Friday, August 17, 2018

ये किसका शहर है पिटा हुआ?



शहरी विकास और स्वच्छता सर्वेक्षणों के बाद अब रहने की सुविधाओं के लिहाज से बेहतर शहरों की सूची में भी राजधानी लखनऊ फिसड्डी साबित हुआ है तो आश्चर्य कैसा? उत्तर प्रदेश का एक भी शहर इस सूची के पहले 32 में स्थान नहीं पा सका है तो समझा जा सकता है कि हम किस हाल में रह रहे हैं. आश्चर्य इस पर भी नहीं होना चाहिए कि सूची में सबसे नीचे आने वाला शहर रामपुर भी यूपी ही का है.

ईज ऑफ लिविंगयानी जहां रहना आरामदायक अर्थात सुविधाजनक हो, सर्वेक्षण के लिए जो मापदण्ड तय किये गये थे उनमें सुशासन का हाल, शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति, सुरक्षा-व्यवस्था, आवासीय और मूलभूत सेवाएं, बिजली-पानी आपूर्ति भी शामिल हैं. इस पैमाने पर लखनऊ को प्रदेश में अव्वल आना चाहिए था. सरकार यहीं बैठती है, एक से एक नामी स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय हैं, सरकारी और निजी बड़े अस्पताल हैं, पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा बिजली-पानी लखनऊ वालों को मिलते हैं. इन पैमानों पर भी लखनऊ अच्छे नम्बर नहीं पा सका. उसे 73वां स्थान मिला. मतलब बहुत खराब. सबसे अच्छा शहर पुणे निकला. सोच लीजिए कि पुणे की तुलना में हमारा लखनऊ कितना बदहाल है.

अपने शहर को सबसे खराब नम्बर मिश्रित भू-उपयोग, आवास और समावेशीकरण, पार्क एवं खुली जगह तथा पहचान एवं संस्कृति के लिए मिले हैं. सीधा मतलब है लखनऊ में उपलब्ध जमीन का बेहतर उपयोग नहीं किया गया है. रिहायशी इलाके और वंचित वर्गों के लिए अवास सुविधा विकसित कर पाने में यह विफल है. बागीचों और खुली जगहों के लिए कभी मशहूर लखनऊ पांच में से मात्र 0.27 नम्बर पा सका है तो क्या समझा जाए? यही हाल पहचान और संस्कृति के क्षेत्र में है. हम बड़ा गर्व करते हैं कि देश भर में लखनऊ की विशिष्ट पहचान है, कला और संस्कृति के मामले में इसका कोई सानी नहीं, लखनवी खान-पान, बोली और पहनावे की धूम है, वगैरह. किंतु इस सर्वेक्षण में हमें 6.25 में से मात्र 0.67 अंक मिले हैं. कहां खड़े हैं हम? अपने मुंह मियां मिट्ठू ही न!

ऐसे सर्वेक्षणों का और कोई मतलब भले न हो लेकिन इतना तो पता चलता ही है कि कुछ खास मानकों पर देश के दूसरे राज्यों एवं शहरों की तुलना में आज हम कहां हैं. यह जितना हमारी सरकारों, स्थानीय प्रशासनों और नगर निकायों की विफलता है, उतना ही हमारी यानी जनता की कर्तव्य-विहीनता का द्योतक है. शहरों के चेहरे सबसे ज्यादा उसके निवासी बनाते-बिगाड़ते हैं. इससे हमारा नागरिक-बोध और दायित्व-बोध भी पता चलता है.

हम अपने शहर से प्यार नहीं करते. उसके प्रति लापरवाह हैं. इसीलिए इस सर्वेक्षण के परिणामों पर कोई चिंता भी नहीं दिखाई देती. हुआ करे लखनऊ फिसड्डी, हमें क्या! यह जिम्मेदारी सरकार की है, नगर निगम की है, हमसे क्या मतलब. हम मस्ती करेंगे और कचरा फैलाएंगे. हम जहां मर्जी आई थूकेंगे. कहीं भी गाड़ी खड़ी करेंगे, घर के आगे नाली बंद करेंगे, अतिक्रमण करेंगे, सार्वजनिक सम्पत्ति की तोड़-फोड़ करेंगे, कहीं से बल्ब चुरा लाएंगे और टैक्स चोरी करने में दूसरों के कान काटेंगे. नियम-कानून मानना हमारी शान में गुस्ताखी है.

किसी को सड़क पर टोक कर देखिए कि आपने गाड़ी गलत खड़ी की है या आप उलटी दिशा से आ रहे हैं या सर, बर्गर-कोक खा-पी कर प्लेट-गिलास सड़क पर मत फैंकिए. वह मारपीट पर उतारू हो जाएगा लेकिन शर्मिंदा कतई न होगा. फिर किसको क्या पड़ी है कि उसका शहर सर्वेक्षण में कहां खड़ा है!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 18 जनवरी, 2018)

   

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