Friday, October 11, 2019

अपने सपने भूल गई युवाओं की वह टोली


विजयादशमी की दोपहर धड़धड़ाती मोटरसायकलों के शोर के साथ लगते नारों से मुहल्ला एक बार फिर गूंज उठा. विजयादशमी मनाने का यह कोई नया तरीका नहीं था, न ही रामलीला के मंच की वानर सेना रावण-वध के बाद सड़कों पर उतर आई थी. अब लोगों ने दौड़कर दरवाजों, खिड़कियों, बालकनियों से झांकना बंद कर दिया है. एक ही नारा एक ही काम, जय श्रीराम, जय श्रीरामके नारे लगाती युवकों की टोली कॉलोनी का चक्कर लगाकर दूसरी तरफ चली गई.

वे किसी भी दिन और कभी भी आ जाते हैं. कोई 18 वर्ष से लेकर 20-25 साल के दर्ज़नों युवक मोटरसायकलों पर केसरिया झण्डा बांधे, नारे लगाते. कुछ दिनों के अंतराल पर वे अचानक उड़नदस्ते की तरह आते और गायब हो जाते हैं. पर्व-त्योहारों पर तो ज़रूर दिखते हैं. पिछले चुनाव के दौरान हमने इसे प्रचार का हिस्सा माना था लेकिन बाद में भी वे आते रहे.

ये नवयुवक कौन हैं? इन्हें इतनी फुर्सत कैसे है? इस उम्र के युवकों को तो अपने सपनों की तितली के पीछे भागते होना था. करिअर की सीढ़ी फटाफट चढ़ने और जीवन में कुछ नया, कुछ रोमांचक, कुछ सार्थक करने की लगन में डूबे होना था. इनके सपने, इनका करिअर, इनके संघर्ष कहां रह गए?

नारे ही लगाने थे तो बहुत सारे संग्राम पड़े हैं. प्रत्येक समाज में लगभग हर दौर में बेचैन युवा पीढ़ी का एक हिस्सा बदलाव के लिए लड़ते हुए जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपनी जवानी लगाता रहा है. एक और हिस्सा नई खोजों, नई रचनाओं और पुराने को पलट कर नया फलक सामने लाने में लगा रहा है. युवा पीढ़ी की बेचैनी ने कई महत्त्वपूर्ण और ऐतिहासिक उपलब्धियां हासिल की हैं. इस दौर में जय श्रीरामके नारों वाले जुलूस किस बेचैनी की अभिव्यक्ति हैं?

क्या यह नई पीढ़ी के पुरानी पीढ़ी से अधिक धार्मिक होने के संकेत हैं? मन में यह सवाल उठते ही याद आया कि कुछ समय पहले एक बड़े सर्वेक्षण के बारे में पढ़ा था जिसका निष्कर्ष है कि दुनिया के लगभग सभी देशों में युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से कम धार्मिक होती जा रही है. विकसित देशों के युवकों और प्रौढ़ों-बूढ़ों के बीच यह अंतर अधिक और पिछड़े देशों में कम है. इसका कारण भी सर्वेक्षण बताता है कि चूंकि नई पीढ़ी बेहतर आर्थिक स्थितियों में पली है, उसके सामने आर्थिक चुनौतियाँ कम हैं और वे भविष्य के प्रति बहुत चिंतित नहीं है, इसलिए वे धर्म को ज़्यादा महत्त्व नहीं देते. उम्र बढ़ने के साथ असुरक्षा बढ़ती है और व्यक्ति का धार्मिक झुकाव बढ़ता जाता है.

नारे लगाती भीड़ बने इन युवकों का आचरण धार्मिक तो नहीं ही है. धर्म विनम्र और सहिष्णु बनाता है, उन्मत नहीं. तो, कहीं हमारे ये युवक जो नारे लगाते, धर्म के नाम पर उन्मत हो रहे हैं, भविष्य के प्रति असुरक्षित, बेरोजगार, स्वप्नविहीन और दिग्भ्रमित तो नहीं? आर्थिक रूप से कमजोर, बेरोजगारी से त्रस्त, धार्मिक कट्टरता वाले समाजों में युवाओं को धर्म के नाम पर बहकाना बहुत आसान होता है. वे आसानी से अपराध-वृत्ति की ओर भी चले जाते हैं.

कोई तो होगा जो इनकी बाइकों में तेल भराता होगा और  नारे सिखाता होगा? घर वाले तो इसके लिए बार-बार पैसा नहीं देते होंगे. क्या कोई इनकी बेरोजगारी का दुरुपयोग कर रहा है? अच्छे-खासे ये युवक क्या कभी नहीं सोचते होंगे कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों? क्या कोई उनकी सोचने-समझने की शक्ति भी कुंद नहीं कर रहा?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 अक्टूबर, 2019)


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