Friday, March 08, 2019

ज़फर रिजवी से हमें बहुत कुछ सीखना है



राजधानी लखनऊ के एक पुराने मुहल्ले में मेवे बेच रहे कश्मीरी युवकों की बेवजह पिटाई करने वाले भगवाधरी गुण्डों की खूब भर्त्सना हुई और होनी चाहिए. किंतु जफर रिजवी की चर्चा या सराहना लगभग गायब है  जिसने उन्हें बचाने की हिम्मत की. जफर ने गुण्डों से कड़क कर सवाल किया - 'काहे मार रहे हो भाई, काहे?... कोई मामला है तो पुलिस को बुलाओ.....'

जफर पुलिस के आने तक वहाँ डटा रहा. उसके साहस से कश्मीरियों की जान बची. हमलावर पुलिस की पकड़ में भी आ गये. वह हस्तक्षेप न करता तो पता नहीं क्या होता.  यह नागरिकता-बोध और आवश्यक हस्तक्षेप अब विरल हो चला है. वक्त ऐसा ला दिया गया है कि अगर कोई किसी दाढ़ी वाले या कश्मीरी मुसलमान को पीट रहा हो तो राह चलते चार और लोग उस पर हाथ आजमाने लगते हैं. बिना मामला समझे-बूझे वे भीड़ का हिस्सा बन जाते. बचाने वाले को भी नहीं छोड़ते.

'शरीफ' नागरिक इसलिए कुछ बोलते नहीं. जो हो रहा है, होने दो और चुपचाप अपना रास्ता लो, बच-बचा कर घर पहुँचो. अपने बच्चों को भी यही सिखा रहे हैं. किसी लफड़े में पड़ने की जरूरत नहीं. यह वारदात मीडिया में  दिन भर छाई रही लेकिन सबने कश्मीरी मुसलमानों की पिटाई करने वालों को ही बार-बार दिखाया. यह बड़ी न्यूज वैल्यूथी. 

बचाने वाले का वीडियो महत्त्वपूर्ण नहीं समझा गया और उसे काट दिया. सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो में जफर की बाइट है. वह गुण्डों को निडर होकर रोक रहा है. बाद में पिटने वाले कश्मीरियों ने भी बताया कि एक राहगीर ने उन्हें बचाया. अच्छा होता और राहगीर भी उसका साथ देते. शुरुआत में गुण्डों को रोकने के बाद जफर भी पीछे हट गया था. उसकी आशंका गलत नहीं.

मुसलमान और दलित आज भीड़-हिंसा के निशाने पर हैं तो रोकने-टोकने वालों का मनोबल बढ़ाना बहुत जरूरी है. जिन जिम्मेदार नेताओं को  इन गुण्डों को टोकना, बरजना चाहिए था, जिन्हें हिदायत देनी चाहिए थी कि खबरदार कोई ऐसा नहीं करे, वे मौन हैं. इसलिए व्यापक नागरिक समाज की जिम्मेदारी है कि कहीं भी ऐसा होते देखते ही हस्तक्षेप करें. टोकें और सवाल करें. पुलिस बुलाएँ. आस-पास तमाशा देखते लोगों से भी कहें कि हस्तक्षेप करें. तमाशा देखने का समय यह नहीं है. जफर से हम सभी को प्रेरणा और हिम्मत लेनी चाहिए. उसका गुणगान होना चाहिए. पीटने वाले नेता बनने के लिए ही हमला कर रहे थे. प्रचार उनका नहीं बचाने वाले का हो.

जिस लखनऊ में बहुत प्राचीन कश्मीरी मोहल्लाहो, वहाँ यह हमला बताता है कि विघटनकारी ताकतें कितनी बेलगाम हो चुकी हैं. सर्दियों के इन दिनों में कश्मीरी शॉल, फिरन, मेवे, वगैरह बेचने वाले शहर-दर-शहर घूमते हैं. अपने बचपन से हमने उन्हें इस तरह रोजगार करते देखा है. कंधे पर भारी बोझ लादे वे मुहल्ले-मुहल्ले फेरी लगाते हैं. कई परिवारों का उनसे पुराना लेन-देन है, अपनापा है. महादेवी वर्मा के मार्मिक संस्मरण 'सिस्तर का वास्ते' को कौन भूल सकता है, जैसे रवींद्र नाथ ठाकुर की कहानी 'काबुलीवाला' नहीं भुलाई जा सकती. ये इंसानियत के सच्चे किस्से हैं, ऐन हमारे जीवन में रोजमर्रा शामिल.

इन्हें आतंकवादियों से जोड़ना आतंकवाद की आग में घी डालना है. ऐसा करने वाले और उन्हें शह देने वाले कश्मीर को भारत से और भी दूर करते जा रहे हैं. अच्छी बात यह कि इस मामले में पुलिस ने तत्काल कार्रवाई की. मार खाने वाले कश्मीरी फिर मेवे बेचने लगे हैं. लखनऊ के बहुत सारे लोग उनके साथ खड़े हुए. यह भरोसा और संग-साथ बना रहे. इस खतरनाक समय में बोलना और साथ खड़े रहना जरूरी है.

  

                         



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