(यह टिप्पणी नैनीताल समाचार में पिछले पखवारे लिखी गयी थी इस उम्मीद से कि एक बहस और पहल शुरू हो. आप भी इसमें हिस्सेदारी करें- नवीन जोशी)
विधान सभा चुनाव का नतीजा आये दो महीने हो गये हैं. नयी सरकार की अभी से अपने कुछ
फैसलों के लिए आलोचना होने लगी है. बावजूद इसके कि भाजपा की इस सरकार को
उत्तराखण्ड की जनता ने अपार बहुमत से जिताया, जनता ही के कई
वर्गों से असंतोष के स्वर उठने लगे हैं. जाहिर है कि जनता के मूल मुद्दों, जल-जंगल-जमीन के सवालों, आदि पर यह सरकार भी पूर्व
सरकारों से बहुत भिन्न होने वाली नहीं.
जिस उत्तराखण्ड राज्य का सपना देखा था, जिसके लिए बलिदान किए थे वह राज्य तो मिला नहीं., जिन
सवालों का जवाब मांगा था, वह तो अनुत्तरित रहे, और भी बड़े सवाल खड़े हो गये हैं. और, जो इन सवालों को
लेकर चुनाव में खड़े हुए, वे ठगे-से और अकेले-अकेले पड़े हैं.
तब?
उत्तराखण्ड में मौलिक बदलाव की कामना से चुनाव लड़े स्थानीय राजनैतिक
दल, संगठन, संस्थाएं और उनके जुझारू
कार्यकर्ता एवं समर्थक अब क्या सोच रहे हैं? कुछ ने पराजय का
विश्लेषण किया होगा, हार के कारण तलाशे होंगे. कुछ ने चुनाव
लड़ने का आंखें खोल देने वालाअनुभव प्राप्त किया होगा, चुनावी
राजनीति की कड़वी सच्चाई देखी होगी, धन-बल, बाहु-बल, जातीय गोलबंदियां, वगैरह
बहुत करीब से देखी होंगी. इनमें से ज्यादातर का अनुभव-जनित निष्कर्ष यदि यह है कि
व्यापक संगठन, समर्पित कार्यकर्ताऔर बड़ी पूंजी के बिना चुनाव
जीतना तो दूर, मुकाबले में टिका भी नहीं जा सकता तो कोई
आश्चर्य नहीं.
एक और तथ्य नोट किया जाना चाहिए. जनता किसी प्रत्याशी को
सबसे अच्छा, ईमानदार, जुझारू इनसान मान सकती है.
उसकी तारीफ कर सकती है. लेकिन उसकी जीत की सम्भावना वोट देने का निर्णायक आधार बन
जाता है. बीते चुनाव में उत्तराखण्ड में दर्जन भर या ज्यादा ऐसे ही प्रत्याशी थे.
उन्हें हजार-डेढ़ हजार वोट भी न मिलने का रहस्य यही है. जनता के बीच आपको एक संगठित
विश्वसनीय विकल्प के रूप में जाना होगा. जनता को लगना चाहिए कि आप उसके लिए लड़ने
वाले ही नहीं, बेहतर शासन देने वाले भी बन सकते हैं. आपको दिखाना
होगा कि आप इसमें भी सक्षम हैं.
तो, क्या इरादा है? क्या
हार मान कर मैदान छोड़ देना चाहिए? या, क्या
इसी तरह हर चुनाव में ‘किस्मत’ आजमाते
रहना चाहिए और उम्मीद करनी चाहिए कि कभी न कभी तो जनता को अक्ल आएगी कि अब राज्य
का वास्तविक भला चाहने वालों को जिताना चाहिए? अथवा, एक मजबूत, भरोसेमंद राज्यव्यापी राजनैतिक विकल्प
बनाने की पहल अभी से करनी चाहिए?
ये प्रश्न उन सभी को सम्बोधित हैं जो उत्तराखण्ड की बदहाली
से चिंतित हैं, जो मानते हैं कि भौगोलिक एवं प्राकृतिक
स्थितियों के अनुरूप राज्य के सर्वागीण विकास के लिए कांग्रेस और भाजपा (या
सपा-बसपा टाइप पार्टियों) से मुक्ति जरूरी है, तथा जो इस
दिशा में कुछ सार्थक हस्तक्षेप करने की कोशिश करते रहे हैं या अब करना चाहते हैं.
