Friday, March 01, 2019

युद्धोन्माद की नहीं, विवेक की जरूरत है



जाँबाज विंग कमाण्डर अभिनन्दन को पाकिस्तान ने सकुशल लौटा दिया है. इस सद्भावना का स्वागत होना चाहिए. इससे सीमा के आर-पार तनाव कम होने की आशा है लेकिन टीवी के पर्दे पर ज्यादातर एंकर और विशेषज्ञ अब भी युद्धोन्मादी बने हुए हैं. उनकी चीखें और खोखली गर्जनाएँ अबोध जनता को उकसा रही हैं. वे मुँह की तोपों से पाकिस्तान को नेस्तनाबूद किये दे रहे हैं. शांति और संयम की बात करने वालों को गालियाँ देने से लेकर पाकिस्तान की गोद में बैठा देशद्रोही बताया जा रहा है. यह राजनीति ही नहीं, पत्रकारिता का भी बेहद गैर-जिम्मेदाराना दौर है.

काफी लम्बे समय से हमारी सेना, विशेष रूप से कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ रही हैं. लगभग हर हफ्ते हमारे बहादुर सैनिक शहीद होते हैं. पुलवामा में जो हुआ वह किसी का भी दिल दहला देने के लिए काफी था. पूरा देश गम और गुस्से में रहा. बदले की कारवाई की मांग होती रही. फिर बदले की कार्रवाई भी कर दी गयी.. पाकिस्तान ने भी जवाबी कार्रवाई की. सीमा पर तनाव है. इसे कम और खत्म करने के लिए राजनीति और मीडिया दोनों मंचों पर संयम और विवेक बरते जाने की जरूरत है.

आज की दुनिया राजा-महाराजाओं वाली पुरानी दुनिया नहीं है जब किसी छोटे-से मसले पर दो देश एक-दूसरे पर रातोंरात आक्रमण कर देते थे. हारने वाले देश पर कब्जा कर लिया जाता था. आज सीमित युद्ध की भी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है. जापान से पूछिए या अफगानिस्तान से या ईरान-इराक से या फिर फलस्तीन-इसरायल से. क्या युद्धों से उनकी समस्याओं का समाधान हो गया?

हमारी मुख्य लड़ाई आतंकवाद से है. पाकिस्तान उनका शरणदाता है लेकिन क्या आतंकवाद को सिर्फ युद्ध से खत्म किया जा सकता है? आतंकवाद पूरी दुनिया की विकराल समस्या बनी हुई है. अमेरिका जैसे शक्तिशाली और दादा देश ने सब करके देख लिया. आतंकवाद से निपटना सैनिक कार्रवाई के अलावा और अभी बहुत कुछ की मांग करता है.

युद्धोन्मादी आखिर सोचते क्या है? जैसे सड़क पर किसी की भीड़-हत्या से गोरक्षा हो जा रही है, वैसे ही आतंकवाद का सफाया हो जाएगा? सीमा पार की बात छोड़िए, ऐन कश्मीर में आतंकवादी हमारे लोकतंत्र, देश की सुरक्षा, आर्थिक प्रगति और सेना के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं. पाकिस्तान से हम एकाधिक युद्ध लड़ और जीत चुके. सतत लड़ ही रहे हैं. समाधान हुआ या समस्या विकराल होती गयी?

दुनिया के विभिन्न भू-भागों में सीमित युद्ध लड़े जा रहे हैं. इन्हें विकराल पूर्ण युद्धों में बदलने से रोकने के लिए निरंतर प्रयत्न हो रहे हैं. यही मान कर कि इससे समस्या हल नहीं होगी, मानव जाति भयानक विनाश अवश्य झेलेगी. युद्ध के विरुद्ध व्यापक स्तर पर आवाज उठती रही हैं. उठनी ही चाहिए. मनुष्य की विकास-यात्रा लड़-भिड़ कर खत्म हो जाने का इतिहास नहीं है.

दुनिया आज जहाँ पहुँची है, वह शांति, प्रेम, संयम और भाईचारे के रास्ते पहुँची है. सेनाओं की भूमिका भी आज युद्ध करने से ज्यादा अपनी ताकत और तैयारी से युद्ध टालने की रणनीति में है. लड़ाई का विरोध करने का अर्थ कायरता नहीं है. शांति और संयम की बात करना सेनाओं का मनोबल गिराना कैसे हो गया? यह गद्दारी कैसे हो गयी?

सेनाओं को अपना काम करने दीजिए. ऐसा वातावरण बनाने में मदद कीजिए जिसमें बुद्धि-विवेक से फैसले लिए जा सकें, भावातिरेक और उकसावे में मत आइए.  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 मार्च, 2019)

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