Saturday, March 09, 2019

मीडिया ने विश्वनीयता गँवा कर लोकतंत्र पर वार किया है.



भारतीय मीडिया की मुख्य धारा के बड़े वर्ग ने पिछले पाँच साल में अपनी विश्वसनीयता बहुत ज्यादा गँवाई है. हमारे मीडिया का मूल चरित्र वैसे तो कम-ज्यादा सत्तामुखी पहले से रहा है. इसके बावजूद सरकारों और प्रभावशाली नेताओं को कटघरे में खड़े करने की जरूरी जिम्मेदारी भी खूब निभाई जाती रही. कभी किसी घराने ने कुछ मुद्दे दबाने या विमर्श बदलने की कोशिश की भी तो दूसरे घरानों के मीडिया या फिर छोटे-छोटे जुझारू पत्रों ने पत्रकारिता का  झण्डा बुलंद रखा.

दूर न जाएँ तो यूपीए के शासन में, विशेषकर उसके दूसरे दौर में मीडिया ने बड़े घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले खूब उछाले. मंत्रियों के इस्तीफे हुए और जांच बैठीं. मीडिया के शोधों और तथ्यपरक रिपोर्टों का ही नतीजा था कि मामले अदालतों तक पहुँचे. सरकार के खिलाफ सख्त फैसले भी आये. सन्‍ 2014 में अगर नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार यूपीए शासन के घोटालों  पर मुख्य रूप से केंद्रित था, तो उसमें मीडिया की बड़ी भूमिका थी.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में भाजपा की बड़ी जीत के बाद मीडिया बदलने लगी. मोदी की टीम ने जिस तरह सघन चुनाव प्रचार किया, जो खूबसूरत सपने दिखाये और देश तथा सरकार की कार्यसंस्कृति में बड़े बदलाव की जो उम्मीद जगाई उसने भाजपा के पक्ष में लहर पैदा कर दी. जनता ने उन्हें भारी बहुमत दिया. स्वाभाविक था कि मीडिया उन्हें अपने वादे पूरे करने के लिए, बदलाव लाने के लिए कुछ समय देता. लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और मीडिया को अपना प्रमुख दायित्व निभाने का अवसर आया हमने पाया कि उसकी भूमिका बदली हुई है.

मीडिया में यह परिवर्तन दो तरह का है. पहला, भाजपा और आरएसएस की हिंदुत्व और राष्ट्रवादी लहर में उसका भी बहते जाना. भाजपा के बहुमत से सत्तारूढ़ होते ही सवर्ण प्रधान हमारे मीडिया ने भीतर से पहना हुआ भगवा चोला खुलेआम ऊपर से धारण कर लिया. कुछ अपनी मूल-प्रकृति से सवर्ण-हिंदू हैं जिनके संस्कार भाजपा के उभार के साथ उनके कर्म में खिल आये. सत्ता-मुखापेक्षियों को स्वभावत: इस लहर ने अपने रंग में रंग लिया. हमारा मीडिया अपनी भूमिका में इतना कट्टर हिंदू पहले नहीं था. 1990 में भाजपा के राम मंदिर अभियान से 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस तक के दौर भी मीडिया के एक हिस्से की हिंदू-कट्टरता देखने को मिली थी.

दूसरी तरह का परिवर्तन पत्रकारिता के मूल्यों के क्षरण का है. जिस मीडिया का मूल कर्तव्य जनता और विपक्ष की आवाज बनना है, वह क्रमश: सत्ता की भाषा बोलने लगा. मीडिया कर्मियों की पहली दीक्षा में यह घुट्टी की तरह पिलाया जाता था कि सत्ता-प्रतिष्ठान के पास अपने प्रचार के लिए विपुल साधन होते हैं. वह जब चाहे, जैसे चाहे अपनी बात मीडिया में प्रचारित करवाने में पूर्ण सक्षम होता है. इसलिए मीडिया को सबसे पहले जनता और प्रतिपक्ष की आवाज बनना चाहिए.  पत्रकार का पहला दायित्व प्रतिपक्ष होना है. यही उसकी निष्पक्षता और विश्वसनीयता का आधार है.

