Wednesday, October 02, 2019

तो, पूना समझौते से पहले लंदन में गांधी और आम्बेडकर में सहमति हो गई थी!

मराठी चिंतक और आम्बेडकर अध्ययेता डॉ कसबे के अनुसार गांधी का अनशन सवर्णों की मानसिक क्रांति के लिए था.

नवीन जोशी

महात्मा गांधी के जीवन, विचार, विवाद और उनके अभिनव प्रयोगों को केंद्र में रखकर कई पत्रिकाओं ने विशेषांक निकाले हैं. गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी-मार्गके विशेषांक की काफी चर्चा हो रही है. हिंदी के चर्चित साहित्यकार प्रियंवद, जिनकी इतिहास में भी अच्छी पैठ है, के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका अकारका गांधी अंक अभी-अभी आया है. इसमें  प्रकाशित एक महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार गांधी और आम्बेडकर के रिश्तों से लेकर पूना-समझौते तक के बारे में नई जानकारियां देता है. बल्कि, इससे पूना-समझौते  के संदर्भ में गांधी और आम्बेडकर की भूमिका के बारे में प्रचलित धारणा ही उलट जाती है.

अकार में प्रकाशित यह साक्षात्कार प्रसिद्ध मराठी विद्वान डॉ बाबूराव कसबे का है. डॉ कसबे महाराष्ट्र के प्रमुख राजनैतिक विश्लेषक, आम्बेडकरवादी विचारक और मार्क्सवादी चिंतक के रूप में जाने जाते हैं. उनकी चर्चित पुस्तकों में बाबा साहब आम्बेडकर और भारतीय संविधान’, आम्बेडकर और मार्क्स’, ‘मनुष्य और धर्म चिंतनतथा हिंदू-मुस्लिम प्रश्न और सावरकार का हिंदू राष्ट्रवादहैं. पिछले कोई छह साल से वे गांधी पर अध्ययन करते रहे हैं और इन दिनों गांधी-पराभूत राजकीय नेता और पराजित महात्माशीर्षक से पुस्तक लिखने में व्यस्त हैं.
इण्टरव्यू की शुरुआत में ही डॉ कसबे पूना-समझौते के बारे में अब तक स्थापित यह धारणा तोड़ते हैं कि गांधी ने आम्बेडकर पर दवाब बनाने के लिए अनशन किया था और आम्बेडकर ने मज़बूरी में अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल की मांग छोड़कर आरक्षित सीटों का प्रस्ताव स्वीकार किया था.

सन 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन से पहले गांधी जी और वायसरॉय लॉर्ड इर्विन के बीच बातचीत हुई. उसमें बनी कुछ सहमतियों के बाद कांग्रेसी नेता और गांधी जी लंदन की बैठक में शामिल हुए. दूसरा गोलमेज सम्मेलन भी विशेष परिणाम नहीं दे सका. तब ब्रिटिश सरकार ने 1932 में भारत के लिए एक कम्युनल अवार्डघोषित किया, जिसमें भारत के विभिन्न समुदायों-सम्प्रदायों का टकराव हल करने के नाम पर चुनावों में उनके लिए अलग-अलग मतदाता वर्ग बनाने की एकतरफा घोषणा की. कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा विरोध दलितों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल बनाने का किया क्योंकि यह हिंदू समाज को आपस में बांटने वाला था. महात्मा गांधी ने, जो लंदन से आते ही गिरफ्तार करके पूना के यरवडा जेल भेज दिए गए थे, इसके विरोध में अनशन किया.

आम धारणा,  विशेष रूप से दलित विचारकों की,  यही है कि गांधी जी ने आमरण अनशन करके आम्बेडकर को ब्लैकमेल किया. उनकी जान बचाने के लिए आम्बेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचन मण्डल की मांग छोड़ दी और आरक्षित सीटों की व्यवस्था स्वीकार कर ली. इसे ही पूना पैक्ट या समझौता कहा जाता है, जिसके लिए दलित समाज आज तक गांधी जी और कांग्रेस की कड़ी निंदा करते हैं.

