Tuesday, June 13, 2017

कर्ज-माफी के दलदल में कृषि, किसान और सरकारें


नवीन जोशी
दस दिन के किसान-आंदोलन के बाद महाराष्ट्र सरकार ने छोटी जोत वाले (लघु एवं सीमांत) करीब 31 लाख किसानों का लगभग तीन खरब रु का कर्ज माफ करने का ऐलान कर दिया. उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपनी पहली ही कैबिनेट बैठक में वादे के मुताबिक पांच एकड़ से कम जोत वाले किसानों का तीन खरब, 69 अरब रु का कृषि-कर्ज माफ करने का निर्णय किया था. मध्य प्रदेश में खूनी बन गये किसानों के आंदोलन की एक प्रमुख मांग कर्ज-माफी है. अन्य राज्यों के किसानों में भी सुगबुगाहट है और ऐसा भी नहीं कि कर्ज-माफी वाले राज्यों के किसान खुश हो गये हैं. महाराष्ट्र के 77 फीसदी किसान अभी इस फैसले से बाहर हैं.
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने साफ कह दिया है कि जो राज्य यह फैसला करना चाहते हैं वे इसके लिए अपने संसाधन खुद जुटाएं.  केंद्र सरकार इस खर्च की भरपाई में कोई मदद नहीं करेगी. सोमवार को ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने प्रधानमंत्री के सामने किसान कर्ज-माफी के तीन खरब साठ अरब रु का मुद्दा उठाया था.   हाल में सम्पन्न राज्य विधान सभा चुनावों में भाजपा, कांग्रेस, आप समेत सभी दलों ने किसानों का फसली-ऋण माफ करने के वादे किये थे.
छोटे एवं मझोले किसानों की हालत सचमुच खराब है. फसलों के दाम लागत खर्च भी नहीं निकाल पा रहे. कुछ राज्यों में मुख्य फसलें सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दामों पर बेचनी पड़ रही हैं. कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा आतंककारी बनता जा रहा है. कृषि एवं अर्थव्यवस्था का भट्टा बैठ रहा है और ऋण-माफी राजनीति का बड़ा मुद्दा बन गयी है.
राजनैतिक दलों ने कर्ज-माफी के वादे को समस्या से बचने और सत्ता पाने का सबसे आसान रास्ता बना लिया है. यह रास्ता कृषि ही नहीं, सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक है, ऐसी चेतावनी रिजर्व बैंक से लेकर तमाम अर्थशास्त्री कब से देते आ रहे हैं. वित्तीय घाटा बढ़ता है यानी सरकार की कमाई सीमित और खर्च बेतहाशा बढ़ जाते हैं. जाहिर है तब विकास-कार्यों के लिए सरकार के पास धन नहीं बचता. आगे बढ़ने की बजाय यह पीछे ले जाने वाला कदम है. इन चेतावनियों के बावजूद पिछले एक दशक से यह प्रवृत्ति तेज होती गयी है.
2009 के लोक सभा चुनाव से कुछ मास पहले जब देश के कुछ हिस्सों से किसान-असंतोष की खबरें आने लगी थीं तब यूपीए सरकार से किसानों का छह खरब रु का कर्ज माफ कर दिया था. केंद्र की सत्ता में यूपीए की पहले से बेहतर वापसी में इस फैसले का भी निश्चय ही योगदान रहा होगा लेकिन इसने बैंकों की कमर तोड़ दी. बैंकों का एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स यानी डूबा धन) तीन गुना तक बढ़ गया.
इण्डियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट का 2013 का एक अध्ययन बताता है कि ऋण-माफी की परम्परा-सी बन जाने के बाद कर्ज चुका सकने वाले किसान भी अब जानबूझ कर किश्तें अदा नहीं करते. कर्ज लेने के बाद अदायगी  टालते रहते हैं और अगले चुनावों का इंतजार करते हैं कि नयी सरकार ऋण माफ कर देगी. इस दुष्चक्र में बैंक पिस रहे हैं. खेती-किसानी की हालत में भी इससे कोई सुधार नहीं आता, बल्कि स्थिति बिग़ड़ती जाती है.
जिस दिन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने किसान-कर्ज-माफी फैसला किया उसके अगले ही दिन रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने इसकी आलोचना की थी. कहा था कि यह वित्तीय अनुशासन को ध्वस्त करने वाला और साफ-सुथरी ऋण-नीति के विरुद्ध है. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया की चेयरपर्सन अरुंधती भट्टाचार्य ने भी चंद रोज पहले इसे बैंकों और अर्थव्यवस्था के लिए प्रतिगामी कदम बताया है.
