क्या ऐसा नहीं हो सकता कि गांवों का चौतरफा विकास हो. वहां सारी सुविधाएं दीजिए, बिजली-पानी-सड़क आदि ही नहीं अच्छे स्कूल-अस्पताल, बेहतरीन नेट-कनेक्टिविटी के साथ रोजगार के बेहतर अवसर भी. ऐसा कीजिए कि महानगर से आजिज लोग अपने गांवों-कस्बों की ओर लौटना चाहें. शहरों की बदहाली से आजिज लोग आज सुकून की तलाश में गांवों की तरफ लौटना चाहते हैं. लौट इसलिए नहीं पाते कि वहां जीवन के लिए ज़रूरी सुविधाएं नहीं हैं. गांव के साफ हवा-पानी और पौष्टिक मोटे अनाजों के लिए महानगरों के लोग तरसते हैं लेकिन वहां अच्छी चिकित्सा,
शिक्षा, परिवहन, जैसी बेहद ज़रूरी सुविधाओं का रोना भी रोते हैं.
कोई पंद्रह-सोलह वर्ष पहले उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ शहर में तब नई-नई बनी हवाई पट्टी पर खड़ा मैं सोच रहा था कि ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि मैं पहाड़ के अपने घर में रहूं, सुबह तैयार होकर हवाई जहाज या हेलीकॉप्टर सेवा से लखनऊ जाऊं और दिन भर वहां काम करके रात फिर अपने गांव लौट आऊं. विकास की दिशा और दृष्टि ऐसी होती कि ग्रामीण मूल के हम सभी लोग ऐसा कर पाते. गोण्डा-बस्ती या चित्रकूट-बांदा की तरफ रहने वाले अपनी निजी कार या बेहतरीन सार्वजनिक बस या टैक्सी या मेट्रो रेल सेवा से विभिन्न शहरों-कस्बों में अपने-अपने काम पर जाते और शाम को लौट आते. बिजली, पानी और बढ़िया सड़कें गांवों तक होतीं और चुस्त सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था हर जगह सुलभ होती. हम प्राकृतिक सौंदर्य और अप्रदूषित वातावरण में अपने-अपने गांवों में सुकून से रहते. बच्चों के लिए वहीं बेहतरीन स्कूल कॉलेज होते, बीमारों के लिए सभी सुविधाओं से युक्त अस्पताल होते, मनोरंजन के विविध साधन और जरूरी बाजार भी.
गांवों में पेड़ों के नीचे और पहाड़ की चोटियों पर 4-जी नेटवर्क मिलता और हम अपने देहातों में बैठे पूरी दुनिया से जुड़े होते. फिर कॉल सेण्टर नोएडा, गुड़गांव में ही नहीं हरचंदपुर और सरायमीरा में भी खोले जा सकते. हर आवश्यक जरूरत आस-पास पूरी हो जाती तो क्यों लोग गांव छोड़ते. बड़े शहर भी विकसित होते लेकिन वे इस कदर अराजक और बरबाद नहीं होते और हर आदमी की रोजी-रोटी की दौड़ वहीं जाकर खत्म न होती. तब क्यों हमसे हमारी चिड़िया, हमारा आंगन, हमारा स्वाद और गीत-संगीत छिनते. तब आज हमारा यह जीवन, जहां सांस लेने के लिए शुद्ध हवा भी अब दुर्लभ है, इस कदर भयावह हरगिज नहीं होता.
यह सब आज सपने की तरह और असम्भव-सा जान पड़ेगा लेकिन सोचिए कि विकास की नजर शुरू से ही व्यक्ति और ग्राम केंद्रित होती तो क्या यह मुश्किल था. शुरुआत ही नहीं की गई, सोचा ही इस तरह नहीं गया. अगर यह देश गांवों का था तो विकास की अवधारणा और योजनाएं गांव केंद्रित क्यों नहीं बनाई गईं? सब कुछ शहर केंद्रित, बड़ी पूंजी आधारित, और एक खास वर्ग की नजर से होता चला आया, गांवों-ग्रामीणों की घनघोर उपेक्षा की गई और 68 साल में देखिए हम कहां पहुंच गए.
पिथौरागढ़ की हवाई पट्टी का किस्सा भी बता दूं. वह पर्यटकों को उत्तराखण्ड की तरफ आकर्षित करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने बनाई थी (तब उत्तराखण्ड का जन्म नहीं हुआ था) आज तक वहां कोई विमान नहीं पहुंचा. उस पट्टी पर जानवर विचरण करते रहे और अब नवम्बर 2015 में उत्तराखण्ड सरकार ने प्रयोग के तौर पर एक छोटा विमान वहां उतराने का सफल प्रयोग करके अपनी पीठ ठोकी है. इस बीच पहाड़ की असहाय-उपेक्षित आबादी मैदानों को पलायन करती रही और हजारों गांव उजाड़ होते चले गए.
दस वर्ष मानव इतिहास में कोई माने नहीं रखते लेकिन यात्रा उलटी या गलत दिशा में हो तो कहीं से कहीं पहुंचा देते हैं. हमने निश्चय ही तरक्की की है लेकिन उसके लिए अपना बहुत कुछ कीमती गंवा दिया है. अपनी जड़ों की ओर झांकते हुए लगता है कि हम एक बियबान में खड़े हैं. ‘रजिया सुल्तान’ फिल्म में लता मंगेशकर के गाए एक गीत की पक्तियां बरबस याद आ जाती हैं-
हम भटकते है, क्यों भटकते हैं दश्त-ओ-सहरा में/ ऐसा लगता है, मौज प्यासी है अपने दरिया में.
(फिलहाल समाप्त)
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