सन 1977 में जब मैंने ‘स्वतंत्र भारत’ से पत्रकारिता की शुरुआत की तो साहित्यिक-सांस्कृतिक
रुचियों के कारण साहित्य, रंगमंच और कला जगत के सक्रिय लोगों से परिचय
शुरू हुआ. अपने वरिष्ठ साथी प्रमोद जोशी के साथ हम अक्सर कला महाविद्यालय चले
जाते. वहां आर एस बिष्ट, अवतार सिंह पंवार, जय कृष्ण अग्रवाल, पी सी लिटिल, योगी जी, जैसे लोगों की संगत मिलती.
बहुत कुछ नया सीखने-समझने को मिलता. कुछ बातें सिर के ऊपर से भी निकल जातीं. युवा
कलाकार शरद पाण्डे से भी उन ही दिनों मुलाकात हुई थी. इस समय याद नहीं कि तब वह छात्र
ही थे या पढ़ाई पूरी कर चुके थे. बहुत संकोची और मितभाषी शरद से घनिष्ठता नहीं हो
पाई थी.
कुछ ही समय बाद शरद के नाम ने तब ध्यान खींचा जब
प्रसिद्ध कलाकार एम एफ हुसेन के साथ किसी म्युरल पर उनके काम करने की खबरें बनीं. एकाएक ही वह संकोची
युवा कलाकार हमारा चहेता बन गया. राम कुमार और हुसेन जैसे कलाकार हमारे हीरो हुआ
करते थे. उनके काम और अंदाज पर ‘दिनमान’ में छपता रहता था और ‘दिनमान’ के हम दीवाने थे. इसलिए हुसेन के साथ काम करने
वाले शरद को हमारे आकर्षण का केंद्र बनना ही था. हमने तब शरद का घर भी खोज लिया था
जो पुराना किला में था. उधर से आते-जाते हम एक दूसरे को बताते थे- यह शरद पाण्डे
का घर है. तो भी शरद से यारी जैसी नहीं हो पाई थी. गाहे बगाहे उसके काम पर नजर
जाती थी, प्रदर्शनियों में उसके चित्र दिखाई देते, जिनमें हुसेन की स्पष्ट छाप होती थी. युवा शरद पर हुसेन का
जबर्दस्त प्रभाव पड़ा था. उससे बाहर आने में उन्हें काफी समय लगा.
सन 1992 या 93 की बात है. मैं ‘नवभारत टाइम्स’ के लखनऊ संस्करण में आठ साल काम करने के बाद
फिर ‘स्वतंत्र भारत’ में आ गया था. एक दिन
हमारे सहकर्मी ललित मिश्र ने, जो शरद के पुराने मित्र थे, मुझसे कहा कि शरद अपने नए काम पर एक एक्जीबिशन करने वाले
हैं. वे चाहते हैं कि आप उनके फोल्डर के लिए कुछ लिख दें. मैं बड़े संकोच में पड़
गया. मैं साहित्य और रंगमंच पर तो अखबार के लिए काफी लिखा करता था लेकिन पेण्टिंग पर
मेरी वैसी गति न थी. मैं प्रदर्शनियां देखता था, पेण्टिंगों को सराहा करता
था लेकिन उन पर लिखने की तमीज न थी. इसलिए मैंने टालने की कोशिश की मगर ललित आग्रह
करते रहे तो मैंने कह दिया कि बिना पेण्टिंग देखे कैसे कुछ लिखा जा सकता है.
चंद रोज बाद ही ललित ने दफ्तर में एक लिफाफा
मेरी मेज पर रख दिया. उसके भीतर शरद की नईं पेण्टिगों की छोटी-बड़ी कई तस्वीरें
थीं. पहली नजर में ही उन चित्रों ने मेरी सम्वेदना को झिंझोड़ दिया. उन चित्रों की
थीम मेरे सबसे ज्यादा नाजुक संवेदना-तंतुओं को छूती थी. मैंने चित्र वापस लिफाफे
में डाले और उन्हें घर ले आया. घर की मेज पर वे चित्र कई दिन खुले पड़े रहे. जितनी
बार उन पर नजर जाती मेरे मन में उथल-पुथल मच जाती. उन चित्रों के कला पक्ष से कहीं
ज्यादा उनकी थीम ने मुझे जकड़ रखा था. मैं समझ गया था कि शरद ने उन पर कुछ लिखवाने
के लिए मुझे क्यों चुना होगा. अपने संकोची स्वभाव के कारण मुझसे सीधे नहीं कह पाए
होंगे तो ललित की मदद ली.
