Wednesday, October 30, 2019

अगले चुनावी मोर्चे से पहले



लगभग निरंतर चुनावी मोड में रहने वाला अपना देश शीघ्र ही झारखण्ड और दिल्ली के विधान सभा चुनाव देखेगा. बिहार और बंगाल जैसे बड़े और राजनैतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण राज्यों की बारी भी बहुत दूर नहीं है. अभी-अभी सम्पन्न चुनावों के बाद हरियाणा में तो सरकार बन गई लेकिन महाराष्ट्र में भाजपा-शिव सेना के बीच रस्साकसी जारी है.

देश की राजधानी होने के कारण दिल्ली वैसे ही राजनीति के केंद्र में रही है लेकिन आपके रूप में राजनीति के नए प्रयोग की सफलता-विफलता का मुकाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता से होने के कारण इस आधे-अधूरेराज्य की चुनावी राजनीति बहुत मायने रखती है. झारखण्ड भी राजनैतिक दृष्टि से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. राज्य गठन के बाद 19 वर्षों में आदिवासी-सपनों और महत्वाकांक्षाओं की राजनीति के क्रमश: हाशिए पर जाने और भाजपाई वर्चस्व स्थापित होने के कारण झारखण्ड का चुनाव देश की नज़र में रहेगा ही.

यहां हम झारखण्ड की चर्चा छोड़कर दिल्ली की चुनावी राजनीति की विस्तार से चर्चा करना चाहते हैं. उसके कुछ उल्लेखनीय कारण हैं. एक तो यही कि दिल्ली देश की राजधानी है और पूर्ण राज्य का दर्ज़ा नहीं मिलने के बावज़ूद उसकी राजनीति पर देश भर की निगाहें लगी रहती हैं. यह वही दिल्ली राज्य है जहां कांग्रेस की बुज़ुर्ग नेता शीला दीक्षित ने लगातार तीन बार चुनाव जीतकर सरकार बनाई और चर्चा बटोरी. यह अलग बात है कि उसी के बाद दिली की राजनीति से कांग्रेस के पांव उखड़े.

इस चर्चा का दूसरा और बड़ा कारण यह है कि आम आदमी पार्टी’ (आप) ने दिल्ली में वैकल्पिक राजनीति का शुरुआती डंका बजाया. पहली बार अल्पमत में होने के बाद सरकार गिरी तो दूसरे चुनाव में विशाल बहुमत पाया. सरकार बनाई और खूब विवाद खड़े किए. यह सब तब किया जब देश में नरेंद्र मोदी की भाजपा को अजेय समझा जा रहा था. आपने ही साबित किया कि आम जनता के मुद्दों की राजनीति करके मज़बूत भाजपा को पराजित किया जा सकता है.

भारी बहुमत होने के बावज़ूद केजरीवाल सरकार का पांच साल का कार्यकाल आसान नहीं रहा. पार्टी में बड़े तीखे वैचारिक मतभेदों के बाद विभाजन हुआ. केजरीवाल पर पार्टी के रास्ते से भटकने के आरोप लगे. भ्रष्टाचार के आरोपों में भी पार्टी नेताओं की फजीहत हुई. केजरीवाल के तौर-तरीके विवाद का कारण बने. वास्तव में,  आपका विवादों से घनिष्ठ नाता बना रहा.  उप-राज्यपाल से टकराव की आड़ में केजरीवाल सरकार केंद्र की ताकतवर मोदी सरकार से भिड़ती रही. केजरीवाल देश केअकेले मुख्यमंत्री हैं जो समय-समय पर मोदी सरकार को निशाने में रखकर सड़क पर धरना-प्रदर्शन और अनशन करते रहे.   

इसके बाद भी केजरीवाल दिल्ली ही नहीं, देश के कई हिस्सों में सराहे जाते हैं. दिल्ली के मध्य-निम्न मध्य और गरीब वर्ग में वे काफी लोकप्रिय हैं. दिल्ली के सरकारी स्कूलों के कायाकल्प की चर्चा  देश भर में होती है. दिल्ली में चल रहे मुहल्ला क्लीनिक सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा की व्यापक व्याधि के बीच बड़ी राहत माने जाते हैं. दिल्ली में बिजली सबसे सस्ती है. नगर बस और मेट्रो में महिलाएं नि:शुल्क यात्रा करती हैं. भ्रष्टाचार मिटाने और पारदर्शिता लाने का उनका वादा भले खरा न उतरा हो लेकिन कई निर्माण कार्य तय समय और आकलन से कम मूल्य पर पूरे किए जाने की प्रशंशा उनके खाते में गई.

