Friday, August 11, 2017

सिटी तमाशा तो कैसे बढ़े वैज्ञानिक नजरिया?


जब चोटी-कटवा की अफवाह से शासन-प्रशासन भी हलकान हो, शक में निर्दोष बुढ़िया मारी जा रही हो और सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के अनुषांगिक संगठन गोबर से बंकर बनाने तथा गोमूत्र से कैंसर का इलाज करने की वकालत कर रहे हों, तब सवाल उठना लाजिम है कि हमारे जीवन में विज्ञान की जगह कितनी बची है? खेद है कि सन 2017 में भी हम अवैज्ञानिक सोच से ग्रस्त हैं. सत्तापक्ष भी वैज्ञानिक नजरिया विकसित करने एवं वैज्ञानिक संस्थानों को बढ़ावा देने का काम करने की बजाय इसके उलट आचरण कर रहा है.
ऐसे माहौल में देश के 25 से ज्यादा शहरों में विज्ञानियों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने में लगे लोगों ने नौ अगस्त को परिचर्चा की और सड़कों पर जुलूस निकाला. यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ कि लखनऊ में 93 वर्षीय विज्ञानी डॉ नित्यानंद ने जुलूस का नेतृत्त्व किया. दिल्ली, मुम्बई, कॉलकाता, पुणे जैसे बड़े महानगर तो इसमें शामिल थे ही. वैज्ञानिक नजरिये को प्रोत्साहित करने और विज्ञान संस्थानों को शोध एवं अनुसंधान के लिए पर्याप्त बजट देने की आवाज उठाने के वास्ते यह पहला महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप था.
देश का विज्ञानी समुदाय यह महसूस करता है कि सरकारें विभिन्न विज्ञान संस्थानों को शोध एवं अनुसंधान के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं करातीं. अनेक संस्थानों को अपने प्रयोगों के लिए रसायन, उपकरण और अति आवश्यक सुविधाओं के लिए भी लम्बा इंतजार करना पड़ता है, नौकरशाही अड़ंगे लगाती है और जरूरी बजट नहीं दिया जाता. वर्तमान सरकार में तो विज्ञान संस्थानों की स्वायत्तता पर ही खतरा मंडराने लगा है. कई संस्थानों में अवैज्ञानिक या प्रतिगामी सोच के लोग बैठाए जा रहे हैं. आश्चर्य की बात तो यह कुछ केंद्रीय विज्ञान संस्थानों के विज्ञानियों को नौ अगस्त के विज्ञान-मार्च में शामिल न होने की हिदायत दी गयी थी.
हमारी सरकारों का यही रवैया रहा तो आम जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कैसे पनपेगा, जिसकी आज बहुत जरूरत है. याद कीजिए कि कुछ वर्ष पहले गणेश की मूर्तियों के दूध पीने की अफवाह किस कदर फैली थी. तब कई नेता, अफसर, सम्पादक तक गणेश की मूर्तियों को दूध पिलाने खड़े हो गये थे. कुछ ही दिन पहले दिवंगत, महशूर विज्ञानी प्रो यशपाल तब टीवी के पर्दे से लेकर सेमिनारों तक समझाते घूम रहे थे कि यह भौतिकी का सामान्य सिद्धांत है, कैपिलरी-प्रभाव, जिससे कोई द्रव मूर्ति की सतह पर थोड़ा फैल-जा सकता है, कि कोई मूर्ति दूध नहीं पी सकती.
दरअसल, जनता को कूप-मण्डूक बनाये रखना राजनैतिक षड्यंत्र है. कभी यहां रहस्यमय मुंह-नोचवा घूमता है, कभी चोटी-कटवा, कभी कोई महिला डायन बता कर मार डाली जाती है, कभी किसी को भूत उतारने के नाम अर अधमरा कर दिया जाता है. इसके पीछे धर्मांधता, अशिक्षा और साजिश होती है. वैज्ञानिक नजरिया ही हमें इन बेवकूफियों से बचा सकता है, जीवन को बेहतर बनाने में मदद कर सकता है.

अफसोस यह कि वर्तमान सता-पक्ष ही नहीं, मीडिया का बड़ा हिस्सा भी वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करने में रुचि नहीं लेता. उलटे, वह मुंह-नोचवा या चोटी-कटवा की खबरों के पीछे भागता है. नौ अगस्त के विज्ञान-मार्च की खबर मीडिया से गायब ही रही. चंद अखबारों ने छोटी-सी खबर दी, जबकि चोटी-कटवा की अफवाहों को खूब जगह मिली. लखनऊ जैसे शहर में जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर के छह विज्ञान-संस्थान हैं, मीडिया की यह विज्ञान-बेरुखी अफसोसनाक है. वैज्ञानिक सोच के बिना हम जानवर ही बने रहेंगे.    
(नभाटा, 12 जुलाई, 2017)

1 comment:

Chandra said...

सुंदर लेख। मार्च के लिए अनुमति शायद काफी समय मे मिलती है इस लिए अनुमति नहीं मिली अतः प्रेस लक़ब के अंदर से गेट तक ही जा पाए। लखनऊ में तो 1 डीएसटी, 4 CSIR, 2 ICAR, RDSO, PGI, NRLC..बहुत संस्थान हैं। प्रदेश सरकार के भी लवण, PWD जैसे संस्थान हैं।