Tuesday, January 17, 2017

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ; सपा पर चुनाव आयोग के फैसले से बदली तस्वीर


नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के झगड़े पर निर्वाचन आयोग के फैसले ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की तस्वीर बदल दी है. बल्कि, कहना चाहिए कि पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन प्रारम्भ जोने की पूर्व संध्या पर आए आयोग के फैसले ने इस रण को काफी हद तक साफ कर दिया है. अखिलेश यादव के गुट को साइकिल चुनाव चिन्ह दिए जाने के निणय ने यह भी घोषित कर दिया कि असली समाजवादी पार्टी उन ही का गुट है.
सोलह जनवरी की शाम यह भी करीब-करीब तय हो गया था कि अखिलेश कांग्रेस से चुनावी तालमेल करेंगे. सम्भावना तो यह भी है कि सपा, कांग्रेस, रालोद और चंद अन्य छोटे दलों का गठबंधन बने. जद (यू) और लालू  भी साथ आ सकते हैं. बिहार की तर्ज पर बनने वाला यह गठबंधन ही भाजपा के असली मुकाबिल होगा.  इसका सीधा अर्थ यह होगा कि बसपा कमजोर पड़ेगी और तीसरा कोण ही बना पाएगी, क्योंकि अखिलेश के असली सपा घोषित होने एवं कांग्रेस समेत अन्य दलों से गठबंधन होने की स्थिति में मुसलमानों का असमंजस खत्म होने के आसार हैं. भाजपा को हराने के लिए उनका बहुमत गठबंधन के साथ जाएगा.
अगर सपा का साइकिल चुनाव चिन्ह जब्त हो जाता और अखिलेश एवं मुलायम गुट नए चुनाव चिह्नों पर चुनाव लड़ते तो तस्वीर दूसरी होती. तब मुसलमान मतदाता काफी भ्रम की स्थिति में होते और बहुत सम्भावना थी कि वे मायावती के साथ जाते अथवा उनका विभाजन होता. उस स्थितिमें भाजपा को फायदा होता और उसका मुख्य मुकाबला बसपा से होने की सम्भावना बनती. चुनाव आयोग के दो टूक फैसले ने अचानक परिदृश्य बदल दिया.
अधिसंख्य राजनैतिक विश्लेषक यह मान रहे थे कि आयोग साइकिल चुनाव चिह्न को जब्त कर लेगा.  राजनैतिक दलों के अदरूनी झगड़े में अक्सर ऐसा होता रहा है. लेकिन इस बार स्थिति सर्वथा भिन्न थी. आयोग ने पाया कि समाजवादी पार्टी के सांसदों, विधायकों, पार्षदों और पार्टी के विभिन्न संगठनों का बहुमत अखिलेश के साथ है. आयोग ने अपने निर्णय में कहा कि मुलायम सिंह यादव अपने समर्थन में पर्याप्त दस्तावेज पेश नहीं कर सके. अखिलेश के प्रबल समर्थक राम गोपाल यादव ने अपने पक्ष में दस्तावेजों का विशाल पुलिंदा आयोग को सौंपा था.
यू पी का चुनाव संग्राम हमेशा से देश भर की उत्सुकता का केंद्र बना रहता है. लोक सभा के चुनाव हों या विधान सभा का निर्वाचन, केंद्र की सत्ता पर उसकी धमक रहती है. कहते भी हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. इसलिए 2017 का प्रदेश विधान सभा का चुनाव 2019 के लोक सभा चुनाव की पूर्व पीठिका भी है.  आइए, देखें कि पार्टीवार हालात और परिदृश्य कैसे हैं.
