Sunday, October 27, 2019

टिमटिमाते दीये से धूम-धड़ाका प्रदूषण तक


पिछले कुछ वर्षों से दीवाली में पटाखे और आतिशबाजी से होने वाले वायु एवं ध्वनि प्रदूषणों की समस्या बहुत गम्भीर हो गई है. पर्यावरणविदों  की तरफ से ही नहीं समाज के एक तबके से भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाने या कम से कम इस्तेमाल की अपीलें होती हैं. पटाख़ों पर रोक लगाने की गुहार सुप्रीम कोर्ट तक गई. देश की सर्वोच्च अदालत ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पटाखे बेचने पर रोक तो लगाई लेकिन उन पर व्यापक प्रतिबंध का आदेश नहीं दिया. कतिपय हिंदू संगठनों ने पटाखों पर रोक को हिंदू-धर्म के विरुद्ध मानते हुए हंगामा भी खड़ा किया.

बहरहाल, इन बहसों-अपीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने  परम्परागत पटाखों की जगह हरित पटाखोंकी वकालत की. हरित-पटाखे यानी कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे. सीएसआईआर और नीरी जैसे संगठन ऐसे पटाखों की खोज में लग गए. कहा गया कि अगर पटाखों में बेरियम नाइट्रेट की मात्रा कम करके दूसरे रसायन इस्तेमाल किए जाएं तो उनसे होने वाला प्रदूषण काफी कम हो जाएगा. इन संस्थाओं ने हरित-पटखों के प्रयोग भी किए. बताया गया कि इनसे वायु प्रदूषण 30 फीसदी कम होगा और ध्वनि-प्रदूषण 160 से 125 डेसिबल तक आ जाएगा.

दो साल से चल रही इस मशक्कत का नतीजा सिर्फ इतना निकला है कि देश में पटाखों के सबसे बड़े बाजार, शिवकासी की 1070 उत्पादन-इकाइयों मे से सिर्फ छह इकाइयों को ग्रीन पटाखा बनाने का लाइसेंस मिल पाया है. बाज़ार में हरित-पटाखे मिल नहीं रहे. पटाखा उत्पादक सुप्रीम कोर्ट, केंद्र सरकार और पर्यावरण संगठनों के बीच भ्रम में फंसा हुआ है. सालाना करीब आठ हजार करोड़ रु मूल्य के पटाखा बनाने वाले शिवकाशी उद्योग के जानकार इस वर्ष एक हज़ार करोड़ रु का नुकसान होने की बात कह रहे हैं.

यानी अकेले शिवकाशी में बने सात हज़ार करोड़ रु के पटाखे फिर भी इस दिवाली में धूम-धड़ाका मचाएंगे. इसके अलावा विभिन्न राज्यों का वैध-अवैध पटाखा बाज़ार भी इस धमाके में अपना योगदान देगा.

शरद ऋतु बीतते बीतते वैसे ही हमारे महानगरों का वायु गुणवत्ता सूचकांक ( एयर क्वालिटी इण्डेक्स) खतरनाक सीमा तक पहुंच जाता है. यही समय खेतों में पराली जलाने का होता है जिसका धुआं शहरों के आकाश में मोटी पर्त बनकर छा जाता है. आसमान से गिरने वाली ओस उसे ऊपर नहीं उठने देती. ऐसी खतरनाक हवा को दीवाली का धूम-धड़ाका इतना जहरीला बना देता है कि दमा और सांस रोगियों की हालत खराब हो जाती है. हर साल फेफड़ों की बीमारियों के रोगी बढ़ रहे हैं. सरकार और डॉक्टर जनता से अपील करते हैं कि अनावश्यक घरों से बाहर न निकलें. जो सक्षम हैं वे घरों में एयर प्यूरीफायरलगाकर बेहतर हवा में सांस लेने का भ्रम पाल रहे हैं.

यह साल 2019 की दीपावली का परिदृश्य है. डरावना परिदृश्य.  हर साल और भी भयानक होता हुआ. क्या विडम्बना है कि दीपावली को हम खुशियों का सबसे बड़ा त्योहार कहते हैं. यह निश्चय ही खुशियों का त्योहार है लेकिन इस खुशी को मनाने के हमारे आधुनिक तरीकों और भदेस वैभव-प्रदर्शन ने इसे हमारे सबसे बड़े संकट में बदल दिया है.

याद आती है बचपन की गांव की दीवाली. अनगढ़ किंतु खूबसूरत अल्पनाओं से सजी घरों की देहरियों, आलों, छज्जों और मुंडेरों पर टिमटिमाते दीयों की कांपती रोशनी में पूरा गांव दिपदिपाता था. रोशनी के हजारों नन्हे द्वीप अमावस की घनी काली रात से लड़ते रहते थे. दीवाली हमारे लिए अंधेरे में जगमगाती यही रोशनी थी. दीवाली हमारे लिए गोशाला के पशुओं की पीठ पर रंग-बिरंगे छाप थी. दीवाली हमारे लिए अम्मा की निकल-भुय्यां, निकल- भुय्यांथी जो सूप से घर के हर कोने से दलिद्दर भगाती थी. दीवाली की हमारी खुशी कुम्हार के सुगढ़ हाथों से गढ़ी गई गुजरिया में थी, खील-बताशों-चीनी के खिलौनों और गट्टों में थी. दीपावली हमें सिर में धरे गए भाई-दूज के पूजित चिवड़ों से अशीषती थी. अपनी दीवाली को हम पतंगों के लम्बे-लम्बे पेचों के जमघट से विदा करते थे.

