Sunday, June 04, 2017

उत्तराखण्ड में वैकल्पिक राजनीति के लिए विमर्श-2/ सपने टूटते हुए देखते रहेंगे या कुछ नया प्रयोग करेंगे?

(यह टिप्पणी, विमर्श  के वास्ते दूसरी किस्त के रूप में नैनीताल समाचार' के 01 जून 2017 के अंंक में प्रकाशित हुई है. इसमेंं सकारात्मक नजर से आपकी भागीदारी का स्वागत है. -नवीन जोशी)

उत्तराखण्ड में वैकल्पिक राजनीति यानी साफ-सुथरी और जनहितैषी राजनैतिक पार्टी की सम्भावना है, ऐसा हम मान कर चल रहे हैं. यह मानने का आधार राज्य के बिग़ड़ते हालात में है. मूलत:  जिस पहाड़ और पहाड़ी जनता की सतत उपेक्षा से पृथक राज्य की मांग उठी, लड़ाई लड़ी गयी, बलिदान दिये गये, जो सपने देखे गये, उनकी अब तक होती अनदेखी में यह मानने का आधार है. राज्य के विभिन्न इलाकों में उठते असंतोष और आक्रोश के स्वरों में भी यह है. पलायन से उजड़ते गांवों, बढ़ते शहरीकरण और संसाधनों की लूट में तो है ही. क्या हमारा सोचना गलत है?
पूछा जा सकता है कि अगर उत्तराखण्ड की जनता में कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की सरकारों के प्रति नाराजगी है और उनसे उम्मीदें खत्म हो रही हैं तो हाल के चुनाव में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत कैसे मिल गया? निश्चय ही यह ईवीएम से की गयी जालसाजी नहीं हो सकती. इसका एक ही जवाब है कि हर चुनाव में नाउम्मीद और नाराज जनता विरोधी दल को सत्ता सौंप देती है, उस पर फिर से आशा जगाते हुए. इसीलिए उत्तराखण्ड में आज तक भाजपा या कांग्रेस, किसी को जनता ने दोबारा शासन चलाने का मौका नहीं दिया. यह सबूत है नाउम्मीद होने और फिर-फिर उम्मीद पाल लेने का.
सपा और बसपा अपने चरित्र के कारण स्वाभाविक ही राज्यव्यापी पार्टी नहीं बन सके. उत्तराखण्ड क्रांति दल राज्य निर्माण ही से फूला नहीं समाया और उसे ही अपनी सफलता मान बैठा. उसने जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप राजनीतिक दल के रूप में विकसित होने की कोशिश ही नहीं की.  सिर्फ पिछलग्गू पार्टी बनी रही और अपनी नियति को प्राप्त हुई. कांग्रेस और भाजपा अपने दीर्घ अनुभवों से श्रेय लूटने और बारी-बारी सत्ता हथियाने में कामयाब रहे हैं.
उत्तराखण्ड उन इलाकों में है जहां स्वतंत्रता और उसके बाद अपने हालात से लड़ने की लम्बी और शानदार परम्परा रही है. इस आंदोलनकारी चेतना के संवाहक भी यहां लगातार हुए. राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों धरातलों पर अब भी बराबर मौजूद है. राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय लेकिन मूल मुद्दों के लिए चलने वाले जन-संघर्ष गवाह हैं.
इसलिए कहा कि उत्तराखण्ड को ठीक से समझने और उसके लिए बेहतर करने की प्रबल सम्भावना हम देख पा रहे हैं. इस वास्ते ठोस, सम्मिलित और समर्पित प्रयासों की जरूरत है. इस जरूरत को मानना, शिद्दत से महसूस करना और बाधाओं-विवादों से निराश हुए बिना प्रयास करते रहना होगा.
भारतीय राजनीति में हाल के दो उदाहरण बहुत प्रासंगिक हैं, जिन्हें इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए. बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और आम आदमी पार्टी (आप). भारतीय राजनीति में सवर्ण-वर्चस्व-विरोधी दलित-चेतना बहुत पहले से थी. अम्बेडकर के अलावा अन्य कई क्षेत्रीय नेता इस चेतना को बढ़ाते-फैलाते रहे, तो भी उसे सत्ता की राजनीति तक ले जाने वाली एक व्यावहारिक राजनैतिक पार्टी बनाने में कांशीराम को दो दशक तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी. (महाराष्ट्र में पहले बनी रिपब्लिकन पार्टी को हम जानबूझकर नहीं गिन रहे) उन्होंने महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और यूपी में घूम-घूम कर दलितों को यह विश्वास दिलाया कि  उनके सामाजिक-राजनैतिक सशक्तीकरण का रास्ता दलितों की, जो कि वास्तव में बहुजन हैं, अपनी राजनैतिक पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने से ही खुलेगा. बसपा का सत्तारोहण उत्तर प्रदेश में ही क्यों हो पाया, अन्यत्र क्यों नहीं, यह अलग विश्लेषण का विषय है लेकिन मायावती के मार्ग-विचलन के बावजूद बसपा आज एक बड़ी वास्तविकता है. उसने दलितों को जो राजनैतिक-सामाजिक ताकत दी, वह आर्थिक ताकत पाने की पूर्व-शर्त है.
