Wednesday, March 13, 2019

अब भी द्वंद्व में है कांग्रेस


इसी मंगलवार को अहमदाबाद में हुई कांग्रेस कार्यसमिति ने लोक सभा चुनाव के लिए जो रणनीति तय की उसका मुख्य ध्येय है- आरएसएस-भाजपा की फासीवादी, नफरत व गुस्से से भरी और विभेदकारी विचारधारा को परास्त करना.उद्देश्य बड़ा, बहुत चुनौतीपूर्ण और कांग्रेस की मूल नीतियों को समाहित करने वाला है. सवाल यह है कि यह उद्देश्य कैसे प्राप्त किया जाने वाला है? इसके लिए उसने कौन सा रास्ता या तरीका चुना है? क्या इस बारे में भी वह स्पष्ट है?

सत्रहवीं लोक सभा के लिए मतदान कार्यक्रम के ऐलान के तुरंत बाद जिस समय कांग्रेस की सर्वोच्च समिति यह तय करने बैठी, उस वक्त सत्तारूढ़ भाजपा और संघ बेहतर तैयारी और दमखम के साथ मैदान में डटी दिखाई देती है. पाँच साल सत्ता में रहने के बावजूद वह बचाव की मुद्रा में नहीं है. बल्कि, विपक्ष के प्रति बहुत आक्रामक है. उसे ललकारने की स्थिति में तो कांग्रेस को होना चाहिए था लेकिन मुख्य विरोधी पार्टी स्वयं भारी द्वंद्व में पड़ी लगती है.

हाल के कुछ उदाहरण कांग्रेसी असमंजस का संकेत देते हैं. वह साफ-साफ यह यही तय नहीं कर पा रही कि उसे इसी चुनाव में भाजपा को किसी भी तरह सत्ता में आने से रोकने की कोशिश पर ध्यान देना चाहिए या उससे सीधे भिड़ कर अपना छीजा राजनैतिक आधार वापस पाने की दूरगामी राजनीति पर फोकस करना चाहिए.

कांग्रेस आज जहाँ है, वहाँ उसे 2014 की तुलना में कुछ पाना ही है. अभी कोई इस सम्भावना पर सहमत नहीं होगा कि कांग्रेस का यह हासिल इतना बड़ा हो सकता है कि वह अकेले भाजपा से सत्ता छीन लेगी. स्वयं कांग्रेस नेतृत्व को ऐसा लगता तो वह किसी द्वंद्व में पड़ने की बजाय देश भर में भाजपा को सीधी चुनौती देते. लम्बे समय से किसी महागठबंधन या क्षेत्रीय स्तर पर सहयोग करने की बात ही क्यों उठती.   

क्या कांग्रेस के पास ऐसा कोई जमीनी आकलन है कि वह लोक सभा में 44 सीटों की अपनी संख्या में कितनी वृद्धि कर सकेगी? वह भाजपा को किस आंकड़े पर रोक पाने की स्थिति में है? और, क्या उसने 2019 की भाजपा की ताकत और कमजोरियों का अध्ययन-विश्लेषण किया है? क्या यही अस्प्ष्टता उसके द्वंद्व का प्रमुख कारण नहीं  है?

उत्तर प्रदेश  का उदाहरण देख लें. इस आम चुनाव में उसे भाजपा को किसी भी तरह सत्ता में पुन: आने से रोकने की रणनीति पर चलना है तो सपा-बसपा-रालोद के मजबूत गठजोड़ में शामिल होने का फैसला काफी पहले कर लेना था. अब तो मायावती ने कांग्रेस से कहीं भी गठबंधन करने से साफ मना कर दिया है, वर्ना कांग्रेस का एक मन आज भी इस गठबंधन के साथ है. दूसरा मन उसे यहाँ अपनी पहचान और भी खो देने का डर दिखा रहा है. इसलिए वह लगभग सभी सीटों पर लड़ने की घोषणा कर रही है, जबकि ज्यादातर सीटों पर पार्टी संगठन के पांव ही उखड़े हुए हैं. अकेले लड़ कर भविष्य की राह खोलनी थी तो संगठन को खड़ा करने में समय रहते ध्यान क्यों नहीं दिया?

