हजरतगंज थाने के इंसपेक्टर पर कड़ी कार्रवाई हो जाएगी, यह मंगलवार की शाम ही तय था. आखिर भारतीय जनता पार्टी के राज में
भाजपाइयों पर ही लाठी चलाने की जुर्रत कोई इंसपेक्टर कैसे कर सकता है. विरोधी दल
वाले प्रदर्शन कर रहे होते तो चाहे जितना लाठी चलाइए, आंसू
गैस छोड़िए. शाबाशी मिलेगी.
अदालती आदेश से सचिवालय से हजरतगंज चौराहे तक प्रदर्शन करने
पर रोक है. उस दिन भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ता नवजोत सिंह सिद्धू का
पुतला फूंकने निकले थे. जो पार्टी सत्ता में होती है, उसके लोगों पर नियम-कानून लागू नहीं होते, यह बात
पुलिस इंसपेक्टर भूल गये या उनमें कर्तव्यनिष्ठा कुछ ज्यादा ही थी.
प्रदर्शनकारियों को रोका गया तो उन्होंने पुलिस चौकी प्रभारी की पिटाई कर दी. तब
इंसपेक्टर ने लाठी चलवा दी. कुछ कार्यकर्ता घायल हो गये जिनसे सहानुभूति जताने
मंत्री भी दौड़े आये. मुख्यमंत्री तक फरियाद हुई. तभी निश्चित था कि इंसपेक्टर
नपेगा. फिलहाल वह निलम्बित है. इससे पहले जांच की खाना पूरी भी करवा ली गयी.
गुरुवार को अटलजी की अस्थि कलश यात्रा थी. लखनऊ
विश्वविद्यालय के पुलिस चौकी प्रभारी को उस भीड़ में वह अभियुक्त दिख गया जो कुलपति
के साथ मारपीट में वांछित था. उसने फौरन उसे पकड़ा. मगर एक भाजपा विधायक के
समर्थकों ने चौकी प्रभारी से मार-पीट कर उसे छुड़ा लिया. उसकी मदद के लिए और पुलिस
बल नहीं आया. मामले में आगे भी शायद कुछ नहीं होगा.
ये दो वाकये यह बताने के लिए यहां दर्ज किये गये हैं कि
पिछली सपा सरकार में पुलिस के साथ ठीक यही व्यवहार समाजवादी पार्टी के लोग करते
थे. सपाइयों पर किसी तरह की कार्रवाई करने वाले पुलिस वालों को इसी तरह प्रताड़ित
किया जाता था. सपा विधायक ही नहीं छोटे कार्यकर्ता भी पुलिस वालों का गिरेबान पकड़
लेते थे, उनके साथ मारपीट करते थे, थाने में घुस
कर अभियुक्तों को छुड़ा ले जाते थे.
नतीजा? पुलिस बल में भीतर-भीतर डर, असंतोष और गुस्सा भरा रहता है. ऐसे माहौल में पुलिस निश्चित हो कर
कानून-व्यवस्था बनाये रखने का दायित्व कैसे निभा सकती है? कोई
आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अपराध कम नहीं हो रहे. अपनी जिम्मेदारी निभाने में
पुलिस को खुली छूट नहीं होगी तो कानून-व्यवस्था कैसे बनी रहेगी? जहां निषेधाज्ञा लागू है वहां प्रदर्शन कर पुतला फूंकने आएंगे तो क्या पुलिस
को उनका स्वागत करना चाहिए था?
मुख्यमंत्री बार-बार अधिकारियों को चेतावनी दे रहे हैं.
पुलिस अफसरों के पेच कस रहे हैं. निलम्बन और तबादले कर रहे हैं. किंतु इसका असर
होता नहीं दिखता. कारण यही है कि पुलिस दवाब में
है. उसे डर रहता है कि पता नहीं किस अभियुक्त के तार सत्ता पक्ष में ऊपर तक
जुड़े हों और उलटे पुलिस पर ही कार्रवाई न हो जाए. पिछली सरकार में सपा नेता चुंगी
दिये बिना और मांगे जाने पर चुंगी वालों को मार-पीट कर फर्राटा भरते थे. उन्हें
मालूम था कि उनकी सरकार में उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा. अब यही बात भाजपाई मानते
हैं. फिर सुधार कैसे हो?
कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी और सिपाही स्वीकार करते हैं कि
उन्हें अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं है. वे सत्तारूढ़ पार्टी के दवाब में रहते
हैं. उसका अदना-सा नेता भी थानेदारों को फोन पर घुड़कियां देता है. उन्हें अपमानित
करता है. अपमानित और डरे पुलिस बल से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह निष्पक्ष और
स्वतंत्र होकर काम करे. वे या तो कर्तव्यनिष्ठा की सजा भुगतें या नेताओं के इशारे
पर नाच कर खुद भी ज्यादतियां करते रहें. पुलिस नाकामयाब और बदनाम है तो उसके बड़े
कारण हैं. पुलिस सुधार की कई सिफारिशों में इस सब का उल्लेख है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 25 अगस्त, 2018)
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