बसपा का उदाहरण हम उत्तराखण्ड की स्थितियों में छोड़ सकते हैं क्योंकि उसके मूल में भारतीय समाज की क्रूर जाति-व्यवस्था रही है. आपका उदाहरण देखते हैं, जो यहां खूब प्रासंगिक है. उत्तराखण्ड की तरह दिल्ली में भी कांग्रेस और भाजपा की सरकारें आती-जाती रही हैं. शीला दीक्षित की कांग्रेस सरकार को जरूर लगातार तीन पूरे कार्यकाल मिले. इसके बावजूद आपको जनता ने आशातीत समर्थन दिया. अपने गठन के मात्र दो साल में आपदिल्ली की सत्ता पा गयी. यह जनमत भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ समान रूप से था. इससे भी ज्यादा इसमें एक नयी, साफ-सुथरी, मूल मुद्दों की बात करने वाली राजनीति पर जनता का भरोसा था.
यह भरोसा क्यों बना? केजरीवाल और उनकी टीम ने कांशीराम की तरह दर-दर दौड़ कर भरोसा नहीं जीता. उन्होंने सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ, पारदर्शिता के पक्ष में, लोकपाल कानून के लिए अन्ना के गैर-राजनैतिक किंतु विश्वसनीय मंच का इस्तेमाल किया. यानी कि शुरुआत करने के लिए एक भरोसेमंद मंच और बेहतर छवि वाले जुझारू चेहरों की जरूरत है.
ताकतवर लोकपाल विधेयक के लिए लड़ने वालों की कोई समान राजनैतिक विचारधारा नहीं थी. अन्ना का कोई राजनैतिक विचार नहीं है. केजरीवाल का भी नहीं है. उसमें किरण बेदी थीं, बाबा रामदेव भी कूदे. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार जैसे कुछ वैचारिक और पहले से बेहतर छवि वाले व्यक्ति भी थे. यानी जनता जिनकी बात गौर से सुन सकती थी, समझने की कोशिश कर सकती थी, उनका समूह था. हां, उनका संघर्ष पारदर्शिता के लिए था, जिसकी जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही थी.
आज के उत्तराखण्ड में हम किन सबसे बड़े मुद्दों पर संघर्ष की जरूरत को उतनी ही शिद्दत से महसूस कर रहे हैं? क्या उनके लिए खिलाफ स्वच्छ छवि वाले व्यक्तियों के दवाब-समूह से कोई शुरुआत हो सकती है? क्या पहाड़ में ऐसे व्यक्तित्त्वों और संगठनों का अभाव है?
राजनैतिक दल के रूप मेंआपके उभरने तक लोकपाल आंदोलन के कई शुरुआती बड़े चेहरे अलग हो गये थे. मूल आधार-व्यक्ति अन्ना हजारे भी विरोध में चले गये थे लेकिन तब तक बात व्यक्तित्त्वों से ऊपर निकल गयी थी. बड़े बदलाव के लिए एक नयी राजनतिक पार्टी की जरूरत का मुद्दा सबसे बड़ा बन गया था. यही असली मोड़ था. एक गैर-राजनैतिक आंदोलन ने, एक दवाब-समूह ने खुद बिखरने के बावजूद वैकल्पिक राजनीति की आवश्यकता को सर्वोपरि बना दिया. फिर आपदिल्ली में छा गयी. गली-मुहल्लों में उसके कार्यकर्ता बन गये, संसाधनों की कमी न रही. बदलाव की आंकक्षा लहर बन गयी.
आज आपकिस हाल में है, पार्टी क्यों भटकती गयी, और क्यों हालात यहां तक पहुंचे, यह बहस अलग, लेकिन उस नजीर को सामने रख कर उत्तराखण्ड क्या  के लिए एक-दो अत्यंत ज्वलंत मुद्दों पर कोई दवाब-समूह नहीं बन सकता? क्या पता वही एक चिंगारी साबित हो.
इन प्रश्नों-सम्भावनाओं पर धैर्यपूर्वक, आशावान होकर मंथन करने की जरूरत है. रास्ता निकल सकता है. पुराने आंदोलनकारी सहायक हो सकते हैं लेकिन इस प्रक्रिया में उन्हें यह भी लग सकता है कि उनका अब तक का संघर्ष या त्याग व्यर्थ चला गया. कुछ बिल्कुल नये लोगों, युवाओं की भूमिका अचानक बड़ी हो सकती है. विचार-भिन्न व्यक्तियों को चंद बड़े मुद्दों पर गलबहियां डालनी पड़ सकती हैं. पिछले मतभेदों-टकरावों से आगे देखना होगा. यानी एक समूह-मंथन होगा जिसमें पहले से बनी पार्टियां, गुट, संगठन, समूह, व्यक्तित्त्व सब शामिल हों, स्वतंत्र अस्तित्व की चिंता किये बगैर. तभी बड़े बदलाव के लिए एक नये जन्म की सम्भावना बनेगी.
इसमें समय लगेगा, इसलिए शुरुआत अभी करनी होगी. रुकावटें आएंगी और विवाद भी होंगे. मगर लगे रहना होगा. आपमें मचे हाल के घमासान पर सबसे अच्छी प्रतिक्रिया योगेंद्र यादव की रही. उन्होंने कहा था- राजनीति में प्रयोग होते रहते हैं. वे विफल भी होते हैं लेकिन सपने टूटने नहीं चाहिए.
क्या हम बेहतर उत्तराखण्ड के अपने सपने टूटते हुए देखते रहेंगे? या कोई नया प्रयोग करने की पहल करेंगे? क्या हम इस पर बात करने को, सोचने को तैयार हैं?
नैनीताल समाचारके पन्नों को आपकी रचनात्मक प्रतिक्रिया का इंतजार है.

   
      



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