ग्रामीण
किशोरों-युवाओं की बेशुमार भीड़ शहरों की तरफ दौड़ी चली आ रही है. काली कमाई से
चौतरफा खुले निजी कॉलेजों में किसी भी कीमत पर दाखिला लेते इन बच्चों में आधुनिक
जीवन की सारी चकाचौंध जल्द से जल्द अपने जीवन में उतार लाने के सपने हैं. वे यह
नहीं देख रहे कि उनमें सम्भावनाएं क्या हैं, क्या वे बेहतर कर सकते हैं और क्या उनकी
विशेषताएं हैं. वे सिर्फ एक दौड़ लगा रहे हैं, इंजीनियर बनने
की भेड़ चाल. बेशुमार खुलते जा रहे इंजीनियरिंग कॉलेजों में बीटेक में बहुत आसानी
से दाखिला हो जाता है. पढ़ने वालों से ज्यादा सीटें हैं. बस,
फीस भरने को पैसा चाहिए. सो, कर्जा लेकर, खेत बेच कर या गिरवी रख कर गांवों से बच्चे चले आ रहे हैं इंजीनियर बनने
को. इनमें लड़कियों की संख्या भी बहुत है. अच्छी बात है कि मध्य और निम्न मध्य वर्ग
के परिवारों में लड़कियों को पढ़ाने की चेतना फैली है. लेकिन सवाल यह कि क्या पढ़ाई
और कैसी पढ़ाई? ज़्यादतर बच्चे बीटेक की जो डिग्री हासिल कर
रहे हैं वह किसी काम की नहीं. बड़े-बड़े पैकेज वाले कम्प्यूटर इंजीनियर की नौकरी का
गुब्बारा फूटे जमाना हो गया. जो बचा है वह आईआईटी या चंद नामी संस्थानों से निकलने
वालों के हिस्से आता है. सामान्य कॉलेजों की बीटेक की डिग्री पांच हजार रु महीने
की नौकरी नहीं दिला पा रही. अच्छी शिक्षा भी वह हर्गिज नहीं है. नतीजा यह कि
पढ़े-लिखे कहलाने वाले बेरोजगार बढ़ रहे हैं. उसी अनुपात में
कुंठा और हताशा भी. इन्हें देख कर उस परिंदे की याद आती है जिसने ऊंचे उड़ने की
गफलत में अपने पंख खुद ही नोच डाले.
जो बच्चे एक अंधी दौड़ में उच्च शिक्षा के लिए शहरों की तरफ
आ रहे हैं उनमें से कई एकाएक मिली आजादी में संतुलन न बना पाने के कारण
मनोवैज्ञानिक दवाबों और यौनाचारों का शिकार बन रहे हैं. ग्रामीण पृष्ठभूमि और
तथाकथित संस्कारी परिवारों से आने वाली लड़कियां शहरों में हॉस्टल या पीजी लाइफ में
आसानी से शारीरिक और अन्य शोषणों में फंस रही हैं. जब तक वे बॉयफ्रेण्ड या प्रेम
का अर्थ समझ पाती हैं तब तक उसमें गहरे धंस चुकी होती है. सिगरेट और नशे की लत के
शिकार कम उम्र लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. शहरों में बढ़ते भांति-भांति के
अपराधों में युवाओं की सलंप्तता इसका प्रमाण है. हमें कोई आश्चर्य नहीं हुआ था जब
चार वर्ष पहले की एक रिपोर्ट में गर्ल्सं हॉस्टल के बाहर की गुमटी में सबसे महंगी
लेडीज सिगरेट और हर तरह के नशे बिकते पाए गए थे.
खेती और अन्य परम्परागत धंधों के साथ ही अपने इलाके में
नए-नए व्यवसायों को विकसित करने में युवाओं की तनिक भी दिलचस्पी न होना हमारे समय
की एक और त्रासदी है. दोष युवाओं को देना ठीक नहीं होगा. शिक्षा की दिशा ही ऐसी
नहीं रही. उच्च शिक्षा प्राप्त चंद युवाओं ने गांव, खेती और परम्परागत
व्यवसायों को नए जमाने के अनुरूप अपना कर साबित किया है कि इस क्षेत्र में अपार
सम्भावनाएं मौजूद हैं. लेकिन यह धारा के विरुद्ध बहना अपवाद स्वरूप ही दिखाई दे
रहा है. बदलाव की तेज रफ्तार इस दिशा में नहीं जा रही.
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