Tuesday, August 21, 2018

कांग्रेस का कठिन रास्ता




चुनाव आयोग के इनकार के बाद एक देश, एक चुनावका भाजपा का अभियान फिलहाल निकट भविष्य में फलीभूत होता नहीं दिखता. भाजपा शुरुआत के लिए यह माहौल तो बना ही रही थी कि 2019 में आम चुनाव के साथ आठ-दस राज्यों के विधान सभा चुनाव भी करा लिये जाएं. चार राज्यों के चुनाव वैसे भी लोक सभा के साथ होने हैं. चार राज्यों के चुनाव, जो इस वर्ष के अंत तक होने हैं, कुछ टाल कर और एक-दो अन्य राज्यों में समय पूर्व चुनाव कराकर एक देश, एक चुनावका श्रीगणेश किया जा सकता था. इसमें किसी संविधान संशोधन की भी जरूरत नहीं थी.

भाजपा के बारम्बार दोहराये गये प्रस्ताव और विधि को पहल से अगर इस तरह का कोई माहौल बना भी था तो व्यावहारिक कारणों से मुख्य निर्वाचन आयुक्त के स्पष्ट इनकार के बाद सबसे ज्यादा राहत कांग्रेस ने ली होगी. कांग्रेस को लग रहा था कि भाजपा एक देश, एक चुनावको भी येन-केन प्रकारेण हर चुनाव जीतने की अपनी रणनीति में शामिल कर रही है. मसलन, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के चुनाव, जहां भाजपा सत्ता-विरोधी रुझान का सामना कर रही है, लोक सभा के साथ कराकर वह अपना नुकसान टालने की चाल चल रही है, क्योंकि तब क्षेत्रीय से ज्यादा राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव को प्रभावित कर रहे होंगे.

बहरहाल, कांग्रेस का भला ऐसी हवाई राहतों से होने वाला नहीं. यदि मोदी और शाह कांग्रेस-मुक्त भारतके नारे पर अमल करने पर तुले ही हैं तो कांग्रेस के बचाव का एक ही तरीका हो सकता है कि वह नयी परिस्थितियों में व्यावहारिक रणनीति अपनाये, अपने मूल्यों से स्वयं को पुनर्जीवित करने का अवसर तलाशे, संगठन को सुदृढ़ एवं व्यापक बनाए और पलट कर वार करे. क्या कांग्रेस के भीतर ऐसे कोई तैयारी चल रही है?
बीती मार्च में हुए कांग्रेस महाधिवेशन और पिछले मास कांग्रेस कार्यसमिति ने 2019 के आम चुनाव में साम्प्रदायिक शक्तियों को हराने और देश के निर्माताओं के सपनों के अनुरूप भारत के विचार को बहालकरने के लिए समान विचार वाले दलों से गठबंधन का व्यावहारिक मार्ग अपनाना तय कर लिया था. आम चुनाव दूर नहीं हैं. क्या इस दिशा में उसने कुछ कदम आगे बढ़ाये?

पार्टी के हालात को देखते हुए सन 2003 की तरह गठबंधन का नेतृत्व करने का दावा हालांकि इस बार कांग्रेस ने छोड़ दिया है लेकिन राज्य सभा के उप-सभापति के चुनाव में उसके पास अच्छा मौका था कि वह भावी गठबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की पहल कर सके. इसमें वह सफल नहीं हो सकी. क्षेत्रीय दल भी आपस में कोई सूत्र नहीं जोड़ सके. भाजपा ने जद (यू) के प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाकर बीजू जनता दल को भी साध लिया. गठबंधन की रणनीति में भी फिलहाल एनडीए बेहतर हाल में दिखाई देता है.

बीजद का कांग्रेस-विरोध नया नहीं है लेकिन राज्य सभा के उप-सभापति के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी उसके प्रत्याशी को वोट नहीं दिया जबकि अरविंद केजरीवाल भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धुर विरोधी मानते हैं. यह विरोधाभास बताता है कि भाजपा के खिलाफ एक मजबूत और बड़ा गठबंधन बनाना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल होने वाला है. कुछ क्षेत्रीय दल ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस-विरोधी हैं तो कुछ को लगता है कि आज की स्थितियों में कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने की बजाय अकेले ही भाजपा का मुकाबला करना अच्छा होगा. इस द्वंद्व से उन्हें उबारने का उत्तरदायित्व भी कांग्रेस को लेना होगा.

