Friday, March 15, 2019

सतत चुनावी मोड और लापता मुद्दे



सत्रहवीं लोक सभा के लिए चुनाव तिथियों की घोषणा से जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ा हो! चुनाव आचार संहिता लागू होने के अलावा. पहले चुनाव की तारीख होते ही पूरा माहौल बदल जाया करता था. अब तो जैसे हर वक्त, पूरा देश चुनावी मोड ही में रहता है.

क्या राजनैतिक दल और मीडिया 2014 के नतीजे आने के बाद से ही 2019 का चुनाव नहीं लड़ते आये हैं? और, सोशल मीडिया पर सक्रिय जनता भी पिछले पाँच साल से दिन-रात चुनाव ही में तो लगी रही है. उसे पटकना, इसे जिताना, विरोधी को हर तरह से ध्वस्त करना, झूठी बातें फैलाना, फर्जी तस्वीरें शेयर करना, गाली देना. वगैरह-वगैरह. चुनाव के दौरान यही सब तो होता है. इसीलिए मतदान तिथियों की घोषणा से न राजनैतिक दलों के तेवर बदले हैं, न टीवी चैनलों की अथक-निरर्थक चीखें, और न ही सोशल मीडिया के लड़ाकाओं का शब्द-संग्राम. बदला नहीं लेकिन बढ़ गया.

सोचिए तो, हमारा जीवन, दैनंदिन संघर्ष और हँसी-खुशी इन बहसों-भाषणों में कहाँ हैं? इतिहास की कब्र से कंकालों को बाहर निकाल, सार्वजनिक रूप से उनकी ठुकाई कर, हमारे दु:खों का आज कितना हल किया जा सकता है? वह जमीन बिना किसी कारण पीटी जा रही, जहाँ से आज की जिंदगी की जद्दोजहद का कोई वास्ता नहीं. जो वास्तव में मुद्दे हैं, उन पर चर्चा लगभग नदारद है. असली मुद्दों से भटका कर व्यर्थ के जंजाल में उलझाए रखने की इस चाल में क्यों फँसना?   

चंद रोज पहले अवकाशप्राप्त आईएएस अधिकारी अनिल स्वरूप ने अंग्रेजी में एक ट्वीट किया था- “क्या यह विडम्बना नहीं है कि हम ईडियट बॉक्सको कोसते रहते हैं फिर भी बहुत सारा समय टीवी के सामने बैठे रहते हैं ... मैंने कुछ महीने पहले टीवी देखना बंद किया और अब मुझे बहुत अच्छा लग रहा है. अब मुझे पता चल रहा है कि देश वास्तव में  क्या जानना चाहता है. टीवी चैनलों को विशुद्ध जहर उगलते क्यों देखें?”

ऐसी बातें अब कई कोनों से सुनाई देने लगी है. अति हो रही होगी, तभी तो. मीडिया, जो कभी जनमत बनाने का काम करता था, क्या आज जन-मानस बिगाड़ने का काम करने लगा है?

चुनाव के समय भी आज की मुख्य समस्याओं पर चर्चा नहीं होना, क्या दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है?  समाज की बेहतरी के लिए काम करने और खोखले वादे करने वालों की पहचान नहीं करना, भूख-गरीबी-शोषण-अत्याचार-गैर-बराबरी कायम रहना और एक प्रतिशत आबादी के पास देश की 73 प्रतिशत सम्पति का होना, मतदाताओं का विमर्श क्यों नहीं बनता? क्यों नहीं बनाया जाता? क्यों नहीं बनने दिया जाता?

राजनैतिक रैलियों की बेतुकी गर्जनाओं और टीवी के पर्दे की चीखों से लगभग अछूता बहुत बड़ा वर्ग है जो किसी तरह जीवित रहने की लड़ाई लड़ रहा है. सुबह से शाम तक वह पेट भरने की जुगत में जुटा है. स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे नहीं जानते कि जो उन्हें पढ़ाया जा रहा है, उसका उनके भविष्य से क्या वास्ता है? बेरोजगारों की भीड़ समझ नहीं पा रही कि उनकी डिग्री और एक अदद नौकरी के बीच खाई कहां से आ गयी? भारी-भरकम आर्थिक आँकड़ों तथा भूख, बीमारियों और मौतों का क्या सम्बंध है? सरकारी दावों और जमीनी सच्चाई में इतना अन्तर क्यों है? संविधान हमारे बहुलतावाद का पुरजोर सम्मान करता है तो मनुष्य को मनुष्य से लड़ाया क्यों जा रहा है?   

कहाँ हैं पार्टीवार वैचारिक बहसें? नीतियों, कार्यक्रमों, क्रियान्वयनों की तथ्यपरक चर्चाएँ कहाँ हैं कि जनता अपना प्रतिनिधि चुनने की समझ बना सके? किसका और क्यों चयन करना है, यह किस आधार पर तय करना चाहिए? टीवी, सोशल मीडिया और नेता ही तय करेंगे तो वही होगा जो हम भोग रहे हैं.    

(सिटी तमाशा, 16 मार्च, 2019) 



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