ये सवाल पहली बार नहीं उठ रहे हैं. राज्य बनने के बाद से ही
पूछे जा रहे हैं. प्रत्येक चुनाव के बाद क्रमश: भाजपा और कांग्रेस की सरकारों से
निराश एवं क्रुद्ध होते रहने के बाद हमारे सामने ये सवाल और बड़ा मुंह फैला कर खड़े
हो रहे हैं. 2017 के चुनाव से पूर्व, पिछले साल के उत्तरार्द्ध से ‘नैनीताल समाचार’ समेत उत्तराखण्ड के चुनिंदा पत्रों
में इन प्रश्नों पर कुछ विमर्श भी हुआ है. सोशल साइटों, खासकर
फेसबुक में भी चुनाव पूर्व ये सवाल जेर-ए-बहस थे. मैंने भी कुछ टिप्पणियां लिखी
थीं.
ज्यादातर प्रतिक्रियाएं ठण्डी और निराशावादी थीं. ‘कुछ नहीं हो सकता वाला’ भाव. कुछ दलो-संगठनों ने
मिलकर चुनाव लड़ने या एक दूसरे का साथ देने के बारे में थोड़ी बातचीत भी की थी. कोई
नतीजा नहीं निकला था. कतिपय भागीदारों से हुई मेरी चर्चा और फेसबुक-प्रतिक्रियाएं गुस्से
और निराशा से भरी हुई थीं.
चिपको, नशा नहीं रोजगार दो, और
कई स्थानीय जन-आंदोलनों से निकले नेताओं की तरफ अक्सर वैकल्पिक राजनीति की पहल
करने के लिए उम्मीद से देखा जाता रहा है. उसके बाद के ढाई-तीन दशकों में कुछ
तेज-तर्रार युवा और उभरे. एनजीओ सेक्टर से भी बदलाव की चाहत और पहल करने वाले कुछ
युवा निकले. राज्य-आंदोलन वैचारिक दृष्टि से बहुत गड्ड-मड्ड था, मगर मौलिक बदलाव चाहने वाले तेवर वहां से भी निकले ही. राज्य बनने के बाद
जनता के संसाधनों की बढ़ती लूट से उपजे गुस्से और नाराजगी ने भी नए नेतृत्व की
सम्भावना विकसित की है.
आशय यह है कि उत्तराखण्ड व्यापी वैकल्पिक राजनीति की
सम्भावना कमजोर नहीं है. जरूरत उन्हें जोड़ने की है. दिक्कतें बहुत बड़ी नहीं लगतीं.
पुरानी पीढ़ी के जो लोग अब अलग-अलग सक्रिय हैं उनमें परस्पर अविश्वास है. कतिपय
व्यक्तिगत नाराजगियां भी. लगभग समान वैचारिक आधार के इन लोगों के बीच खायी इतनी
बड़ी नहीं है कि पाटी न जा सके. बीते चुनाव में प्रत्याशी रहे करीब एक दर्जन जन-नेता
और उनके समर्थक ऐसे हैं जिन्हें उत्तराखण्ड के व्यापक हित में एक मंच पर लाना
मुश्किल नहीं होना चाहिए.
अगर गम्भीरता से प्रयास किया जाए तोअगले पांच साल में एक
वैकल्पिक राजनैतिक दल खड़ा किया जा सकता है. आम आदमी पार्टी ने अपनी स्थापना के मात्र
दो साल में दिल्ली की सत्ता हासिल कर ली. उसकी त्रासद परिणति को छोड दें तो वह एक
उदाहरण है कि विश्वसनीय संगठन खड़ा हो जाए तो चुनाव-खर्च और कार्यकर्ताओं की कमी
नहीं रहती.
तो क्या उत्तराखण्ड की दुर्दशा से व्यथित और बदलाव के लिए
बेचैन संगठन, सक्रिय संस्थाएं, एनजीओ,
आदि मिलकर एक विश्वसनीय राजनैतिक विकल्प खड़ा नहीं कर सकते? यह आलेख ‘नैनीताल समाचार’ में
विचार-विमर्श की आशा से ही लिखा जा रहा है. परिवर्तनकामी संगठन, राज्य में जगह-जगह अपने अधिकारों तथा संसाधन बचाने के लिए लड़ रहे लोग,
महिलाओं के विविध संगठन, हमारे सचेत सचेत पाठक
और जिन विचारशील व्यक्तियों के भी पढ़ने में ये पंक्तियां आएं, वे इस बारे में क्या सोचते हैं? चुनाव में भागीदार
रहे विभिन्न दल और संगठन इसे अमल में लाने के लिए कितने उत्सुक और उदार हैं.?
विचार को सिरे से खारिज कर देना आसान है, उसमें
सम्भावना और आशा के बीज तलाशना धैर्य की मांग करता है.
हम उम्मीद करते हैं कम से कम ‘समाचार’ से जुड़े नए-पुराने साथी, आंदोलनकारी, सजग पाठक इस विमर्श को आगे बढ़ाएंगे. अपने विचार एक आलेख के रूप में भेजें.
आग्रह है कि दृष्टि सकारात्मक और व्यकिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त ही हो.
धन्यवाद. (नैनीताल समाचार. 15 मई, 2017)
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