Wednesday, August 08, 2018

सिर्फ स्वार्थ की राजनीति


हमारे देश में किसी मुद्दे पर विभिन्न राजनैतिक दल कैसा रुख अपनाएंगे और क्या पैंतरे दिखाएंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि वह मुद्दा किन लोगों से जुड़ा है और वे आसन्न चुनाव को किस तरह प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. बिल्कुल ताजा मामला एससी-एसटी एक्ट का है, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के कुछ दिशा-निर्देशों के बाद बीती 20 मार्च से आज तक संसद से सड़क तक हंगामा बरपा है. इस दौर में चूंकि देश की चुनावी राजनीति दलित-केंद्रित हो गयी है, इसलिए सभी राजनैतिक दल दलित-हितैषी बन गये हैं. एक होड़ मची है कि उसका चेहरा दूसरों से अधिक दलित हितकारी दिखाई दे. उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं है कि पूर्व में इसी मुद्दे पर उनका रुख क्या रहा है. देश का दलित समुदाय किस हाल में है, यह भी उनकी चिन्ता का केंद्र नहीं है.

बीती 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी (अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक) कानून, 1990 के बारे में चंद दिशा-निर्देश दिये थे ताकि किसी निर्दोष व्यक्ति को फंसाया न जा सके. पहले व्यवस्था थी कि दलित उत्पीड़न की शिकायत आते ही आरोपित व्यक्ति को बिना प्रारम्भिक जांच पड़ताल के तुरंत गिरफ्तार किया जाए. उसकी जमानत की व्यवस्था भी नहीं थी. देश की सर्वोच्च अदालत ने माना कि इस सख्त कानून का दुरुपयोग भी हो रहा है. इसलिए उसने निर्देश दिया कि गिरफ्तारी से पूर्व प्रारम्भिक जांच हो, सक्षम अधिकारी से अनुमति ली जाए और जमानत देने पर भी विचार किया जाए.

इन निर्देशों को एससी-एसटी एक्ट को नरम बनाना माना गया. देश भर में विभिन्न दलित संगठन सड़कों पर उतर आये. मोदी सरकार का शुरुआती रुख था कि शीर्ष अदालत ने कानून को बदला नहीं है, बल्कि उसका दुरुपयोग न होने देने के लिए कुछ व्यवस्थाएं दी हैं. यह पैंतरा भाजपा की मूल राजनीति के अनुकूल था क्योंकि उसका मुख्य जनाधार सवर्ण हिंदू जातियां रही हैं, जो इस कानून की चपेट में सबसे ज्यादा आते हैं और इसीलिए इसके विरोध में रहे हैं. किंतु जैसे-जैसे दलितों का आंदोलन उग्र होता गया, विरोधी दलों ने मोदी सरकार को दलित-विरोधी बताना शुरू किया और सत्तारूढ़ एनडीए के दलित घटक दलों ने भी विरोध में आवाज उठायी तो भाजपा सतर्क हो गयी. 
मोदी सरकार इसलिए भी घिरती दिख रही थी कि इस कानून को नरमबनाने का आदेश देने वाले एक न्यायमूर्ति ए के गोयल को सरकार ने उनकी सेवानिवृत्ति के अगले दिन ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरमैन बना दिया. रामविलास पासवान जैसे एनडीए सहयोगियों ने इसका खुला विरोध किया.

चूंकि 2019 में दलित वोट निर्णायक साबित होने हैं, इसलिए भाजपा ने फौरन पैंतरा बदला. सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की गयी. कोर्ट का रुख पूर्ववत रहा तो संसद के चालू सत्र ही में नया विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने की रणनीति बनी. फिलहाल नया विधेयक लोक सभा से पारित हो गया है. सरकार यह प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही कि एससी-एसटी एक्ट को पहले से अधिक सख्त किया जा रहा है. मोदी जी कह रहे हैं कि उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए अगस्त क्रांतिकर दी है.

कांग्रेस समेत अन्य विरोधी दल जो भाजपा को पहले से दलित विरोधी साबित करने में लगे थे, इस बहाने और सक्रिय हो गये. उन्होंने चुनौती दी कि एससी-एसटी एक्ट को फिर से सख्त बनाने के लिए सरकार तत्काल अध्यादेश क्यों नहीं ला रही. अध्यादेश आसान रास्ता था लेकिन सरकार विधेयक पर संसद में बहस कराकर अपना दलित-प्रेमी चेहरा प्रस्तुत करने और दूसरों को दलित-विरोधी बताने का मौका क्यों छोड़ती.