उन सुदूर गांवों में हमारे पास एक फुलझड़ी भी नहीं होती थी लेकिन फेफड़ों में  शरद-शिशिर की सुवासित प्राण-वायु हमें भीतर-बाहर खुशियों से भर देती थी. अब हमारे पास बिजली के लट्टुओं की चकाचौंधी लड़ियां है.  विशालकाय फुलझड़ियों, चकरघिन्नियों, अनारों से लेकर दस हजारी लड़ियों वाले बमों, रॉकेटों और न जाने कैसे-कैसे धमाके कर आसमान में युद्ध-सा नज़ारा पेश करने वाली आतिशबाजियां हैं. अब हमारे पास पटाखे फोड़ने की आपसी प्रतिद्वद्विताएं है. रह-रह कर देर रात तक धमाकों के साथ पड़ोसी को नीचा दिखाने वाली डाह है. अब दीपावली खुशियों का त्योहार कम वैभव और औकात दिखाने की होड़ ज़्यादा है.

1990 के दशक के आर्थिक उदारीकरण के बाद मध्य वर्ग की जेब में पैसा आने लगा, हालांकि इसी बीच एक बड़ी आबादी गरीब भी होती गई. नव-धनाढ्य और मध्य वर्ग के वैभव का यह भदेस प्रदर्शन हमारी सुख-शांति हरने लगा. सिर्फ दीपावली ही नहीं, भूजल के अंधाधुंध दोहन से लेकर हरियाली के विनाश एवं  उपभोक्ता-कचरे के असीमित फैलाव तक यह ओछा प्रदर्शन दिखता है.

सरकारों एवं न्यायालय के निर्देशों और पर्यावरणविदों की प्रेरणा से स्कूली बच्चों की मार्मिक अपीलों के बावज़ूद पटाखों से वायुमण्डल का जहरीला होना जारी है. किसी को चिंता नहीं कि इसी अमघोटू हवा में हमारी अगली पीढ़ियां भी सांस लेने को अभिशप्त हैं. हमारे मुहल्ले का एक डॉक्टर अपने और अपने बच्चों के मुंह पर मास्क लगाकर देर रात तक दस-हजारी लड़ियां फोड़कर कानफाड़ू शोर से इलाका गुंजा देता है. उसे पूरे मुहल्ले पर अपनी कमाई का दबदबा दिखाने की तमन्ना है. ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्हें इस मिथ्या गुरूर की कीमत का अंदाज़ा नहीं या जानबूझकर  अनदेखी किए हैं. शायद उन्हें भ्रम हो कि यह दुनिया उन्हीं के जीवनकाल तक रहनी है.

उग्र हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के इस अविवेकी दौर में एक और बड़ा तबका है जिसने पटाखों को हिंदू-संस्कृति से जोड़ दिया है. पटाखों पर प्रतिबंध के निर्देशों-सुझावों को वे हिंदू आस्था पर प्रहार के रूप में पेश करने लगे हैं. 2017 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर में शोर वाले पटाखे बेचने-फोड़ने पर रोक लगाई थी तो तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने अपने एक ट्वीट में इस पर प्रसन्नता व्यक्त की थी. भाजपा के पुराने नेता होने के बावज़ूद डॉ हर्षवर्धन को ट्रोलिंग का निशाना बनना पड़ा था. पटाखों पर रोक का समर्थन करने के लिए उन्हें इतना गरियाया गया कि उन्हें अपना वह ट्वीट मिटाना पड़ा. तब हिंदू संस्कृति के तथाकथित झण्डाबरदार ट्रोल आर्मी ने इसे अपनी विजय के रूप में पेश किया.

दु:ख होता है कि सूचना-समृद्ध युग में भी पटाखे फोड़ने को हिंदू-संस्कृति के साथ जोड़ा जा रहा है. हम तो यही सुनते रहे कि लंका विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी की खुशी में घर-घर घी के दीप जलाए गए थे. पटाखों का चलन तो बारूद के आविष्कार के बाद हुआ होगा. उसे कैसे हिंदू धर्म और संस्कृति से जोड़ा जा सकता है? फिर, यदि कोई परम्परा कालांतर में किसी धर्म-संस्कृति से जुड़ भी गई तो क्या उसके दुष्प्रभावों को देखते हुए उसका चलन बदलने या बंद करके मानव-जाति का कल्याण नहीं देखा जाना चाहिए?  संस्कृति और परम्पराएं जड़ नहीं होती. समय, समाज और स्थितियों के हिसाब से उनमें परिवर्तन होते या किए जाते रहे हैं.

त्योहारों की खुशी मनाने का ढंग अगर भविष्य का भीषण संकट बन रहा है तो गम्भीरता से सोचना होगा कि दीवाली मनाने का हमारा खुशनुमा तरीका क्या हो. असत्य पर सत्य और विनम्रता की विजय का उल्लास रावणी-अट्टहास तो नहीं ही होना चाहिए. 
  
(नभाटा, मुम्बई, 27 अक्टूबर, 2019)

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