मां मर गयी, पिता ने दूसरे शादी कर ली. सौतेली मां ने
सताया तो ननिहाल भेज दी गयी. वहां भी ठौर न मिली तो दर-दर भटकने लगी. रेल पुलिस ने आश्रयहीन
लड़की को संरक्षण गृह पहुंचा दिया. गरीबी और लाचारी के किस्से भी बहुत हैं. किसी को
घर वाले बेहतरी की उम्मीद में संरक्षण गृह पहुंचा गये तो कोई माता-पिता लड़की का ‘बोझ’ नहीं ढो पाने की विवशता के कारण.’संरक्षण गृह’ भयानक नरक साबित हुए. किस्से आप पढ़-सुन
ही रहे हैं. इस समाज में लड़कियों के साथ क्या-क्या हो रहा है. गर्भ में न मारी गईं
तो जीते-जी रोज-रोज मारी जाती रहेंगी. सरकारी अनुदान से सुरक्षा और आश्रय देने के
नाम पर खुली संस्थाएं उनके लिए दैहिक-मानसिक यातना गृह साबित हो रही हैं. जिला
प्रशासन, पुलिस, एनजीओ, मंत्री-विधायक, आला अफसर सब उस
गिरोह में शामिल हैं.
बिहार के मुजफ्फरपुर के बाद अपने प्रदेश में देवरिया के एक
आश्रय गृह में लड़कियों के यौन शोषण का मामला क्या खुला, चारों तरफ से ऐसे सरकारी एवं एनजीओ संचालित संस्थाओं की पोल सामने आने
लगी. अच्छा हुआ कि योगी सरकार ने राज्य के सभी ऐसे आश्रय गृहों की जांच के आदेश
दिये हैं. जहां यौन शोषण के मामले नहीं हैं, या पता नहीं चल
पा रहे वहां इतना तो है ही कि रजिस्टर में दर्ज महिलाओं में से अधिकसंख्य गायब हैं.
कहां, गईं? संचालकों के
पास कोई जवाब नहीं है. वे बहाने बना रहे हैं. असल बात ये है कि वहां महिलाएं रखी
ही नहीं गईं, सिर्फ रजिस्टर में उनके नाम लिख दिये गये ताकि
उनकी संख्या के बल पर सरकार से अनुदान मिलता रहे. किसी ने मुहल्ले की महिलाओं के
नाम लिख लिये ताकि कभी निरीक्षण के समय उन्हें बुलाया जा सके.
ज्यादातर आश्रय गृहों में जरूरी सुरक्षा व्यवस्था नहीं है.
गंदगी और दूसरी अव्यवस्थाओं का तो कहना ही क्या. अक्सर खबरें आती रहती हैं कि अमुक
आश्रय गृह से लड़कियां भाग गईं. बाल गृहों से बच्चे भी भागते रहे हैं. ज्यादातर
मामले ऊपरी जांच-पड़ताल के बाद दबा दिये जाते रहे. कभी जिम्मेदार विभाग और जिले के
अधिकारियों ने ठीक-ठीक पड़ताल करने की कोशिश नहीं की कि अंदर के हालात क्या-कैसे
हैं. अनुदान लूटने के खेल में सभी शामिल हैं. वर्ना पंजीकरण रद्द हो जाने के बावजूद संरक्षण
गृह कैसे चल रहा था? जिला प्रशासन और पुलिस आश्रयहीन लड़कियों
को वहां क्यों भेज रहे थे?
समाज कल्याण विभाग की कई योजनाएं हैं. अच्छा-खासा बजट है. आश्रय-हीन
कन्याओं, महिलाओं, शिशुओं, किशोरों,
वृद्धों, विकलांगों, मानसिक
रोगियों, भिक्षुओं, आदि को आश्रय देने
वाली संस्थाओं को अनुदान देने की व्यवस्था है. संस्थाओं का बाकायदा पंजीकरण,
निरीक्षण और सत्यापन होता है. पिछले वर्षों में दिये गये अनुदान के
व्यय की जांच होती है. नियमों के अनुसार काफी कागजी औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती
हैं. इस हिसाब से किसी भी संस्था को गड़बड़ करने पर पकड़ा जा
सकता है. लेकिन देखिए कि कोई पकड़ा नहीं जाता. जो जितना ज्यादा गड़बड़ करता है उतना
ज्यादा अनुदान पा जाता है. ईमानदारी से समाज सेवा करने वालों को सरकारी अनुदान
नहीं मिल पाता. संस्थाओं से लेकर विभाग में ऊपर तक मिलीभगत है.
जब भी कोई बड़ा मामला खुलता है तब पूरा तंत्र हरकत में आता
है. कुछ समय को व्यवस्था में हल-चल मचती है. कुछ निलम्बन, वगैरह होते हैं. जांच बैठती है. फिर धीरे-धीरे चीजें वापस उसी पटरी पर आ
जाती हैं. किसी महिला संरक्षण गृह में लड़कियों के यौन शोषण का मामला कोई पहली बार
नहीं खुल रहा है. ये मामले भी जल्दी भुला दिये जाएंगे, एक और
मामला सामने आने तक.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 अगस्त, 2018)
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