दलितों की सबसे आक्रामक राजनीति करने वाली बसपा-नेत्री मायावती को एससी-एसटी एक्ट को नरमकिये जाने पर सबसे ज्यादा बिफरना ही था. उन्होंने इस कानून को बाबा साहेब आम्बेडकर और दलितों के लम्बे संघर्ष का परिणाम बताते हुए भाजपा को इसे नरम बनाने की साजिश करने का आरोप लगाया. अब जबकि एससी-एसटी एक्ट को फिर से उसी तरह सख्त बनाने के लिए विधेयक लोक सभा से पारित हो गया है, वे इसके लिए दलितों के आंदोलन तथा उनकी एकजुटता को श्रेय दे रही हैं. किंतु, ग्यारह वर्ष पहले सवर्णों को साथ लेकर बहुजन की बजाय सर्वजनकी सोशल इंजीनीयरिंग से उत्तर प्रदेश की सत्ता पाने वाली मायावती ने एससी-एसटी एक्ट को सबसे ज्यादा नरम बनाने वाले आदेश जारी किये थे, यह शायद आज वे याद भी न करना चाहें.

सन 2007 के चुनाव में मायावती को दलितों के अलावा सवर्णों के समर्थन ने बहुमत दिलाया था. एससी-एसटी एक्ट पर अमल से सवर्ण नाराज न हो जाएं, इसलिए मई और अक्टूबर 2007 में दो अलग-आलग आदेशों से उन्होंने उत्तर प्रदेश में इस कानून को इतना नख-दंत विहीन कर दिया था, जितना वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से भी नहीं हुआ. उन आदेशों का सार यह था कि हत्या और बलात्कार को छोड़कर दलित उत्पीड़न के अन्य मामले एससी-एसटी एक्ट के तहत दर्ज न किये जाएं और यदि कोई दलित किसी को इस कानून का दुरुपयोग करे उस पर आईपीसी की धाराओं में मुकदमा लिखा जाए. आज चूंकि उन्हें सबसे पहले अपने अपना दलित जनाधार बचाना है इसलिए सवर्णों की नाराजगी की चिंता किये बगैर उसी कानून की सख्ती के लिए आक्रामक रुख अपनाना पड़ रहा है.

इस वक्त एक भी राजनैतिक दल नहीं होगा जो एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के कारण इ से फिर से सख्त बनाने का विरोध करे. भाजपा को, जिसे अपने सवर्ण वोट बैंक की निगाह से इसके खिलाफ खड़ा होना चाहिए था, इसकी सबसे बड़ी हिमायती दिखने का प्रयास कर रही है. कारण है दलितों का देशव्यापी बड़ा वोट बैंक.अस्सी लोक सभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा का गठबंधन उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा है. यहां उसे दलितों के पक्ष में मायावती से भी ज्यादा खड़े दिखना है. सवर्ण थोड़ा नाराज हुए भी तो साथ ही रहेंगे. दलित वोट मिल गये तो नैया पार.

विडम्बना देखिए कि सुप्रीम कोर्ट की उसी पीठ ने पिछले साल जुलाई में यह कहते हुए कि दहेज निरोधक कानून की सख्ती का दुरुपयोग भी होता है, उसे नरमबनाने के निर्देश दिये थे. अब दहेज कानून में बिना आरोपों की प्रारम्भिमक जांच के तुरंत गिरफ्तारी नहीं होती. महिला संगठनों ने दहेज कानून को उत्पीड़क के पक्ष में उदार बनाने के खिलाफ आवाज उठायी थी. धरना-प्रदर्शन किये थे लेकिन चूंकि दलितों  की तरह महिलाएं एकजुट वोट-बैंक नहीं हैं, इसलिए कोई राजनैतिक दल उनके साथ खड़ा नहीं हुआ. दलितों के साथ खड़ा दिखने के लिए उनमें युद्ध छिड़ा हुआ है.

(प्रभात खबर, 09 अगस्त, 2018)


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