सत्तर साल की नाकामयाबियों का हिसाब मांगने और आमूल-चूल बदलाव की बात करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कृषि और किसानों के लिए कोई दीर्घकालीन, बेहतर नीतियां बनाने और कर्ज-माफी के दलदल से निकलने के उपाय करने में अब तक नाकामयाब रहे हैं. 2014 के लोक सभा चुनाव में वे अपनी चुनाव सभाओं में स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के अनुरूप फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभदायक बनाने के वादे करते थे. किसानों से कहते थे कि यदि फसल पर आपकी लागत एक सौ रु है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य 150 रु किया जाएगा ताकि लागत निकालने के बाद पचास फीसदी फायदा तो हो ही. लेकिन हाल में सम्पन्न विधान सभा चुनावों में वे भी ऋण-माफी के वादे पर उतर आये थे. उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने पर पहली ही कैबिनेट बैठक में फसली ऋण माफ करने का वादा उन्होंने ही किया था.
कृषि-विकास और किसानों  की आर्थिक हालत सुधारने के उद्देश्य से यूपीए सरकार ने 2004 में प्रख्यात कृषि-विज्ञानी एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में समिति गठित की थी, जिसने कुछ अंतरिम रिपोर्ट देने के बाद 2006 में अपनी अंतिम सिफारिशें सरकार को सौंपी थीं. मुख्य सिफारिशों में फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य औसत लागत से पचास फीसदी लाभ देने वाला बनाने की थी. इसके अलावा किसानों की सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य-बीमा और तर्क-संगत कृषि-ऋण की सुलभता, आदि से सम्बद्ध थीं, जिनका मकसद दीर्घावधि और सम्पूर्णता में कृषि क्षेत्र का विकास था. कहना न होगा कि इन सिफारिशों पर कोई ठोस पहल नहीं हुई. तब की यूपीए और अब एनडीए सरकारों को भी कर्ज-माफी के दलदली फैसलों का ही सहारा लेना पड़ा.
ऋण-माफी से किसानों को वास्तविक लाभ होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता. आम तौर पर सिर्फ फसली श्रेणे का ही ऋण माफ होता है, जबकि किसान कई तरह के कर्ज लिये रहते हैं. बाद में वे खुद को ठगा-सा महसूस करते हैं. भारत कृषक समाज के एक पदाधिकारी स्वीकार करते हैं कि कर्ज माफी से सिर्फ एक-तिहाई किसानों ही की तात्कालिक मदद हो पाती है. कोई स्थायी समाधान तो यह है नहीं. कई बार पात्र किसान इससे वंचित रह जाते हैं और जुगाड़ू कुपात्र लाभ उठा लेते हैं.
इण्डिया रेटिंग रिपोर्ट कहती है कि किसान-कर्ज माफी का असर अर्थव्यवस्था पर देर तक रहता है. बार-बार की ऋण-माफी घुन की तरह अन्दर से कुतरती रहती है. उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र का ताजा फैसला फड़नवीस सरकार का चालू वर्ष का वित्तीय घाटा 1.53 प्रतिशत से बढ़ा कर 2.71 प्रतिशत कर देगा. इसे इसी वर्ष झेलें या आगे के वित्तीय वर्षों तक ले जाएं, सरकार के हाथ तंग होने ही हैं. अरुण जेटली ने कह तो दिया है कि राज्य इस बोझ को वहन करने के लिए खुद संसाधन जुटाएं, लेकिन राज्यों के पास इसकी क्षमता ही नहीं है. प्राकृतिक आपदा हो या कर्ज-माफी, सभी राज्य सरकारें केंद्र का मुंह ताकती हैं. 
औद्योगिक ढांचे की तरह कृषि क्षेत्र के लिए बेहतर तंत्र का विकास, ग्रामीण अर्थव्यस्था पर फोकस, खेती को प्रतियोगी बनाने और देश-व्यापी मजबूत विपणन-व्यवस्था की स्थापना जैसे बुनियादी काम आज भी उपेक्षित हैं. ऋण-माफी का दलदल गहरा और बड़ा होता जा रहा है.  (प्रभात खबर, 14 जून, 2017) 
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/19792525   


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