“सूचना विभाग में
सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर-आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी
प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन
की खबरें भी नहीं छपेंगी.”
11 जुलाई, 1976 को लखनऊ के प्रतिष्ठित दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’
के सम्पादकीय विभाग के एक वरिष्ठ सदस्य ने ये पंक्तियां टाइप करके
निर्देश-रजिस्टर में लगायीं ताकि सभी देखें और पालन कर सकें. देश भर के सभी अखबारों
में उन दिनों रोजाना ऐसे कई-कई सेंसर-आदेश पहुंचते थे. अखबारों की खबरों पर कड़ा
पहरा था.
आज से 42 वर्ष पहले, 25 जून, 1975 की रात
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने और बढ़ते राजनैतिक विरोध
को कुचलने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था. जनता के सांविधानिक
अधिकार निलंबित कर दिये गये थे. विरोधी नेता गिरफ्तार कर जेल में डाले गये. प्रेस
पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी.
अखबारों में क्या छपेगा, क्या नहीं, यह सम्पादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे.
राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय
(पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बना कर अखबारों पर
निगरानी रखने का काम दिया गया था. ये अधिकारी सम्पादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश
जारी करते थे. खुद उन्हें ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, खासकर इंदिरा गांधी एवं उनके छोटे
बेटे संजय गांधी की चौकड़ी से प्राप्त होते थे. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा
गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी.
अगस्त, 1977 में जब इन पंक्तियों के लेखक ने दैनिक
‘स्वतंत्र भारत’ में बतौर प्रशिक्षु
सह-सम्पादक काम करना शुरू किया तो सम्पादकीय-निर्देश-रजिस्टर में नत्थी कई
सेंसर-आदेश देखे थे. बाद में उसमें से कुछ सेंसर-आदेश अपने सुरक्षित रख लिये थे.
इमरजेंसी के 42 साल बाद आज इन चंद निर्देशों को पढ़ने पर उस
डरावने माहौल का अंदाजा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अखबारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी खबरें रोकी जाती थीं.
एक सेंसर-आदेश 20 जुलाई, 1976 को
तत्कालीन सम्पादक अशोक जी के हस्ताक्षर से इस तरह था-
“नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की खबरें न दी जाएं.
प्राप्त होने पर इन्हें समाचार सम्पादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए.”
इसी बारे में एक सेंसर-आदेश एक नवम्बर 1976 का भी है- “विधानमण्डल
का आज से अधिवेशन शुरू हो रहा है. परिवार नियोजन के सम्बन्ध में कुछ जिलों में कुछ
अप्रिय घटनाएं हुई थीं. समाचार देते समय इन घटनाओं के कृपया ‘टोन डाउन’ करें और इस सम्बंध में पुराने निर्देशों
का पालन करें. (ध्रुव मालवीय का फोन)- हस्ताक्षर, सहायक
सम्पादक”
गौरतलब है कि इमरजेंसी में संजय गांधी ने सनक की तरह
जनसंख्या-नियंत्रण कार्यक्रम चलवाया. सरकारी कर्मचारियों, डॉक्टरों, आदि को नसबन्दी के बड़े लक्ष्य दिये गये. अविवाहित
युवकों, बूढ़ों, भिखारियों तक को
पकड़-पकड़ कर उनकी जबरन नसबन्दी की गयी. असुरक्षित नसबन्दी के कारण देश भर में बहुत
मौतें हुई थीं. रोहिण्टन मिस्त्री के अंग्रेजी उपन्यास ‘अ
फाइन बैलेंस’ में इस सबका मार्मिक और दहलाने वाला चित्रण है.
एक और सेंसर-आदेश देखिए-
“सेंसर अधिकारी, एम आर अवस्थी का
फोन, नौ अक्टूबर 1976 को-
1-भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा
समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए.
2-बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा
जाए.” –सहायक सम्पादक “
बिना तारीख का एक सेंसर-नोट कहता है- “गुजरात हाईकोर्ट
के जजों के तबादले सम्बंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता.” (1976 में गुजरात हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने अपने तबादले को बड़ा
मुद्दा बनाकर अदालत में चुनौती दी थी और भारत सरकार को भी पार्टी बना लिया था. इस
पर लम्बी अदालती बहस चली थी)
10 दिसम्बर ,1976 को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से
जारी आदेश- “14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी
कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.”
28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर
से जारी अंग्रेजी में टाइप किया हुआ “सेंसर-निर्देश- कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और
गुटबाजी के बारे में कोई भी खबर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई
नहीं दी जाए (शुड बी किल्ड). यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम
बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की खबरों पर लागू होगा.”
25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट-
“सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले
चौथे एशियाई बैडमिण्टन टूर्नामेण्ट में चीन की बैडमिण्टन टीम की भागीदारी भारतीय
अखबारों में बहुत दबा दी जाए.” आज यह
समझ पाना मुश्किल है कि चीन की बैडमिण्टन टीम के भारत आकर खेलने की खबर तत्कालीन
इंदिरा सरकार क्यों दबाना चाहती थी.
इस लेखक के हाथ लगे सेंसर-आदेश इमरजेंसी लगने के करीब साल
भर बाद के हैं. बिल्कुल शुरू के आदेश और सख्त रहे होंगे. कुछ आदेश ऐसे भी होंगे जो
मालिकों या सम्पादकों को सीधे सुनाए गये होंगे, बिना कहीं दर्ज
किये.
सभी अखबारों को सेंसर-आदेशों का पालन करना पड़ा था. विरोध के
प्रतीक-रूप में कतिपय अखबारों ने एकाधिक बार अपने सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ी. कुछ
छोटे लेकिन न झुकने वाले पत्रों ने प्रकाशन स्थगित किया या सरकार ने ही उन्हें बंद
कर सम्पादकों-पत्रकारों को जेल में डाल दिया था.
25 जून 1975 की रात लागू इमरजेंसी 21 मार्च 1977 तक रही. यह पूरा दौरआजाद भारत के लिए बहुत भयानक था. लोकतंत्र
और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे काला दौर, जब हर प्रकार
का प्रतिरोधी-स्वर कुचल दिया गया था.
आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत
बुरी पराजय हुई. इंदिरा गांधी और संजय दोनों चुनाव हारे. उन्हें अपने सबसे बुरे
दिन देखने पड़े थे.
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी छीनने की कोशिश करने वालों
के लिए वह दौर एक बड़ा और जरूरी सबक है. इसीलिए अभी हाल में एनडीटीवी के मामले में
दिल्ली प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में कुलदीप नैयर से लेकर अरुण शौरी तक ने याद
दिलाया कि जिस किसी ने प्रेस की आजादी पर हमला किया, उसने अपने ही
हाथ जलाए.
- नवीन जोशी
(http://thewirehindi.com/11949/emergency-press-censorship-indira-gandhi/)
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