भाजपा-विरोधी दलों को वह साध सके, इसके लिए कांग्रेस को पहले अपने संगठन को चक-चौबंद करना होगा. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस संगठन बिखरा हुआ और निष्क्रिय है. तीन दशक से सत्ता से बाहर रहने के अलावा भी इसके कुछ महत्त्वपूर्ण कारण हैं. राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सम्भाले पर्याप्त समय हो चुका लेकिन वे अब तक उत्तर प्रदेश में एक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष नहीं दे सके. यूपी और बिहार ही क्यों, आसन्न चुनाव वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी पुराने कांग्रेसी दिग्गज पार्टी हित में काम करने की बजाय एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता ठाने हुए हैं. क्या यह अच्छा नहीं होता कि कांग्रेस वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के मुकाबले अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने मैदान में उतरती? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव  ही उसे ऐसा करने से रोकता है. खतरा उठा कर दो टूक फैसले करने और अपेक्षाकृत नये चेहरों को सामने लाने से राहुल भी बचते आ रहे हैं. बचाव की यह शैली कांग्रेस के बचे-खुचे कार्यकर्ताओं में जोश कैसे भरे?

सन 2018 की कांग्रेस नेहरू की कांग्रेस नहीं है. पुराने दिग्गजों और मूल्यों को एक किनारे कर इंदिरा गांधी ने 1971 में उसे नया अवतार दे दिया था. आज राहुल के पास इंदिरा वाली कांग्रेस भी नहीं है. उनके पिता राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण तथा अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने एवं राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति देकर कांग्रेस की भटकन और पतन का जो रास्ता खोला था, उसने पार्टी को पुराने जनाधार से वंचित कर खोखला किया. 1997 से सोनिया के बागडोर सम्भालने के बाद कांग्रेस कुछ सम्भली और गठबंधन की राजनीति का नया दौर उसने सफलता से चलाया. यूपीए-2 की बदनामियों और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नये अवतार ने उसे 2014 में जो पटकनी दी, उससे उबरने का रास्ता अब उसे खोजना है. एक तरह से कांग्रेस को नया अवतार लेना है. इसके लिए जिस दृष्टि, खतरे उठाने की आवश्यकता है, क्या राहुल उसे समझते हैं? उसके लिए तैयार हैं?

दलित राजनीतिक नेतृत्व के उभार, मंडल आयोग की रिपोर्ट के पश्चात पिछड़ा वर्ग की गोलबंदियों और भाजपा की उग्र हिंदू ध्रुवीकरण की रणनीति ने 1990 के बाद से भारतीय समाज और चुनावी राजनीति को पूरी तरह उलट-पुलट दिया है. इसमें कांग्रेस के लिए जगह सिकुड़ती चली गयी किंतु ऐसा भी नहीं है कि उसके लिए सम्भावना समाप्त हो गयी हो.

सन 2014 में भारी बहुमत पाने वाली भाजपा को मात्र 31 प्रतिशत मत मिले थे जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में लोक सभा में बहुमत पाने वाली किसी भी पार्टी को मिले सबसे कम वोट हैं. जिसे कांग्रेस के राजनैतिक प्रस्ताव में भारत का विचार (आयडिया ऑफ इण्डिया) कहा गया है, उसकी बहुत बड़ी जगह आज के भारत में भी मौजूद है.  उस जगह को भरने लायक विश्वास कांग्रेस पा सके, यह कोशिश राहुल कर सकें तो कांग्रेस का पुनर्जन्म हो.

अन्यथा, उन्हें तब तक इंतजार करना होगा जब तक भाजपा अपनी ही गलतियों से उनके लिए जगह खाली न कर दे.

(प्रभात खबर, 22 अगस्त, 2018) 


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