डॉ कसबे इस धारणा को उलट देते हैं. वे कहते हैं- सच कहूं तो गांधी और आम्बेडकर के बीच जिस तरह के रिश्ते थे, उसको और इस गुत्थी (पूना पैक्ट) को सुलझाने में उनके चरित्रकार असफल रहे हैं. पश्चिमी चरित्रकार भी इसमें धोखा खा गए हैं. इसमें एक हद तक कोई सफल रहा है तो पश्चिमी चरित्रकार लुई फिशर. इसकी वजह यह है कि वे एक साथ ही बाबा साहब से भी बात करते थे और गांधी जी से भी.... यह जो कहानी है पूना समझौता की, यह कहानी तो सभी कहानियों से अनूठी है. इस कहानी का जो स्क्रिप्ट है और जो डायलॉग्ज हैं, वे तो इंग्लैण्ड में ही लिखे गए थे, द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के समय में. और, यह सब वहीं पर तय हो चुका था, क्या-क्या होने वाला है. पर इसे ना बाबा साहब ने बताया ना ही गांधी ने. सभी चरित्रकार धोखा खा गए.”

इस धोखा खाने की वजह डॉ कसबे बताते हैं- “उस समय बाबा साहब जो पत्रिका चलाते थे- 'जनता', 'द पीपल', उसमें उस समय की डे-टूडे रिपोर्ट छपती थी. बाबा साहब ने इंगलैण्ड से जनता के नाम कुछ पत्र लिखे थे. उन्हें वहीं पर छापा गया था. यह पूरा ब्यौरा मराठी भाषा में होने की वजह से भारतीय गांधी-चरित्रकारों को , मराठी न आने की वजह से- और ब्रिटिश पत्रकारों का तो सवाल ही नहीं था- हुआ यह कि इसमें निहित जो बारीकियां थीं, उसे ये चरित्रकार पकड़ नहीं पाए.”

वे बताते हैं कि दूसरी राउण्ड टेबल कांफ्रेंस के दौरान गांधी जी और बाबा साहब के बीच तीन स्वतंत्र बैठकें हुई थीं.  इनमें से एक बैठक का आयोजन मैसूर के दीवान के प्रयासों से हुआ था. दूसरी बैठक गांधी जी के पुत्र देवदास की बदौलत हुई. तीसरी बैठक हुई थी कवयित्री सरोजिनी नायडू के यहां जो गांधी के साथ तब लंदन में थीं.  इस बैठक में बाबा साहब ने गांधी जी को बताया कि उनकी स्पष्ट धारणा है, और यह उन्होंने साइमन को भारत आने पर दी गई अपनी रिपोर्ट में भी साफ कहा था, कि इस देश में किसी मायनॉरिटी को अलग निर्वाचन क्षेत्र न दिया जाए क्योंकि यह लोकतंत्र के साथ ही मायनॉरिटी के लिए भी खतरा है. बाबा साहब ने इसके छह कारण गिनाए थे. आगे आम्बेडकर ने गांधी जी से कहा कि मेरी सीधे-सीधे तीन मांगें हैं- वयस्क मताधिकार, प्रांतीय निर्वाचन क्षेत्र और अस्पृश्यों के लिए आरक्षित सीटें. अगर आपने यह मान्य नहीं किया...

डॉ कसबे के अनुसार आम्बेडकर ने यहां पर गांधी जी को बताया था कि ये मांगें उन्होंने साइमन के सामने भी रखी थीं तो उसने पूछा था कि अगर कांग्रेस इन मांगों को नहीं मानती है तो आप क्या करेंगे? इसका उन्होंने यह ज़वाब दिया था कि तब मुझे भी मुस्लिम-सिखों की राह पर स्वतंत्र निर्वाचक मण्डल की मांग करनी पड़ेगी.तब गांधी जी ने अवरुद्ध कण्ठ से आम्बेडकर से कहा था कि आप जो चाहते हैं वह होगा.

