इन दिनों ट्रैफिक पुलिस शहर
के कई चौराहों-सड़कों पर बहुत मेहनत कर रही है. हज़रतगंज क्षेत्र के चौराहों पर जहां
सामान्यत: एक-दो सिपाही ही दिखाई देते थे, आजकल आधा दर्जन से ज्यादा जवान तैनात
हैं. पुलिस और होमगार्ड के अतिरिक्त जवान भी बुलाए गए हैं. ट्रैफिक का नया प्लान
बनाया गया है. कुछ सड़कों को वन-वे करके वहां सिपाही तैनात किए गए है. इस तरह की
मुस्तैदी पहले नहीं देखी गई जिसका नतीजा यह हुआ कि जनता ने ट्रैफिक की तमीज सीखी
ही नहीं. बिगड़े शहरियों को यह सलीका सिखाने में अब ट्रैफिक पुलिस के पसीने छूट रहे
हैं. वैसे उनके सारे अच्छे प्रयोगों पर पानी फेरने के लिए हमारे वीवीआईपी काफी हैं
जो ट्रैफिक नियम तोड़ने और कर्तव्यनिष्ठ अफसरों को अपमानित करने में अपनी शान समझते
हैं.
खैर, यहां हमारी चिंता का
मुद्दा वह खबर है कि 60 ट्रैफिक पुलिस वालों ने एक साथ छुट्टी की अर्जी दी है और
सभी ने खराब सेहत को इसका कारण बताया है. जिस मुस्तैदी से पिछले एक मास से ट्रैफिक
पुलिस ड्यूटी दे रही है उसमें इतने लोगों का बीमार हो जाना आश्चर्य नहीं, जबकि उनके पास प्रदूषण से
बचने के लिए मास्क हैं न ही पैरों में बांधने के लिए पट्टियां. चौराहों पर तैनात
सिपाही सबसे ज्यादा प्रदूषण झेलते हैं. मुख्यमंत्री के नए सचिवालय के निर्माण के
कारण हज़रतगंज, रॉयल होटल और लालबाग इलाके की हवा ज्यादा ही प्रदूषित है.
सोचिए कि आठ-दस घंटे खड़े-खड़े इन इलाकों में ड्यूटी देने वाले तैनात ट्रैफिक जवानों
के फेफड़ों में क्या कुछ नहीं भर रहा होगा. इससे बचने के लिए उन्हें मास्क देना
अनिवार्य है लेकिन बताया गया है कि मास्क खरीदने के लिए विभाग के पास बजट नहीं है.
इस समय लखनऊ में एक ट्रैफिक इंस्पेक्टर, 23
सब-इंस्पेक्टर और 156 सिपाही तैनात हैं. जरूरत के हिसाब से तीनों पदों पर अभी 718
लोगों की कमी है. जो 180 स्टाफ अभी तैनात है उसके ही लिए मास्क खरीदे जाएं तो 50
रु प्रति मास्क की दर से कुल नौ हजार रु चाहिए. हर महीने एक नया मास्क लगाना पड़े
तो भी सालाना कुल एक लाख आठ हजार रु चाहिए. इतने ही होमगार्ड भी ट्रैफिक ड्यूटी पर
तैनात हों तो कुल दो लाख सोलह हजार रु खर्च होंगे. लेकिन इनकी सेहत के लिए दो लाख
सोलह हजार रु का सालाना बजट भी उपल्ब्ध नहीं है. क्या कहा जाए? सैफई महोत्सव से लखनऊ महोत्सव तक कितना बजट उड़ा होगा? कितनी रकम मंत्रियों के काफिलों की बेहिसाब गाड़ियों के पेट्रोल-डीजल पर उड़ती
होगी? पुलिस महकमे में ही कितनी फिजूलखर्चे होती है?
खड़े-खड़े लम्बी ड्यूटी देने वालों की एक और बड़ी समस्या ‘वेरिकोज
वेन’ है जिसमें पैरों की नसों में गुच्छे बन जाते हैं. इससे
बचने के लिए एड़ी से घुटने तक पट्टी बांधी जाती है ताकि पैरो में रक्त प्रवाह बराबर
बना रहे. कैण्ट में तैनात सैनिकों को आप यह पट्टी बांधे देख सकते हैं. कोई 20-25
वर्ष पहले तक ट्रैफिक पुलिस को भी वर्दी के साथ ऐसे पट्टे मिलते थे. इनकी लागत
ज्यादा नहीं होती.
वीआईपी काफिलों और लाल-नीली बत्ती वाली गाड़ियों के लिए
रास्ता साफ रखने और उन्हें सलाम ठोकने वाले ट्रैफिक सिपाहियों की चिंता कोई नहीं
करता. मीडिया भी ट्रकों से वसूली करते उनके स्टिंग दिखाता है. शासन-प्रशासन की नजर
संवेदनशील हो तो बड़ा बजट देना भी मुश्किल नहीं. यहां तो महज दो लाख रु का सवाल है.
यह भी जो नहीं दे रहे वे बड़ा अपराध कर रहे हैं. अगर सुन रहा हो कोई!
(नभाटा, 12 फरवरी 2016)
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