शरद की वह चित्र- श्रृंखला उत्तराखण्ड की महिलाओं के
निपट अकेलेपन और लम्बे इंतजार को बहुत गहराई तथा सम्वेदना के साथ पकड़ती है.
अल्मोड़ा में ससुराल होने के नाते शरद अक्सर अल्मोड़ा-रानीखेत में समय बिताया करते
थे. यदा-कदा ग्रामीण इलाकों की तरफ भी जाना हुआ होगा. उत्तराखण्ड की पुरुष आबादी
पढ़ाई से लेकर नौकरी तक के लिए मैदानी शहरों की ओर पलायन के लिए अभिशप्त रही है.
गांवों-कस्बों में बची रह जाती हैं किशोरियां-युवतियां-बूढ़ियां, जिनके हाड़-मांस खेतों-जंगलों के कठिन श्रम से गलते हैं तो
आंखें भाइयों-बेटों-पतियों के इंतजार में थकती रहती हैं. सूने मकान की खिड़की या
दरवाजे पर खड़ी अकेली पहाड़ी युवती की आंखों में बसे अनंत इंतजार को शरद की कूची ने इतने
दर्द के साथ पकड़ा है कि पहाड़ की इस बड़ी समस्या पर खूब कलम चलाने वाला यह लेखक भी
गहरे बिंध गया था. उन चित्रों में भारी पत्थरों से चिने गए मकान हैं, पत्थर की स्लेटों वाली ढलवां छतें हैं, आंगन में एक-दो जानवर बंधे हैं और हलकी नक्काशी वाली लकड़ी
की बड़ी खिड़की और दरवाजे से कहीं दूर देखती एक अकेली (किसी–किसी में दो) युवती है. चेहरे सुंदर हैं परन्तु उन पर गहरी उदासी पसरी है. आंखों
में इंतजार है जो खत्म होने को नहीं आ रहा. पेण्टिंग्स का सम्पूर्ण परिवेश अपने
स्ट्रोक्स और शेड्स के साथ पहाड़ की स्त्रियों के दुख-दर्द भरे जीवन को उकेरता और
सम्प्रेषित करता है. उन चित्रों में सन्नाटा, इंतजार और उदासी बहुत मुखर
है. शरद ने अपनी पहाड़ यात्राओं में वहां
की स्त्रियों के इस दर्द को निश्चय ही भीतर तक महसूस किया होगा.
बहरहाल, मैंने इसी को फोकस करते हुए
बड़े मन से ढाई-तीन सौ शब्द लिख कर ललित के हाथ भिजवा दिए थे. प्रदर्शनी के लिए
फोल्डर छपा जिसमें शरद के चंद चित्रों के साथ वे पक्तियां मेरे नाम से प्रकाशित
हुई थीं. प्रदर्शनी का निमंत्रण लेकर शरद खुद आए थे. “भाई साहब, धन्यवाद क्या कहूं” जैसा कुछ उन्होंने कहा था शायद. बोलते
ही कहां थे ज्यादा लेकिन उसके बाद हमारा सम्पर्क बढ़ा और बोल-चाल भी. तभी पता चला
था कि पेट की उनकी और मेरी बीमारी लगभग एक जैसी है और पीजीआई में डॉक्टर भी एक ही
हैं जिनसे हम इलाज करा रहे थे. फिर तो बीमारी भी बातचीत और सम्पर्क का बहाना बन
गई.
सन 2005 में जब मेरा उपन्यास 'दावानल' प्रकाशित हो
रहा था तब उसके आवरण पर विचार करते हुए शरद के उन्हीं चित्रों की बरबस याद हो आई. 'दावानल' का एक कथा-पक्ष पहाड़ की स्त्रियों के अथाह कष्टों और पुरुषों के पलायन से
उपजे उनके दर्द को सामने रखता है. मैंने ससंकोच शरद को फोन किया. चंद ही रोज में
वे मिलने चले आए. साथ में उसी श्रृंखला के तीन-चार चित्रों के प्रिण्ट भी लाए थे.