भाजपा: उम्मीदें और आशंकाएं
 2014 के लोक सभा चुनाव 72 सीटें जीतने से भाजपा उत्साहित जरूर है लेकिन उसे मालूम है कि विधान सभा चुनाव में वैसी सफलता दोहरा पाना लगभग असम्भव है. वह लोक सभा का चुनाव था, यूपीए के सामने दस साल के शासन की सत्ता विरोधी लहर थी और नरेंद्र मोदी के रूप में एक अति सक्रिय और बड़े-बड़े वादे करने वाला चेहरा सामने था. यह विधान सभा का चुनाव है जहां क्षेत्रीय शक्तियां अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में है और नरेंद्र मोदी का जादू काफी उतर चुका है. इसलिए भाजपा काफी सतर्क है और कई मोर्चों पर काम करती आई है.
दलित वोट यहां बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन पर बसपा का कब्जा रहा है. भाजपा ने इस वोट बैंक पर सेंध लगाने के बड़े जतन कर रखे हैं. उसने बसपा में तोड़-फोड़ मचाई, कई प्रभावशाली दलित-पिछड़े नेताओं को उसने अपना बना लिया. अम्बेडकर को महिमामण्डित किया. अमित शाह समेत कई नेताओं ने दलितों के घर जा कर भोजन किया. दलित कल्याण के वादे किए और मायावती को बदनाम करने का प्रयास किया. लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा अपना दलित-हितैषी चेहरा प्रस्तुत कर पाई इसमें संदेह है. उलटे गोरक्षा के नाम पर देश भर में दलितों पर हिंदूवादी संगठनों ने जो भयानक अत्याचार किए, उसके दाग जरूर उसके हिस्से में प्रमुखता से है.
सवर्णों का बड़ा तबका भाजपा के साथ जाएगा, ऐसा लगता है. मुसलमान भाजपा के खिलाफ रहे हैं और वे भाजपा को हरा सकने वाली पार्टी या प्रत्याशी की तलाश करते हैं. इससे धार्मिक ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू होता है. मुसलमानों के एकमुश्त भाजपा विरोधी वोट का भय दिखा कर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश यह पार्टी करती है और इस बार भी अन्दरखाने यह सब चल रहा है. यह किस हद तक हो पाएगा और अधिसंख्य मुसलमान किस पार्टी के साथ जाएंगे, इस पर भाजपा का बहुत कुछ निर्भर है. गैर-यादव कुछ पिछड़ी जातियों पर भी भाजपा डोरे डालती आयी है. उसकी अब तक घोषित सूची में पिछड़ी जतियों का अच्छा ध्यान रखा गया है. पिछड़े नेताओं की भाजपा में बड़ी पूछ है.
लेकिन भाजपा में अंदरखाने बहुत असंतोष भी है. दूसरे दलों से बड़ी संख्या में कद्दावार नेताओं को भाजपा में शामिल किए जाने से पुराने भाजपाई आशंकित हैं. इससे भितरघात का खतरा बढ़ा है. असंतोष बढ़ता जाएगा. दूसरे दलों से बड़े-बड़े नेताओं को भाजपा में लाने वाले अमित शाह के लिए बड़ी चुनौती है कि वे कैसे इसे सम्भालते हैं.
सपा: नए युग की शुरुआत
पारिवारिक और पार्टी के झगड़े ने अब मुलायम सिंह को समाजवादी पार्टी के केंद्र से हाशिए पर डाल दिया है. अखिलेश जहां उनका पूरा सम्मान करने की बात करते हैं, वहीं शिवपाल और अमर सिंह को वे अब कतई बर्दाश्त नहीं करने वाले. अखिलेश ही अब सपा के सर्वेसर्वा हैं. अब मुलायम को तय करना होगा कि वे चुनाव में अखिलेश के मुकाबले खड़े होते हैं या संरक्षक बन कर आशीर्वाद देते हैं. झगड़े का नुकसान समाजवादी पार्टी को नहीं मुलायम और शिवपाल को हुआ है.
इस पूरे दौर ने अखिलेश यादव को साफ-सुथरे, बेहतर, विकास परक चिंतन वाले युवा नेता के रूप में स्थापित किया है. सत्ता संग्राम में अखिलेश को बहुत लोकप्रियता मिली है. मुझे तो लगता है कि मुलायम के नेतृत्व में एक रहते हुए समाजवादी पार्टी इस चुनाव में उतनी मजबूत नहीं होती जितनी आज अखिलेश के नेतृत्व में वह दिखाई देती है. साइकिल चुनाव चिन्ह जब्त हो जाता तो भी अखिलेश गुट काफी मजबूती से चुनाव लड़ता. अब तो पार्टी उनकी है और चुनाव चिह्न भी.