मोदी के सत्ता सम्भालने के बाद मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा यह दायित्व भूलता गया. मोदी को उनके बड़े-बड़े वादे याद दिलाना, नोटबंदी की भयानक मार, गोरक्षा के बहाने मुसलमानों पर जहाँ-तहाँ हो रहे हमले, धर्मनिरपेक्ष ताकतों का दमन, सिविल सोसायटी और संघर्षरत संगठनों पर पाबंदियाँ, तरह-तरह के उग्र हिंदू संगठनों की उद्दण्डता, संवैधानिक संस्थाओं का चरित्र बदलने के लिए संघी घुसपैठ, विश्वविद्यालयों, विज्ञान तथा इतिहास संस्थानों की स्वायत्तता पर हमले, अल्पसंखय्कों में भय का वातावरण, येन-केन-प्रकारेण हर चुनाव जीतने की अलोकतांत्रिक तिकड़में, बढ़ती महंगाई, घटते रोजगार, आर्थिक मोर्चे पर कुछ बड़ी असफलताएँ, किसानों से वादाखिलाफी, जैसे कितने ही मुद्दे हैं जिन पर मीडिया को मोदी सरकार को कटघरे खड़ा करना चाहिए था.

सवाल पूछने और शोध करके तथ्य जनता के सामने रखने की बजाय मीडिया का बड़ा हिसा इन मुद्दों को भुलाता या सत्ता पक्ष के कोण से प्रस्तुत करता रहा. किसी पत्रकार ने ये जरूरी मुद्दे उठाने की कोशिश की भी तो उसे प्रताड़ित किया गया. मीडिया घरानों पर दवाब बनवा कर ऐसे पत्रकारों को निकलवा दिया गया. उदाहरण के लिए ईपीडब्ल्यू के तत्कालीन सम्पादक परंजय गुहा ठाकुर्ता, पुण्य प्रसून बाजपेयी, अभिसार शर्मा के प्रकरण और एडीटीवी मालिकों के यहाँ छापों का उल्लेख किया जा सकता है. अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति मोदी राज के एक  साल में हजारों गुणा बढ़ जाने की खबर रातोंरात दबा दी गयी. द वायरजैसी साइट ने इस खबर को नहीं हटाया तो उसे डराने के लिए एक अरब रु का मानहानि मामला दायर कर दिया गया. जो नहीं डरे उनकी वजह से आज भारतीय मीडिया की साख बची हुई है लेकिन बाकी ने इसे रसातल को पहुँचाने में कोई कसर अब भी नहीं छोड़ी है.

मीडिया का यह वर्ग सिर्फ भाजपा और मोदी का भौंपू ही नहीं बना रहा उसने भाजपा-संघ की प्रचार मशीनरी के वशीभूत होकर विपक्ष को दबाने और उसे जनता की नजरों में गिराने का अभियान भी चलाया. देश की हर समस्या के लिए जवाहरलाल नेहरू और उनका परिवार दोषी ठहराया जाने लगा. जब राहुल गांधी नरेंद्र मोदी को सीधे ललकारने लगे तो उन्हें पप्पूसाबित करने में मीडिया के इस धड़े ने बड़ी रुचि दिखाई. गोदी मीडियाविशेषण ऐसे ही नहीं जन्मा.

हाल में पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद तो मीडिया के इस वर्ग ने अति ही कर दी. ऐसा युद्धोन्माद फैलाया जैसे कि सारा देश पाकिस्तान से आर-पार की जंग चाहता है. बालाकोट पर सेना के हमले की ऐसी-ऐसी कवरेज की कि दर्शक भी उकता गये.

सोशल मीडिया पर मीडिया के इस रवैए की निंदा के साथ ही उसके बहिष्कार की अपीलें पहली बार  दिखाई दीं. ऐसी एक टिप्पणी थी- “सबको पता था कि अभिनंदन भाई शाम को बॉर्डर पर पहुँचेंगे. मीडिया सुबह से वहीं खड़ा है. गर चंद मिनटों के लिए आज शहीद सिद्धार्थ वशिष्ठ और विक्रम सहरावत के अंतिम संस्कार को भी दिखा देते तो उन वीर परिवारों का भी सम्मान बढ़ जाता.”

मशहूर टीवी एंकर रवीश कुमार ने अपील की कि इस देश में लोकतंत्र को बचाना है तो अगले दो-ढाई महीने टीवी न्यूज चैनल देखना बंद कर दीजिए.... इन्होंने हमारे देश को बरबाद करने का ठेका लिया हुआ है... ये सबसे बड़े नेता के पैर की जूती बन गये हैं...”