मैंने उन्हें 'दावानल' का कथा पक्ष सुनाया और बताया कि क्यों उसके आवरण पर आपका
चित्र देने का विचार मेरे मन में आया. उन्होंने खुशी जताई और साथ लाए चित्रों में से एक छांट कर मेरे सामने रख दिया- ‘मेरे ख्याल से यह ठीक
रहेगा.’ मुझे वह चित्र सटीक लगा. पहाड़ की एक प्रौढ़ा स्त्री
के चेहरे का क्लोज-अप, आंखों में वही अंतहीन-सी प्रतीक्षा और चेहरे में
दबी-ढकी पीड़ा.
मैंने उनसे सलाह ली कि आपकी पेण्टिंग को केंद्र
में रख कर यदि उसके चारों तरफ पहाड़वासियों और जंगल पर उनकी निर्भरता दिखाते कुछ शेत-श्याम
फोटो संयोजित किए जाएं तो कैसा रहेगा. उन्हें यह सुझाव पसंद आया. दरअसल, मेरे पास बहुत पुराने कुछ फोटो थे, जो मैंने बचपन और किशोरावस्था
की पहाड़ यात्राओं में अपने क्लिक-थ्री कैमरे से खींचे थे. कुछ मित्रों के चित्र भी
मेरे संकलन में थे. इन तस्वीरों को देख कर शरद उत्साहित हो गए. उन्होंने अपने एक
डिजाइनर मित्र रुपेन्द्र रौतेला का जिक्र किया और कहा कि उनके पास चलते हैं. रुपेन
इसका सुंदर संयोजन कर देंगे. फिर एक दिन हम रुपेन के स्टूडियो गए और उनसे बात की
कि हम क्या चाहते हैं. उसके बाद शरद और रुपेन कई बार बैठे और किताब के आवरण के
कम्पोजिशन पर कुछ विकल्प तैयार किए. मुझे तो बस, एक-दो फाइनल डिजाइन ही
दिखाए, लेकिन मैं जानता हूँ कि उस पर दोनों ने काफी
मेहनत की थी. खैर, ‘दावानल’ जब छप कर आया तो उसका आवरण
वास्तव में खूबसूरत लगा. आवरण का पूरा विस्तार और संयोजन उपन्यास के कथा-संसार का
सटीक प्रतीक है. शरद को जब मैंने पुस्तक भेंट की तो वे बहुत प्र्सन्न हुए. बाद में
उपन्यास पढ़ कर उन्होंने उसकी तारीफ भी की. यह भी कहा कि मेरे लिए उपन्यास या मोटी
किताबें पढ़ना असम्भव-सा काम है लेकिन आपकी किताब मैं पूरी पढ़ गया.
‘दावानल’ पढ़ने के बाद उनके मन में
गिर्दा से मिलने की इच्छा हुई थी. 'गिर्दा जी लखनऊ आएं तो मेरी भेंट कराइएगा'- उन्होंने कहा था. दो या तीन साल बाद इसका संयोग भी बना. शरद ने युवतियों के चेहरों पर एक और चित्र-श्रृंखला तैयार की थी. इन युवतियों के चेहरे पर भी पहाड़ीपन की झलक है लेकिन ये नायिकाएं
उदास, निरंतर प्रतीक्षारत और उपेक्षित नहीं हैं. वे
अकेली हैं लेकिन उनकी आंखों और चेहरे की भंगिमाओं में इंतज़ार की बजाय एक बिन्दासपन
है, अल्हड़ता-सी है और आमंत्रण-जैसा भी. अगर मुझे ठीक
याद है तो इस सीरीज में पचासेक पेंटिग्स हैं और सबमें फोकस चेहरे पर ही है.