दिल्ली की अवैध बस्तियों को नियमित करने के मोदी सरकार के ऐलान से यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा केजरीवाल की लोकप्रियता को उनकी राजनैतिक ताकत के रूप में स्वीकार करती है और उनसे स्थानीय मुद्दों मज़बूती से लड़ने को तैयार हो रही है. शायद उसे लगता है कि दिल्ली सरकार के कुछ चर्चित काम भाजपा के भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ सकते हैं. इसीलिए दिल्ली का मोर्चा बहुत दिलचस्प होगा.

यह सत्य है कि वैकल्पिक राजनीति, मूलभूत बदलाव और पारदर्शिता की नई हवा लेकर दिल्ली की राजनीति में छा जाने वाली आपवह शुरुआती पार्टी नहीं रह गई है जिसने देश भर के लिए बड़ी उम्मीदें जगाईथीं. उसके कई महत्त्वपूर्ण साथी आज अलग राह पर हैं. आपका अन्य राज्यों में विस्तार विफल ही रहा. पंजाब में शुरुआती कुछ सफलाएं टिक नहीं सकीं. मगर दिल्ली में केजरीवाल सरकार अपने कुछ जमीनी कामों के बूते मैदान में डटी है.

हाल में सम्पन्न लोक सभा चुनाव में भाजपा ने दिल्ली की सभी सात सीटें जीतीं लेकिन इसे विधान सभा चुनाव में सफलता की गारण्टी नहीं माना जा सकता.  एक तो  विधान सभा चुनाव के मुद्दे कुछ फर्क होते हैं. सत्ता विरोधी रुझान भी उनमें कुछ हद तक दिखाई देता है. हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों ने इसकी पुष्टि की है. केजरीवाल सरकार के कुछ उल्लेखनीय काम निश्चय ही उसके पक्ष में जाते हैं, जैसे शीला कौल को उनके कामों का फायदा मिला था. इसलिए भाजपा की कोशिश है कि राष्ट्रीय मुद्दों केअलावा उसके पास दिल्ली के स्थानीय मुद्दों पर लड़ने के प्रभावी  हथियार भी रहें.

पड़ोसी हरियाणा के परिणाम से उत्साहित कांग्रेस भी पूरी जोर आजमाइश करेगी. लोक सभा चुनाव में आपसे उसका समझौता चाहकर भी नहीं हो सका था. अंतिम समय तक हां-ना चलती रही थी. दिल्ली में आप और कांग्रेस, भाजपा के विरुद्ध बड़ी ताकत बन सकते हैं  लेकिन विधान सभा चुनाव में वे शायद वे एक-दूसरे का साथ नहीं लेना चाहेंगे. आपने वैसे भी कांग्रेस का जनाधार ज़्यादा छीना है. कांग्रेस वहां खुद की जमीन पाने के लिए हाथ-पैर मारेगी. इसलिए लड़ाई त्रिपक्षीय होगी किंतु यह भाजपा के पक्ष में ही जाएगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता.

भाजपा भावनात्मक राष्ट्रीय मुद्दे निश्चय ही उठाएगी. कश्मीर नया और बड़ा भावनात्मक मुद्दा है जिसे मोदी सरकार अपनी शानदार कामयाबी के रूप में प्रस्तुत करके लगातार चर्चा में बनाए रखना चाहती है. स्पष्ट भी है कि कश्मीर के बाहर जनता का बड़ा वर्ग, यहां तक कि भाजपा-विरोधी भी, अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले के साथ है. कश्मीर और काश्मीरियों की चिंता किए बगैर इसे  मोदी सरकार का साहसी कदम माना जा रहा है. विपक्षी नेताओं की दुविधा यह है कि वे चुनाव सभाओं में इस फैसले का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते. उनके पास आर्थिक मंदी में बंद होते कारखाने, बढ़ती बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दे हैं जिन्हें अब तक भाजपा भावनात्मक मुद्दों से दबाए रखने में कामयाब रही है.

इसके बावज़ूद दिल्ली का रण अलग ही होगा और केजरीवाल की आपउसमें महारथी की तरह उतरेगी, हालांकि अभी चुनावी मुकाबलों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहने का समय नहीं आया है.   
(प्रभात खबर, 31 अक्टूबर, 2019)

 
 
    

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