इस तरह डॉ कसबे यह स्थापित करते हैं कि अस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल की मांग आम्बेडकर की 
थी ही नहीं. वे तो मुसलमानों के लिए भी ऐसा किए जाने के विरोधी थे. सिर्फ उसी हालत में वेअस्पृश्यों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग करने वाले थे, जब मुस्लिमों के लिए ऐसी मांग का उनका विरोध माना नहीं जाए.
डॉ कसबे बताते हैं कि जब पूना समझौता हो गया तो आम्बेडकर ने वरली में अस्पृश्यों की एक सभा बुलाई. आम्बेडकर ऐसे नेता थे जो अपने लिए निर्णयों को तुरंत जनता से साझा करते थे. उस सभा में उन्होंने बताया कि इस तरह से यह पूना समझौती हुआ है और हमारी दृष्टि में  ये बेहद अहम है. इसके तहत हमें कई अवसर प्रदान किए गए हैं. अत: इसका लाभ उठाते हुए आप आगे बढ़िए.यही नहीं, पूना समझौते का स्मृति-दिवस मनाने के लिए एक समिति गठित की गई थी. “1933 और 1934 इन दो वर्षों में एक तरफ आम्बेडकर की तस्वीर, दूसरी तरफ गांधी की तस्वीर, इस तरह से जुलूस निकाला गया. उस दिन का स्मृति-दिवस मनाया गया और गांधी की जय’, ‘आम्बेडकर की जयऐसे नारे लगाए गए थे.”

ऐसा था तो फिर गांधी जी ने आमरण अनशन क्यों किया? डॉ कसबे कहते हैं कि अगर गांधी ने इंगलैण्ड में ही बता दिया होता तो यह सब खिच-पिच होती ही नहीं. इसका ज़वाब भी वे देते है –“आज जब इस सवाल पर मैं गहराई से सोचता हूं कि क्यों गांधी जी ने यह बात लंदन में ही नहीं मानी? पर आप ध्यान दीजिए कि गांधी जी बेहतरीन इवेण्ट मैनेजर थे. उन्होंने अनशन को हथियार बनाया. वह मूलत: आम्बेडकर के विरोध में या स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के विरोध में था ही नहीं. वह तो उनको एक बहाना मिल गया था. उन्होंने अनशन सवर्ण हिंदुओं के विरोध में किया था. उन्हें अस्पृश्यता की समस्या को राष्ट्रीय धरातल पर ले जाकर सवर्णों के मन में एक सायकॉलॉजिकल क्रांति करनी थी. इसलिए आप उनकी यरवडा जेल से निकली पत्रिकाओं को देखिए. उनमें से एक में लिखा हुआ है कि जब तक इस देश में अस्पृश्यता है, तब तक भारतीय लोग स्वराज्य प्राप्ति के लायक नहीं हैं.”

इसके बाद डॉ कसबे बताते हैं कि गांधी के उस अनशन का सवर्णों पर कितना गहरा असर पड़ा, कैसे उन्हें मंदिर प्रवेश कराए गए, कैसे सहभोज हुए, आदि-आदि.

डॉ कसबे के अनुसार गांधी ने लंदन में ही स्पष्ट कर दिया था कि अगर अस्पृश्यों को स्वतंत्र या अलग निर्वाचक मण्डल बहाल क्या जाता है तो मैं अनशन पर बैठ जाऊंगा. इसलिए बाबा साहब जानते थे कि वे अनशन पर जरूर बैठेंगे. गांधी जी जानते थे कि स्वतंत्र निर्वाचन मण्डल के अलावा आम्बेडकर संयुक्त निर्वाचकमण्डल और आरक्षित सीटें, ये मुद्दे मान जाएंगे. यह सब तफसील से जनतामें प्रकाशित हुआ है.

बहरहाल, डॉ कसबे जो स्थापित करते हैं, वह आम्बेडकरवादियों की समझ के विपरीत है. उनके हिसाब से गांधी कभी उनके थे ही नहीं. इस बारे में डॉ कसबे कहते हैं –“आम्बेडकर को लेकर सबसे अधिक अज्ञान तो जो स्वयं को आम्बेडकरवादी कहते हैं, उन्हीं से है.”   

यह बताते हुए कि गांधी को दलित अपना शत्रु क्यों मानते हैं, वे कहते हैं- “किसी भी जाति का एक संगठन खड़ा करते समय उन्हें एक दुश्मन को खड़ा करना पड़ता है. दिखलाना पड़ता है. जैसे हिंदू महासभा को खड़ा करते समय सावरकर ने मुस्लिमों को दुश्मन माना. दूसरी ओर गांधी को भी विरोधी माना.... वही बात बाद में अस्पृश्यों ने भी दोहराई. बाद के कालखण्ड में कांशीराम जैसे नेता भी उसके शिकार हुए.”

इस बारे में और विस्तार से डॉ कसबे की आने वाली किताब रोशनी डालेगी. यह तय है कि उनकी नई स्थापना आम्बेडकरवादियों और दलित चिंतकों में बड़ा विवाद खड़ा करेगी.
  

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