके नहीं. एक-दूसरे को सावधान करते- अरे, कक्का, हथिया बरस रहा है. कहावत रही कि हथिया नक्षत्र में हाथी की सूंड़ बराबर मोटी धार बरसती है.!

सोचता हूँ, यहां सचमुच हथिया बरस गया तो क्या होगा? जल-थल-प्रलय? सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में बेहतरीन ढाल वाली नालियां अब तक मिलती हैं. बेहतरीन नगर नियोजन का प्रमाण.आज की असभ्यता का इतिहास कभी लिखा जाएगा तो नदी-नालों-नालियों में निर्माण और तालाबों में बहुमंजिली इमारतों का लेखा-जोखा हमारे नगर नियोजन की मूर्खताओं से हतप्रभ करेगा. भावी अध्ययेता कैसे कह सकेंगे कि हम विकसित समाज थे? किताबों में वैज्ञानिक विकास के प्रमाण होंगे लेकिन जीवन-पद्धति घनघोर अवैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत करेगी.

धरती की अपनी बनावट होती है. पानी ढाल की तरफ बहता है. नदियों-तालाबों में वह ठौर पाता है. धरती वर्षा को यथा सम्भव रोकती, सोखती और फिर आगे बढ़ाती है. हमने धरती ही बिगाड़ दी. नदियां उजाड़ दीं. उनके जल-ग्रहण क्षेत्र में कब्जे कर कर लिये. तालाब पाट कर इमारतें बना दीं. मिट्टी को कंक्रीट और कोलतार की अनगिन परतों में बदल दिया. बारिश कहां ठौर पाये? वह उपद्रव न मचाये तो कहां जाए? बारिश का स्वागत करने लायक इस धरती को हमने छोड़ा ही नहीं. जो वर्षा उत्सव होनी थी, वह बड़ा संकट है.  

देख ही रहे होंगे कि बहने की कोशिश करते ठहरे पानी में हमारी सभ्यता का कैसा चेहरा प्रकट हो रहा है. वहां क्या-क्या उतराता दिखता है? क्या उसमें हम अपना चेहरा देख पाते हैं? जब बड़ी-बड़ी कॉलोनियों में पानी भरा है,घरों से बाहर निकला मुश्किल है, तब भी क्या हम सोच पा रहे हैं कि हमारी विकास-यात्रा किस तरफ जा रही है? दस साल पहले ऐसा हाल नहीं था तो आज क्यों हुआ और दस साल बाद क्या होगा?

क्या कहीं कोई चिंता है कि इस विनाश-यात्रा को अब भी पलटने की कोशिश शुरू की जानी चाहिए? ‘स्मार्ट सिटीकी बजाय नेचर सिटीकी तरफ एक कदम?  


('सिटी तमाशा', नभाटा, 04 अगस्त, 2018)

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