Wednesday, June 28, 2017

शिक्षा को तीर्थ-दर्शन कराती सरकारें


कश्मीर की अशान्ति, किसान आंदोलन और राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के शोर-शराबे के बीच जून के तीसरे सप्ताह में आगे-पीछे आयी दो महत्वपूर्ण खबरें खो-सी गयीं. दोनों खबरें सरकारी तंत्र की शिक्षा के प्रति घोर उपेक्षा की कीमत पर दूसरी प्राथमिकताओं की तरफ इशारा करती हैं. पहली खबर 21 जून को पंजाब विधान सभा से मिली. एक सवाल के जवाब में वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल ने बताया सरकार ने शिरोमणि अकाली दल-भाजपा सरकार के समय की मुखमंत्री तीरथ दर्शन यात्रा स्कीम रद्द कर दी है क्योंकि राज्य की शैक्षिक संस्थाओं को धन नहीं मिल पा रहा है. इस स्कीम में पिछली बादल सरकार ने  वर्ष 2016-17 में नि:शुल्क तीर्थ यात्रा पर एक अरब 39 करोड़ 38 लाख रु खर्च किये थे जबकि पंजाब विश्वविद्यालय धन की मांग करता रह गया, बाबा फरीद चिकित्सा विश्वविद्यालय की 40 करोड़ रु की जरूरत पूरी नहीं हुई और कपूरथला सैनिक स्कूल को दस साल से कोई फण्ड नहीं मिल पाया था.
अगले दिन दूसरी खबर उत्तराखण्ड से आयी. 22 जून को नैनीताल हाई कोर्ट ने सख्त निर्देश जारी किया कि उत्तराखण्ड सरकार कार, एसी, फर्नीचर जैसी ऐशो-आराम की चीजें नहीं खरीद सकेगी क्योंकि वह राज्य के सरकारी स्कूलों को न्यूनतम जरूरी सुविधाएं भी दे पाने में बुरी तरह विफल रही है. अदालत ने राज्य में शिक्षा की खस्ताहाली के लिए राज्य सरकार जिम्मेदार ठहराया. दरअसल, हाई कोर्ट ने पिछले साल नवम्बर में सरकार को निर्देश दिया था कि वह राज्य के सभी सरकारी स्कूलों को बेंच, डेस्क, स्कूल ड्रेस, मिड डे मील, कम्प्यूटर, ब्लैक बोर्ड और लाइब्रेरी की सुविधा उपलब्ध कराए. साथ ही लड़के व लड़कियों के लिए अलग-अलग साफ-सुथरे शौचालय बनवाए. अदालत ने पाया कि सराकार ने अब तक इस निर्देश पर अमल नहीं किया है. पिछले नवम्बर में उत्तराखण्ड में कांग्रेस की सरकार थी आज उसकी जगह भाजपा की प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार है. 
यह तीसरी खबर भी जून महीने ही की है कि उत्तर प्रदेश की बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री अनुपमा जायसवाल ने समाज के सम्पन्न लोगों से सरकारी स्कूलों को गोद लेने की अपील की है ताकि उनमें बेहतर शिक्षा देने की व्यवस्था की जा सके. यानी अपने प्राथमिक विद्यालयों को सुधारने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के पास इससे बेहतर उपाय अथवा चिंतन फिलहाल नहीं है.
ये खबरें साफ बताती हैं कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा कहां है. बेसिक स्कूल हों या विश्वविद्यालय या चिकित्सा एवं शोध-संस्थान, वे आवश्यक खर्चों के लिए भी सरकार का मुंह ताकते रहते हैं या खुद धन जुटाने की मशक्कत करते हैं. दूसरी तरफ, सरकारें लोक-लुभावन योजनाओं पर जनता का धन पानी की तरह बहाती हैं. पंजाब की पिछली अकाली-भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने जनता के विभिन्न वर्गों को खुश करने के लिए मुखमंत्री तीरथ दर्शन स्कीम चलायी. यह उनकी प्रिययोजनाओं में था जिसमें अलग-अलग दल बनाकर लोगों को देश के विभिन्न तीर्थ-स्थानों की यात्रा करायी गयी. हजारों की संख्या में बस और ट्रेन यात्राएं हुईं. पूरा खर्च सरकार ने उठाया. जाहिर है, इसका उद्देश्य धर्मभीरु जनता को खुश करना और उनका वोट हासिल करना था.
अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली  उत्तर प्रदेश की पिछली समाजवादी सरकार ने भी बिल्कुल इसी तरह की समाजवादी श्रवण योजनायोजना चलायी थी. उसमें भी समाज के वरिष्ठ एवं गरीब लोगों का चयन कर उनके लिए आईआरसीटीसी के जरिए कई तीर्थ स्थानों के लिए विशेष ट्रेनें चलवाईं. समाजवादी पार्टी तब भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की ओर से मुस्लिम-तुष्टीकरण का आरोप झेल रही थी. हज यात्रा के लिए सरकारी सहायता निशाने पर थी. भाजपा के आक्रामक प्रचार की काट के लिए सरकार ने स्वयं श्रवण कुमार बन कर आस्थावान हिंदुओं को उनके तीर्थ-स्थलों में नि:शुल्क घुमा कर पुण्य कमाया. यही नहीं, हज-यात्रा-सब्सिडी के जवाब में कैलाश-मानसरोवर यात्रियों को पचास हजार रु की नकद सहायता देना शुरू किया. इस पूरे दौर में सरकारी विद्यालय स्कूल भवन, अध्यापकों, कॉपी-किताबों, ड्रेस, शौचालयों, आदि मूल जरूरतों के लिए तरसा किए.
शैक्षिक संस्थानों को धन उपलब्ध कराने के लिए तीरथ दर्शन स्कीम बंद करने का पंजाब की नयी कांग्रेस सरकार का फैसला स्वागत योग्य तो है लेकिन सिर्फ इतने से जाहिर नहीं होता कि शिक्षा जगत के हालात सुधारने की उसकी दीर्घकालीन योजना क्या है? प्राथमिक विद्यालयों का हाल पूरे देश में कमोबेस एक जैसा है. उनमें बच्चों के बैठने के लिए साधारण बेंच-डेस्क, ब्लैक बोर्ड और पढ़ाने के लिए अध्यापक तक नहीं हैं. कहीं-कहीं तो स्कूल भवन खण्डहर हैं, कम्प्यूटर और अलग शौचालय की कौन कहे. यही वजह है कि निजी विद्यालय बेतहाशा फल-फूल रहे हैं. गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भर्ती कराना चाहता है. उनकी लूट-खसोट हमेशा खबरों में रहती है.
उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के सख्त आदेश से अदालत की वह चिंता और बेचैनी समझी जा सकती है जो शिक्षा क्षेत्र के हालात सुधारने के प्रति सभी दलों की सरकारों की अनिच्छा या उपेक्षा से उपजती है. अगर सरकार स्कूलों को अत्यंत जरूरी सुविधाएं भी नहीं दे सकती तो उसे अपने लिए कार, एसी, फर्नीचर, वगैरह खरीदने का भी हक नहीं, यह आदेश असाधारण स्थितियों में ही दिया गया है. उत्तराखण्ड राज्य बने सोलह वर्ष हो चुके. वहां की जनता अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में अन्याय और शोषण की शिकायत करती थी. शिक्षा और पलायन ही से रोजी-रोटी का रास्ता खुलता था और स्कूल मीलों दूर होते थे. राज्य बनने के बाद स्कूल भवन तो खूब बने लेकिन उनमें पढ़ाई की पूरी क्या, न्यूनतम जरूरी व्यवस्था भी नहीं की गयी. राज्य बनने के सोलह साल बाद एक पीआईएल के जरिए आए अदालती निर्देश के बावजूद उसके पालन की पहल न तब की कांग्रेस सरकार ने की थी, न वर्तमान भाजपा सरकार कर रही है. अदालत इससे सख्त टिप्पणी और क्या कर सकती है?
उत्तराखण्ड सरकार को अदालत के इस आदेश से परेशानी स्वाभाविक थी. सो, वह इसे बदलने का अनुरोध लेकर उसकी चौखट पर  जा पहुंची (अदालत ने थोड़ी-सी राहत दी है) लेकिन सभी स्कूलों को जरूरी संसाधन देने के मूल मुद्दे का क्या होगा? पंजाब के शैक्षिक संस्थानों का आर्थिक संकट, माना कि, अभी कुछ दूर कर दिया जाएगा लेकिन शिक्षा का सम्पूर्ण सुधार सरकारों का प्राथमिक एजेण्डा कब बनेगा? उत्तर प्रदेश की नयी योगी सरकार ने कैलाश-मानसरोवर यात्रियों की सहायता राशि बढ़ाकर एक लाख रु करने में तनिक देर नहीं लगायी लेकिन सरकारी स्कूलों में छात्रों को बांटने के लिए किताबें, ड्रेस, आदि की खरीद उसी तरह विलम्बित है जैसे पूर्ववर्ती सरकार में थी. और, स्कूलों को गोद लेने की अपील क्या यह नहीं बताती कि सत्ता में सिर्फ पार्टी बदली है, प्राथमिकताएं नहीं? (प्रभात खबर, 28 जून, 2017)


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