दिल्ली की सात सीटों पर आपसे गठबंधन के बारे में भी उसका यही द्वंद्व सामने आया है, जबकि आपभाजपा को हराने के लिए कांग्रेस से तालमेल को आतुर थी. बंगाल और केरल में माकपा से बात ही चलती जा रही है. कर्नाटक में सहयोगी जद (एस) से खट-पट है. आंध्र में तेलुगु देशम से रिश्ता टूट चुका. महाराष्ट्र में एनसीपी से तालमेल अब भी विवाद में है.. क्षेत्रीय दलों से सहयोग की रणनीति का यह हाल है. गुजरात में कांग्रेस से अपने विधायक ही नहीं सँभल रहे. आखिर किस बूते वह भाजपा को परास्त करने सोच रही है?

क्या तीन राज्यों में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास अति-विश्वास में बदल गया? राहुल गांधी मोदी सरकार पर बहुत आक्रामक हो रहे थे. राफेल विमान सौदे से लेकर किसान असंतोष, बेरोजगारी, नोटबंदी की अब तक जारी मार, मॉब लिंचिंग, संवैधानिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों, आदि की स्वायत्तता पर हमले, अल्पसंखय्कों में भय का वातावरण जैसे कई मुद्दों पर मोदी सरकार को घेरने वाले सवाल उठा रहे थे. तभी पुलवामा में आतंकी हमले में चालीस जवानों की शहादत और बालाकोट के आतंकी ठिकाने पर वायु सेना के जवाबी हमले ने पूरा परिदृश्य उलट दिया.

अब भाजपा मजबूत नेता, देश की सुरक्षा और राष्ट्रवाद के मुद्दे लेकर आक्रामक हो उठी है. कांग्रेस के तरकश के तीर भोथरे पड़ गये हैं. मौके पकड़ने और उन्हें शस्त्र की तरह राजनैतिक शत्रुओं पर इस्तेमाल करने में दक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिर लोकप्रियता की लहर पर सवार हैं. उनके विरुद्ध जो भी नकारात्मक था, वह फिलहाल नेपथ्य में चला गया.

अब कांग्रेस लड़ाई में वापस आने का रास्ता ढूँढ रही है. उसके नेतृत्व का कौशल यह होना चाहिए कि वह भाजपा को उसकी विफलताओं तथा जनता के ज्वलंत मुद्दों से घेर कर वापस उस खुले मैदान में खींच लाये जहां वह बालाकोट हमले से पहले खड़ी थी. शीर्ष नेतृत्व की क्षमता इसी से परखी जाएगी कि वह भाजपा के राष्ट्रवाद के चुनावी-कवच कितनी जल्दी भेद पाता है.  

उधर भाजपा के पास आज ऐसा शक्तिशाली, अजेय और विकल्पहीन लगने वाला नेता है जैसा कभी इंदिरा गांधी के रूप में कांग्रेस के पास था. भाजपा सरकार की कई विफलताओं के बावजूद नरेंद्र मोदी की छवि सफल और सशक्त नेता की बनी हुई है. मोदी है तो मुमकिन हैनारे पर पूरा फोकस करके भाजपा उनकी इसी छवि के साथ चुनाव मैदान में डटी है. 

राहुल गांधी भी कांग्रेस के एकछत्र नेता हैं लेकिन पार्टी और जनमानस पर उनकी पकड़ की कोई तुलना मोदी से करना कठिन है. कुछ ज्वलंत मुद्दों पर वे मोदी को वे सीधी चुनौती देते हैं लेकिन पुलवामा-आतंकी हमले के बाद उनके राष्ट्रवाद का मुकाबला करने का कोई प्रभावी तरीका  तलाश नहीं पा रहे. मोदी इस मुद्दे पर बहुत आक्रामक रूप से जुटे हैं कि देश सुरक्षित हाथों में है.

कांग्रेस से कहीं बेहतर स्थिति में होने के बावजूद सहयोगी दलों के प्रति भाजपा ने नरम रवैया अपनाया. उसने लगभग सभी नाराज सहयोगी दलों को मना लिया है. एनडीए को कायम रखने के लिए उसने समझौते करने में संकोच नहीं किया. उधर, कांग्रेस लम्बे समय से गठबन्धन और क्षेत्रीय तालमेल की बात करने के बावजूद किसी ठिकाने पर नहीं पहुँच पाई है.

गठबन्धन करे या एकला चलेका कांग्रेस का द्वंद्व अब तक जारी है. यह रवैया अहमदाबाद में तय रणनीति के अनुरूप नहीं है. अभी तो मुद्रा बचाव की है और समय बहुत कम.

(प्रभात खबर, 14 मार्च, 2019)    


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