उड़ते-बिखरे बालों से लेकर गर्दन तक. कुछ चेहरे सिर्फ ठोड़ी तक ही हैं. कभी वे एक ही
युवती के विभिन्न स्केच-जैसे मालूम देते हैं, कभी अलग-अलग युवतियों के
पोर्ट्रेट. तीखी नाक वाले कुछ चेहरे रोली के
लम्बे टीके से सुसज्जित है, जो उनमें पहाड़ीपन की खास झलक देता है. कुछ चेहरे
सिर्फ छोटी-सी बिंदीनुमा टीके में हैं. ठोड़ी
में टिकी अंगुलियों में एक अंगूठी भी दिखती है. माथे पर बेंदा, तीखी नाक में दोनों तरफ चौड़े माथे वाली कीलें और बीच में
बुलाकी, जो होठों तक लटकती है. गले में भारी हंसुली भी. किसी
में बड़ी-सी नथ पूरे चेहरे पर छाई हुई. किसी पर शानदार पगड़ी भी. कभी लगता कि शरद
चेहेरे के विविध श्रृंगारों की सीरीज रच रहे हैं. वर्षों पहले देखे होने के बावजूद
मुझे उन चेहरों की बारीकियां याद हैं. याद रहने का एक कारण यह भी है कि उस सीरीज
की एक पेण्टिंग मेरे घर में बैठक की दीवार पर शोभायमान है.
इस श्रृंखला की प्रदर्शनी का जिस दिन उद्घाटन होना
था, संयोग से गिर्दा लखनऊ में थे. मेडिकल कॉलेज से
उनकी गठिया का इलाज चल रहा था. उसी सिलसिले में लखनऊ आए हुए थे. मैं गिर्दा को
लेकर लाल बारदारी पहुंचा तो शरद बहुत ख़ुशी
और गर्मजोशी से गिर्दा से मिले. गिर्दा ने स्वभावत: गले लगाकर शरद को प्यार किया और
कहा था कि ‘दावानल’ से ही आपका परिचय मिल गया
था. प्रदर्शनी देखने में भी गिर्दा ने काफी समय लगाया. चलते समय शरद ने वहां मौजूद एक छायाकार मित्र से
गिर्दा के साथ फोटो खींच देने का अनुरोध किया. हम तीनों- शरद, गिर्दा और मेरी वह तस्वीर शरद ने अपनी फेसबुक
वॉल पर भी लगाई थी और गिर्दा के न रहने पर उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप उसी फोटो को
शेयर किया था.
उस दिन शरद ने मुझसे कोई एक पेण्टिंग अपने लिए
खास तौर पर पसंद कर लेने को भी कहा था. जो चित्र मैंने छांटा था, वह आज भी मेरे घर की दीवार पर शरद की नियमित याद दिलाता हुआ
टंगा है. प्रदर्शनी समाप्त होने के दूसरे-तीसरे दिन शरद उसे सहेजे हुए मेरे दफ्तर
पहुंच गए थे. इसी श्रृंखला का एक और चित्र वे पहले भी मुझे फ्रेम करकर दे चुके थे. ‘दावानल’ के आमुख पर प्रकाशित पेण्टिंग तो उन्होंने
फ्रेम कराकर मुझे दी ही थी. उनकी ये तीनों ही पेण्टिंग मेरे घर में टंगी हैं.
हफ्ते-दस दिन में हमारी बात जरूर होती थी.
ज्यादातर शरद ही फोन करते और औसतन महीने में एक बार मिलने आ जाते. फोन करने के बाद और पान
चुभलाते हुए दफ्तर पहुंच जाते. एक-दूसरे की सेहत का हाल पूछने के बाद हम एक-दूसरे
के काम पर बातें करते. इन्ही मुलाकातों में उन्होंने मुझे बताया कि वे अमिताभ
बच्चन पर एक सिरीज कर रहे हैं. अमिताभ उनके पसंदीदा फिल्मी हीरो थे. अमिताभ पर
उनकी प्रदर्शनी काफी चर्चित रही थी.
शरद को फिल्में बहुत पसंद थीं, आम बम्बइया फिल्में. यही वजह रही कि उन्होंने भारतीय सिनेमा
के सौ साल पूरे होने पर बहुत सुंदर चित्र-श्रृंखला बनाई. इस बारे में हम खूब बातें
करते और उन दिनों में चले जाते जब सिनेमा का टिकट खरीदने के लिए सिनेमाघर के बाहर एक छेदनुमा खिड़की
के सामने लाइन लगानी पड़ती. अपनी बारी आने पर हथेली में टिकट के पैसे रख कर हाथ
भीतर डालना पड़ता था. भीतर बैठा आदमी हथेली पर एक मोहर छाप देता. यही सिनेमा का
टिकट होता, जिसे पसीने से गलने से बचाने के लिए हम हथेली
फैलाए-सुखाए रखते.
