Sunday, February 07, 2016

यूपी में महागठबंधन यानी बिहारी बदले की चाल

तो, बिहार की तर्ज़ पर यू पी में भी एक महागठबंधन बनाने की शतरंजी चाल चली जा चुकी है. प्रकट रूप में यह महागठबन्धन यू पी विधान सभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला करने के लिए होगा लेकिन इसका असली मकसद मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से राजनीतिक बदला लेना है. 
जनवरी के अंतिम दिन जद (यू) के राष्ट्रीय अध्य्क्ष शरद यादव ने लखनऊ में महागठबंधन की अनौपचारिक घोषणा की और उसके दो दिन बाद नीतीश कुमार ने यू पी में अपनी पहली जनसभा करके उस तरफ कदम भी बढ़ा दिए. नीतीश ने सभा के लिए जौनपुर को चुना. जौनपुर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी का ठीक पड़ोसी है. सभा में उन्होंने प्रकारान्तर से हमला भी भाजपा और मोदी पर किया और सपा को बख्श दिया. मगर नीतीश कुमार यूपी में भाजपा को टक्कर देने की स्थिति में नहीं हैं. यह कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना वाला मामला है. उनका निशाना मुलायम हैं.
इस राजनीतिक बदले की भूमिका बिहार चुनाव के दौरान ही लिखी जा चुकी थी. मुलायम सिंह यादव ने बिहार में जद (यू)-राजद-कांग्रेस महागठबंधन का साथ छोड़ कर, तीसरा मोर्चा बनाकर अलग से चुनाव लड़ने का दांव खेला था. तभी तय हो गया था कि यू पी के चुनाव में महागठबंधन भी पलटवार करेगा जरूर.
शरद यादव इसीलिए साफ कर गए थे कि यू पी के महागठबंधन समाजवादी पार्टी को शामिल नहीं किया जाएगा और विधान सभा के उपचुनावों (13 फरवरी) में अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल का समर्थन किया जाएगा. रालोद के महागठबंधन में शामिल होने की पुष्टि बीती बुधवार को नई दिल्ली में नीतीश कुमार और अजित सिंह के बेटे जयंत चौधरी की मुलाकात में हो गई. जयंत को जिम्मेदारी दी गई है कि वे उत्तर प्रदेश में महागठबंधन को मजबूत बनाने का काम करें.
जौनपुर में सभा के दूसरे ही दिन दिल्ली जाकर नीतीश ने महागठबन्धन के सम्भावित दलों की तलाश शुरू कर दी थी. साफ है कि मामला सिर्फ जुबानी जमा खर्च तक सीमित नहीं है. वे अजित सिंह के घर पर शरद यादव के साथ जयंत से मिले. फिर अपना दल की नेता कृष्णा पटेल और पीस पार्टी के डा अयूब से भी नीतीश की भेंट हुई.
रालोद को छोड़कर बाकी से बातचीत का खास मतलब नहीं है. भाजपा से गठबन्धन कर सांसद बनी अनुप्रिया पटेल से विवाद के बाद उनकी मां कृष्णा पटेल अपना दल में हाशिए पर चली गईं हैं. कुछ वर्ष पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में लोकप्रिय रही डा अयूब की पीस पार्टी भी अब लुटी-पिटी है. पिछले विधान सभा चुनाव में उनके पांच विधायक जीते थे जिनमें से चार अब समाजवादी पार्टी के साथ हैं. कृष्णा पटेल और डा अयूब दोनों ही अपने लिए बेहतर मंच की तलाश में हैं. वे महागठबंधन को कुछ देने की स्थिति में नहीं.
जद (यू) और राजद बिहार में व्यापक जनाधार वाली पार्टियां हैं लेकिन यूपी में उनका कोई आधार ही नहीं है. जो हाल सपा का बिहार में है वहीं इनका यूपी में है. बिहार में बड़ी विजय दर्ज कर लेने के बाद नीतीश कुमार का कद राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ा जरूर लेकिन यू पी के पिछड़ों या कुर्मियों में उनकी छवि चुनाव जिताऊ नहीं है. इसलिए लालू-नीतीश से भी यू पी में महागठबंधन को कोई मजबूती नहीं मिलने वाली.
रालोद के अलावा महागठबंधन में प्राण फूकने वाली पार्टी कांग्रेस ही हो सकती है. हालांकि यूपी कांग्रेस खुद अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है लेकिन अपने रहे-बचे वोट प्रतिशत से भी वह महागठबंधन को एक पहचान दे सकती है. मगर यह बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस इस गठजोड़ का हिस्सा बनेगी? राहुल बिहार में भी स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना चाहते थे. वहां सोनिया और लालू की पुरानी राजनीतिक दोस्ती के कारण राहुल को झुकना पड़ा था. यूपी में ऐसी कोई मजबूरी राहुल के सामने नहीं है. यूपी के कांग्रेसी भी किसी से गठबंधन नहीं करना चाहते. फिलहाल कांग्रेस की सारी तैयारियां अकेले चुनाव लड़ने की हैं और इस बार उसने प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया साल भर पहले से शुरू कर दी है.
सपा और बसपा यूपी में दो बड़ी राजनीतिक ताकतें हैं जिनके पास मजबूत जनाधार है. लोक सभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय के बाद स्वाभाविक रूप से भाजपा भी यहां बड़ी दावेदार बन गई है. तिकोने मुकाबले तय हैं. कई सीटों पर कांग्रेस चौथी ताकत बनेगी. इसके बाद महागठबंधन के लिए कितनी गुंजाइश बचेगी?
बिहार में चुनावी लड़ाई सीधे-सीधे दो गठबंधनों में सिमट गई थी. जिससे मुलायम का तीसरा मोर्चा मैदान से ही गायब हो गया. यूपी में अगर मुकाबला त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय हुआ तो एक-एक वोट की बड़ी कीमत होगी. तब शायद महागठबंधन नुकसान पहुंचाने के स्थिति में होगा.
अभी तो साल भर में बहुत से समीकरण बनेंगे-बिगड़ेंगे. फिलहाल नीतीश और शरद नाम के लिए एक महागठबन्धन तो यू पी में खड़ा कर ही सकते हैं. इसकी शुरुआत उन्होंने कर दी है.
मगर मुलायम सिंह यादव को इस पहल से कोई चिंता नहीं है. उन्होंने इसका नोटिस तक नहीं लिया. उनका ध्यान खींचने को मायावती और अमित शाह की चालें ही काफी हैं.
(बीबीसी.कॉम, 07 फरवरी, 2016)








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