अवैध काम करना, दांव-पेच से उसे
कायम रखना और कभी नियम-कानून की जद में आ जाएं तो हड़ताल करके दवाब बनाना हमारा
राष्ट्रीय चरित्र बन गया है. गलत काम करने वाला जितनी दबंगई से अपने बचाव में डटा
रहता है, उस ठसक के सामने
नियम-कानून का पालन करने वाला कहीं नहीं ठहरता. चंद रोज पहले हमने इलेक्ट्रॉनिक
चिप से पेट्रोल-डीजल चोरी करते पम्प मालिकों को इसी भूमिका में देखा था. अब रिहायशी मकानों में अवैध कमर्शियल कॉम्प्लेक्स चला रहे व्यवसाइयों
को यही करते पा रहे हैं. पूरे शहर के यातायात को, आवासीय शांति को नष्ट करने वाले, सड़कों को पार्किंग
से जाम रखने वाले, एक-दो मंजिल आवासीय
भवन की इजाजत लेकर बहुमंजिला व्यावसायिक निर्माण करने वाले, सारी नागरिक सुविधाओं को ध्वस्त करने वाले अपने को प्रताड़ित
बताते हुए लोकतंत्र के नारे लगा रहे हैं.
यह सही है कि इस सब अवैध कारोबार के लिए लविप्रा मुख्य रूप से जिम्मेदार है, जबकि उसी पर इसे नहीं होने देने का दायित्व है. लविप्रा के
छोटे-बड़े सभी ने मिल कर, अवैध कमाई के लिए
शहर को बर्बाद में कोई कसर नहीं छोड़ी. किंतु इसी आधार पर इस अवैध धंधे में शामिल
लोगों का जुर्म माफ नहीं हो जाता. शहर की ज्यादातर बड़ी कॉलोनियां आज अवैध
निर्माणों और कब्जों से बेहाल हैं. कुछ इलाके इतने तंग हो गये हैं कि वहां अपने घर
तक पहुंचना भी मुश्किल हो गया है.
लविप्रा या आवास-विकास की रिहायशी कॉलोनियों में नागरिकों और व्यववसाइयों की
सुविधा के लिए बाजार और बड़े कमर्शियल कॉप्म्लेक्स बनाए जाते हैं. स्कूल, अस्पताल, वगैरह के लिए अलग से
भूखण्ड आवंटित किये जाते हैं. बाकायदा खूबसूरत प्लान बनाया जाता है कि ये मकान हैं, इनमें लोग शांति से रहेंगे. बीच-बीच में पार्क होंगे. नजदीक
में रोजमर्रा की जरूरत वाली दुकानें होंगी. थोड़ा फासले पर बड़े कॉम्प्लेक्स होंगे. मकानों
की नालियां, सीवर, पानी एवं बिजली की लाइनें और ट्रांसफॉर्मर, आदि आवासीय क्षमता के हिसाब से बनाये जाते हैं. यही सुविधाएं कमर्शियल
क्षेत्र में बहुत बड़े पैमाने पर दी जाती हैं. वहां पार्किंग भी पर्याप्त बनायी
जाती है. इतने ध्यान से किया गया
नियोजन कॉलोनी विकसित होते ही क्यों पूरी तरह ध्वस्त कर दिया जाता है? लविप्रा का भ्रष्ट तंत्र इसे करने देता है तो व्यवसाइयों की
भ्रष्ट मानसिकता इसका निरंतर पोषण करती है. आज वे अपने को निर्दोष और प्रताड़ित
कैसे बता सकते हैं?
कमर्शियल कॉम्प्लेक्स आधे से ज्यादा खाली पड़े हैं और मकान कॉम्प्लेक्स में
तब्दील हो गये हैं. सारा ढांचा भरभरा
रहा है. शुरू-शुरू में चंद रिटायर लोगों, बेरोजगारोंऔर
महिलाओं ने स्वावलम्बन के लिए अपने मकान के किसी कमरे में परचून या बुटीक या
ब्यूटी-पार्लर खोले तो उसे स्वाभाविक ही नजरंदाज किया जाता था या कम्पाउण्डिंग कर
दी जाती थी. मगर फिर कम्पाउण्डिंग की आड़ में पंद्रह सौ वर्ग फुट के मकान को पांच
मंजिला कमर्शियल कॉम्पलेक्स बनाने की साजिश चल पड़ी. बाद में उसकी भी जरूरत नहीं
रही. मकान का नक्शा बनवाया और कतार की कतार कॉम्प्लेक्स खड़े कर लिये. सड़क व आसमान ही
नहीं सिकुड़ा, शहर नियोजन से लेकर
बिजली-पानी-नाली-सफाई सब सुविधाओं का भट्टा बैठ गया.
अति हो चुकी है. सख्ती की ही जानी चाहिए. जिन अधिकारियों के कार्यकाल और
कार्यक्षेत्र में हुआ उन्हें भी कटघरे में खड़ा करिए. अन्यथा यह सिलसिला कभी थमेगा नहीं. (नभाटा, 03, जून, 2017)
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