सिनेमा हॉल का दरवाजा खुलने तक पोस्टर के मजे
लिए जाते. आने वाली फिल्मों के चंद पोस्टर सबसे ज्यादा भीड़ खींचते. इसी दौरान कुछ लोग जमीन पर बैठ कर कान से मैल निकलवाया करते.
सिनेमा हॉल के बरामदे ‘कनमैलियों’ के खास अड्डे होते. यह
हमारी पीढ़ी के बचपन की मजेदार यादें हैं. शरद ने सिनेमा देखने जाने का यह सारा रोचक विवरण बहुत बारीकी
से अपनी रेखाओं में पकड़ा है. जिन दिनों वे इस पर काम कर रहे थे, उन दिनों हमारे दफ्तर आते तो अपने साथ कुछ स्केच लेते आते.
फिर हम उन पर बातें करते और शरद यह जरूर पूछते– कैसा रहेगा?
सिनेमा पर प्रदर्शनी का समय आया तो शरद ने कई
बार मुझसे उसका शीर्षक सुझाने को कहा. एक दिन अचानक गाड़ी चलाते हुए मुझे शीर्षक सूझ
गया- “सौ का सनीमा”. उस दौर में आम बोल-चाल में ‘सनीमा’ ही बोला जाता था. दफ्तर पहुंचते ही मैंने शरद को फोन पर
शीर्षक सुनाया. उन्हें पसंद आ गया. मैंने खास तौर पर कहा कि “सौ का सनीमा” लिखिएगा, ‘सिनेमा’ नहीं. लेकिन प्रदर्शनी के निमंत्रण कार्ड में
“सौ का सिनेमा” छपा था. मैंने शरद से कहा तो बोले थे कि सेकेण्ड पार्ट में ठीक कर
देंगे. सिनेमा के इतिहास के बारे में शरद के मन में इतना भरा था कि एक प्रदर्शनी से
सब पकड़ में नहीं आ रहा था. खैर, प्रदर्शनी के दूसरे भाग में भी शीर्षक “सौ का
सिनेमा” ही रहा. मैं नहीं कह सकता कि यह भूलवश हुआ था या कि उन्हें “सनीमा’ जंचा नहीं था.
इधर दो-ढाई साल से हमारी मुलाकातें बहुत कम हो
गई थीं. मुख्य कारण मेरा रिटायर होना और फिर एक साल के लिए पटना चला जाना था. लगातार
अस्वस्थ रहने के कारण जून 2015 में मैंने पटना छोड़ दिया. लखनऊ लौटने के बाद भी
सामाजिक सक्रियता नहीं के बराबर रह गई. शरद से फोन पर यदा-कदा बात हुई और एक-दो आयोजनों में संक्षिप्त भेंट. सेहत के बारे
में पूछा तो उन्होंने ‘ठीक है’ कह कर बात टाल दी थी. अपनी
अल्सरेटिव कोलाइटिस बीमारी के बारे में इधर मुझे वे कुछ लापरवाह लगे थे.
बीमारी नियंत्रण में तो थी लेकिन नियमित चेक-अप करवाना शायद उन्होंने छोड़ दिया था.
पिछले जून मास में एक सुबह अखबार से उनके अस्पताल में भर्ती होने
की सूचना मिली. फिर जल्दी ही देहांत की. गुप-चुप फैले आंत के कैंसर ने उन्हें
ज्यादा मौका न दिया. उन दिनों मैं भी बीमार पड़ा था, इतना कि उनसे मिलने अस्पताल जा सका न अंतिम विदाई के वास्ते.
दीवार पर टंगी पेण्टिंग शरद की याद दिलाती रहती है. अत्यंत सरल और संकोची एक दोस्त
और बहुत सम्भावनाशील एक कलाकार बहुत कम उम्र में चला गया.
क्रूर काल को यह फैसला करने की तमीज कभी नहीं आई
कि इस व्यक्ति ने हमारी दुनिया को अभी कितनी सुंदर चीजें देनी हैं.
3 comments:
शरद का सजीव चित्रण
Bahut Sundar.
Naveen ji,Thank you very much for sharing your memories with Sharad Bhai. He was a true artist by all means and you have described 'SHARAD' very well in simple words. He remain always special with Lucknow's Art Circle though he also had earned respect and identity in Delhi's Art circle also for his works and his simplicity.
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