अवकाश प्राप्त वरिष्ठ आई ए एस अधिकारी अनिल स्वरूप ने अंग्रेजी में शालीन लेकिन मारक ट्वीट किया- “क्या यह विडम्बनात्मक नहीं है कि हम ईडियट बॉक्सको कोसते रहते हैं फिर भी बहुत सारा समय टीवी के सामने बैठे रहते हैं जबकि हमारे पास ऐसा न करने का विकल्प मौजूद है. मैंने कुछ महीने पहले यह विकल्प चुना और अब मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. अब मुझे पता चल रहा है कि देश वास्तव में  क्या जानना चाहता है. टीवी चैनलों को विशुद्ध जहर उगलते क्यों देखें?”

हमारा मीडिया इतना बड़ा एकरतफा भौंपू, इतना अविश्वसनीय, इतना एकपक्षीय और निंदनीय पहले नहीं था. विश्व  भर में उसकी साख पर बट्टा लगा.  पाकिस्तान पोषित आतंकवादियों के खिलाफ जनता के गुस्से और गम को उचित ढंग से कवर करने की बजाय टीवी चैनलों ने अपने एंकरों को फौजी वर्दी पहना कर पाकिस्तान  पर जुबानी तोपें दागना शुरू कर दीं. वे युद्धोन्माद फैलाने के अहर्निश अभियान में जुट गये. मारो-काटो, गुलाम कश्मीर पर कब्जा कर लो, लाहौर तक घुस जाओ, जैसी चीखें तथाकथित सैन्य विशेषज्ञ और निष्पक्षविश्लेषकही नहीं, उनसे बढ़-चढ़ कर स्वयं एंकर करते रहे.

इन चैनलों के सामने बैठे हुए यह मानना मुश्किल हो गया कि हम समाचार चैनल देख रहे हैं. लगता रहा कि  अंधराष्ट्रवाद के भौंपू बज रहे हैं. विंग कमाण्डर अभिननदन की वापसी के बाद ये भौंपू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व में भारत की पाकिस्तान पर जीत के गुणगान में बदल गये. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री  इमरान खान की सदाशयता, बातचीत करने की उनकी पेशकश और शांति के उनके संदेश को तनाव कम करने की उनकी मंशा की बजाय मोदी के भय के परिणाम के रूप में पेश किया जाने लगा. अंतराष्ट्रीय सम्बंध, राजनय, पड़ोसी देश से बेहतर रिश्ते बनाने की आवश्यकता, आदि की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी. बालाकोट पर हमले के मनगढ़न्त और फर्जी वीडियो पेश किये गये. उन पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही बताया गया.
आम चुनाव सामने हैं और हमारी सेनाओं के शौर्य को बेशर्म तरीके से प्रचार-रैलियों में भुनाया जा रहा है, मीडिया सवाल उठाने की बजाय उसे ही चुनावी मुदा बनाने में लगा है..

पूरे पाँच साल बहुमत की सरकार चलाने वाला प्रधानमंत्री बिना एक भी सम्वाददाता सम्मेलन को सम्बोधित किये अगला चुनाव लड़ने जा रहा है. मनमोहन के मौन पर तंज कसने वाले मोदी और गोदी मीडिया आज अपने प्रधानमंत्री की प्रेस-उपेक्षा पर बिल्कुल मौन है. हमारी मीडिया में इतनी साख और ताकत नहीं बची कि वह उनसे सवाल कर सके. इसके उलट, बिना किसी मुलाकात के प्रायोजित एकालाप को इण्टर्व्यूकह कर गदगद भाव से छापा-दिखाया जा रहा है. कतिपय रीढ़ वाले पत्रकार इसकृपासे भी वंचित हैं. उनके हिस्से ट्रॉल-आर्मीकी गालियाँ और धमकियाँ हैं.

भारतीय मीडिया में इस समय आवश्यक विमर्श और असहमति की जगह अत्यंत सीमित हो गयी है. लोकतंत्र के लिए यह बहुत अशुभ है. इससे निकलना आसान नहीं होगा. नखलिस्तानों की तरह यहाँ-वहाँ कुछ हरियाली जरूर  दिखाई देती है. डिजिटल प्लेटफॉर्म भी कुछ सम्मान बचाये हुए हैं. इन्हीं से आशा है कि सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.
                                            
 https://thefreepress.in/2025-2/   

09 फरवरी, 2019
            

   

   

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