Saturday, March 23, 2019

ऋतु परिवर्तन की तरह और क्या बदलेगा?

अगस्त के आस-पास वर्षा ऋतु बीतने के साथ हमारे यहाँ त्योहारों-उत्सवों का जो सिलसिला शुरू होता हैवह होली बीतने के साथ एक तरह से ठहर जाता है. रक्षाबंधन से होली तक कोई आठ महीने लगातार किसी न किसी न पर्व या उत्सव के होते हैं. दीपावली के बाद शीत ऋतु में त्योहार कुछ विश्राम लेते हैं तो गुनगुनी धूप और ठंडी शामें सांस्कृतिक आयोजनों-महोत्सवों से चहक-महक उठती हैं. कितनी तरह के मेलेविभिन्न समाजों के सांस्कृतिक आयोजनलोक-उत्सवप्रदर्शनियाँशहर को आनंद-समय से भर देती हैं. पुष्प-प्रदर्शनियाँ और उद्यान-सज्जा प्रतियोगिताएँ इस समय को और भी सुवासित कर देती हैं. 

यह अलग बात हैकि जहरीली हवा का सबसे आतंककारी दौर भी इसी दौरान हम शहरियों को सहना पड़ता है. यह हमारी ही करतूतों का परिणाम हैमौसमों-ऋतुओं को उसके लिए दोषी क्यों ठहराएँ. वे हमारे तन-मन को रोमांचित-झंकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. 

मनुष्य के तमाम क्रूर हस्तक्षेप के बाद भी मौसम कैसा राग-रंग रचता है कि होली फरवरी के अंत में पड़ेमार्च के बिल्कुल शुरुआती दिनों में या एक माह बादठंडी हवा के झौंके तब तक बने रहते हैं. सूरज लाख कोशिश करे अपनी किरणों को पैना करने कीपहाड़ों पर हिमपात या मैदानों में ओला-बारिश या किसी तड़के बादलों के कुछ आवारा समूहों की आवत- जावत गर्जन-तर्जन, होली की सुबह तक हमें मौसम बहलाए रखता है कि सर्दी अभी गयी नहीं.

औरजब हम रंग-अबीर उड़ा रहे होते हैंमौसम चुपके से सर्दी पर अपनी पकड़ छोड़ देता है. एकाएक हम पाते हैं कि धूप का रंग बदल गया हैउसकी सुनहरी आभा का तेज अब आंखों को चुभने लगा हैहवा के झौंकों के साथ उड़ते आते पीले पत्तों की सरसराहट कानों में कह जाती है कि गर्मी आ गयी. सचमुचहोली मौसमी परिवर्तन की घोषणा का पर्व भी है. 

देखिए न कि होली की अगली सुबह धूप निकलते ही कैसी उदासी पसर गयी है! वह जो पहली किरणें प्यारी-सी लगती थींएक ही दिन में उनकी मासूमियत कहाँ चली गयी! कांटे उग आये क्या! इसीलिए क्यारी के फूलों को कितना ही पानी-छाँह दीजिएवे हर सुबह विदा माँगने को प्रस्तुत हो जा रहे हैं. त्वचा पर रोम-छिद्रों में एक सुरसुरी है. नयाहलका पहनावा मांगा जा रहा है. जिह्वा के स्वाद-तंतु कुछ शीतल-तरल मांगने लगे हैं. हरी-महीन ककड़ियाँ होली से पहले भले दिखने लगेंउनमें तरावटी तासीर तो होली ही जाते-जाते भरती है. 

अब एक लम्बा दौर गर्मी का रहेगा. कड़ी धूप-लू वाले तपाऊथकाऊउबाऊउदासी भरे दिन. हर साल इनका आना बेहतर दिनों की लम्बी प्रतीक्षा करने जैसा होता है. जीवन में कठिन दिनों के आने की तरहकि ऐसे भी दिन आते ही हैंजिनका कटना मुश्किल लगता है. पीछे देखिए तो पता चलता है कि अरेऐसी कितनी गर्मियाँ हम काट आये. यह अनुभूति बड़ा सुकून देती है कि कठिन दिन भी एक-एक करके बीत जाते हैं. ताप-दाघ-ऊब  जीवन का स्थायी भाव नहीं है. 

चुनाव के दिन हैं. होली से मौसम के बदलने की तरह क्या इस चुनाव से भी बदलाव आएगा? राजनीति और सत्ता में भी परिर्तन होता रहता हैहोगा भी. बात समय की है. मौसम खुद बदलता है. राजनीति और सत्ता में परिवर्तन लाना पड़ता है. जो जनता परिवर्तन ला सकती है वह कितनी तैयार हैया दलीय प्रपंच, षड्‍यंत्र, राग-द्वेषवगैरह ही चलेंगेइस तरह जो होता हैवह वास्तव में कुछ बदल जाना होता है क्या
जब तक गर्मी अपने चरम पर पहुँचेगीराजनीति का परिवर्तन-प्रहसन भी हम देंख ही रहे होंगे.

(सिटी तमाशा, नभाटा, लखनऊ, 23 मार्च, 2019)

No comments: