सीबीएसई, आईएससीई और यूपी बोर्ड के दसवीं और बारहवीं
के नतीजे आ चुके हैं. टॉप करने और बढ़िया से बढ़िया नम्बर लाने वाले लड़के-लड़कियों के
गदगद चेहरों से पिछले दिनों अखबारों के पन्ने भी खिलखिलाते रहे. इन तस्वीरों में
गर्वीले माता-पिता और मास्टरों के लड्डू खाते-खिलखिलाते चेहरे भी शामिल हैं. सफलता
के पीछे की संघर्ष और जीजिविषा की बड़ी प्रेरक कथाएं भी पढ़ने को मिलीं.
स्वाभाविक सवाल है कि आज के टॉपर बच्चे कल क्या बनेंगे, क्या बनना चाहते हैं? मेरिट लिस्ट में शामिल बच्चों
से मीडिया ने यह सवाल जरूर पूछा. कोई इंजीनीयर बनना चाहता है, कोई आईएसएस, किसी को प्रबंधन में अपना करिअर संवारना
है तो कोई प्रतिष्ठित लॉ स्कूल से निकल कर प्लीडर या जज बनने की आंकाक्षा पाले
हैं. आज के ये प्रतिभावान बच्चे विदेश जाना चाहते हैं, अपना
व्यवसाय करना चाहते हैं. और भी दूसरे खूबसूरत सपने हैं उनकी आंखों में.
पिछले कई सालों से मैं इन होनहार बच्चों के सपनों में एक
सपना ढूंढने-देखने को तरस गया हूँ. किसी लड़के/लड़की ने नहीं कहा कि मैं राजनीति में
जाना, नेता बनना चाहता/चाहती हूँ. लखनऊ से लेकर गोरखपुर तक, कानपुर से लेकर मेरठ तक, आगरा, बनारस, विभिन्न छोटे-बड़े शहरों, कस्बों के बच्चे मेरिट सूचियों
में चमके लेकिन अपवाद स्वरूप भी किसी ने नहीं कहा कि मैं बड़ा होकर राजनीति करना
चाहता हूँ. राजनीति से समाज में बदलाव लाना चाहता हूँ. भूल से भी किसी बच्चे के
मुंह से यह नहीं निकलता. क्यों? क्या यह विचारणीय नहीं?
हमारी आज की प्रतिभाएं राजनीति में आना ही नहीं चाहतीं और
राजनीति ही है जो हमारे समाज, प्रशासन, आदि को सबसे
ज्यादा नियंत्रित करती है. राजनैतिक-प्रशासनिक क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव लाने के
लिए राजनीति ही एक जरिया है. तो, राजनीति में यह कैसा
प्रतिभा-शून्य पैदा होता जा रहा है? हम किन लोगों के लिए
राजनीति जैसा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र खाली छोड़ते जा रहे हैं? और
क्यों? अच्चे, प्रतिभावान लोग वहां
नहीं जाएंगे तो कैसे लोग उस शून्य को भर रहे हैं, हम सभी
गवाह हैं.
आप पूछिए इन बच्चों से- राजनीति में नहीं जान चाहते? तुरंत ‘न’ में गर्दन हिलेगी और
मासूम चेहरे पर टेढ़ी हंसी तन जाएगी, जैसे किसी बहुत गंदी चीज
का नाम ले लिया हो. पूछिए, क्यों? तुरंत
जवाब मिलेगा- राजनीति में बहुत गंदगी है, बहुत भ्रष्टाचार
है. उसमें ‘अच्छे’ लोग नहीं जाते. आज
के ये बच्चे राजनीति और नेताओं से घृणा करते हैं. यह हमारे समय का सबसे कड़ुवा सत्य
है और भविष्य की कठिन चुनौतियों का संकेत भी. आज राजनीति का जो हाल है उसी में
त्राहिमाम मचा है, कल को और भी कैसे लोग वहां राज कर रहे
होंगे और वे देश व समाज का क्या हाल करेंगे?
थोड़ा-सा इतिहास में झांक लीजिए, अपने समय की श्रेष्ठ प्रतिभाओं ने राजनीति को अपनाया था. कुछ ने सोच-समझ
कर और कुछ ने समय एवं स्थितियों की ललकार सुनते हुए दूसरे आकर्षक करिअर छोड़कर
राजनीति में अपना जीवन लगा दिया- देश व समाज के भविष्य के लिए. आजादी और बाद की कई
पीढ़ियों की श्रेष्ठ प्रतिभाएं राजनीति में थीं और ऐसा भी नहीं था कि वे देश-सेवा
में फाके कर रहे थे. उनमें खानदानी रईस थे तो सामान्य से अमीर बनते लोग भी.
रोजी-रोटी और बच्चों की पढ़ाई सबकी ठीक, बल्कि बढ़िया ही चली.
यानी पेशे के तौर पर राजनीति गयी-बीती नहीं मानी गयी. आज तो उसमें धन की कोई कमी
नहीं. फिर भी आज के होनहार भूल कर भी राजनीति का नाम नहीं लेना चाहते. पूछने पर
बिदक जाते हैं.
कभी के सम्मानजनक राजनीतिक क्षेत्र को इतना घृणास्पद किसने
बना दिया? कौन हैं इसके जिम्म्मेदार? जाहिर है जो
आज राजनीति में हैं, वे ही इसके लिए जवाबदेह हैं. उनकी
राजनीति, उनका आचरण, उनकी कथनी-करनी,
उनका चेहरा, उनकी बोली-भाषा, सब इसके लिए जिम्मेदार हैं. कभी सबसे काबिल, ईमानदार
और जनता के शुभचिंतक लोगों का स्वागत करने वाली राजनीति आज बदनाम, स्वार्थी, अपराधी, और भ्रष्ट
लोगों का क्षेत्र मानी जाने लगी है. राजनीतिक पटल पर रोज-रोज जो हम देख रहे हैं,
वही हमारी नयी पीढ़ी की प्रतिभाओं को राजनीति से विरक्त कर रहा है.
यह बहुत खतरनाक बात है. होना तो इसे विरक्ति का नहीं, आसक्ति
का विषय चाहिए था.
आज की तारीख में भी हमारे बच्चों के पास एक भी राजनैतिक
आदर्श नहीं है. आदर्श का विलोम क्या होता है? उस पैमाने पर ढेरों-ढेर नाम कोई भी गिना
देगा. राजनीति में प्रतिभा संकट का हाल यह है कि जितने भी राजनैतिक धुरंधर हैं,
वे अपनी रजनैतिक विरासत अपने बेटों, भाइयों,
भतीजों, यानी परिवार को ही सौंपते जा रहे हैं.
आप इसे उनका स्वार्थ या जागीरदारी मान
सकते हैं लेकिन है इसके मूल में राजनीति में छाया प्रतिभा-संकट ही. किसी राजनैतिक
दल में यदि तेज-तर्रार प्रतिभावान युवा होते तो देखें उसका शीर्ष नेता कैसे अपने
अयोग्य बेटे-भाई को पार्टी की कमान थमा देता. थमाता तो चुनौती पाता. नेता बनाये
नहीं जाते, नेतृत्व आगे बढ़ कर हथियाया जाता है. आज सभी दलों में
नेता अपने परिवार वालों को नेतृत्व सौंप रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि वहां ऐसी
प्रतिभाएं हैं ही नहीं जो ललकार सकें, आगे बढ़ कर कमान छीन
सकें, नयी राह बना सकें.
नारायण मूर्ति या अजीम प्रेमजी बन कर हमारे बच्चे खूब धन व
नाम कमा सकते हैं. बड़ी-बड़ी कम्पनियां चला कर हजारों लोगों को रोजगार दे सकते हैं
लेकिन वे देश व समाज को नियंत्रित करने वाले तंत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकते.
उसके लिए राजनीति में ही आना होगा और जब स्थितियां घृणा करने की हद तक विकट हो
जाएं, तब तो जरूर ही हमारी प्रतिभाओं को राजनीति के मैदान में कूदना
होगा.
वह वक्त आ चुका है, बच्चो! अरे, प्रतिभावान
बच्चो!
(‘तमाशा मेरे आगे’, हिंदुस्तान,
लखनऊ, 1 जून, 2008)
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