यह बात गौर करने वाली है कि अखिलेश सरकार में कई विकास परियोजनाएं पूरी हुईं, बिगड़ती कानून व्यवस्था की नकेल कसने की कोशिश हुई और समाजवादी पार्टी का आधुनिक रूप उभरा, जिससे युवाओं का बड़ा वर्ग  उनका समर्थक दिखता है. अपराधी तत्वों से पार्टी को मुक्त कराने की उनकी कोशिशें भी खूब सराही गई है. नोट किया जाना चाहिए कि कुछ महीने पूर्व तक सपा नेताओं की गुण्डागर्दी और मंत्रियों के भ्रष्टाचार की चर्चा करने वाले लोग आज अखिलेश की सराहना कर रहे हैं.
इसके बावजूद लाख टके का सवाल बना रहेगा कि क्या पारिवारिक युद्ध और विभाजन के बावजूद मुसलामन अखिलेश वाली सपा के साथ रहेंगे? क्या वे यह मानते हैं कि मुलायम के बिना भी अखिलेश भाजपा को हरा सकने में सक्षम हैं? जैसा भरोसा उनका मुलायम में रहा है, वैसा ही अखिलेश में भी रहेगा? या क्या उन्हें अखिलेश की मुस्लिम एप्रोच में फर्क नजर आता है? यह सवाल इसलिए कि मुलायम ने चुनाव आयोग का फैसला आने से ठीक पहले यह क्यों कहा कि अखिलेश मुसलमान विरोधी है. वे क्या संदेश देना चाहते थे और क्या वह संदेश मुसलमानों ने ग्रहण किया?
गौरतलब है कि अखिलेश सरकार ने श्रवण यात्रा और कैलाश मानसरोवर यात्रियों को आर्थिक सहायता देने जैसी कुछ योजनाओं से हिंदुओं को भी खुश करने की कोशिश की है. अगर मुसलमानों का भरोसा डगमगाया तो अखिलेश मुश्किल में होंगे और भाजपा बड़े फायदे में. इसीलिए अखिलेश काफी पहले से कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात करते रहे हैं जो अब मुमकिन होता लग रहा है.
बसपा: सता के करीब या बहुत दूर
बहुजन समाज पार्टी, बल्कि मायावती के लिए यह बहुत चुनौती भरा चुनाव साबित होगा. उनके दलित वोटों के एकछत्र साम्राज्य पर बहुत हमले हुए हैं. उनके कुछ विश्वस्त नेता और कांशीराम के समय से चले आ रहे समर्पित साथी उन्हें छोड़ गए हैं. दलितों की नई पीढ़ी वोटर बन गई है जो दलित सशक्तीकरण की चाह के बावजूद मायावती पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करती.  मायावती बसपा को दलित कोण से ऊपर विकसित नहीं कर सकीं.
इसके बावजूद दलितों का बड़ा वर्ग मायावती के साथ है लेकिन सिर्फ उन ही की मदद से वे ज्यादा सीटें नहीं जीत सकतीं. कांशी राम ने इसीलिए कतिपय गैर-दलित जातियों और मुसलमानों को साथ लेने की रणनीति बनाई थी. बहुजनशब्द इसीलिए पार्टी के नाम में रखा गया था. मायावती ने 2007 में कुछ सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को साथ लेकर जो सोशल इंजीनियरिंगगढ़ी, वह इसी रणनीति का विस्तार थी. इसी के बल पर उन्हें बहुमत मिला था.  मगर 2007 और 2017 में बहुत फर्क है. मायावती ने इस बार भी ब्राह्मणों-ठाकुरों को काफी संख्या में टिकट भले दिए हों, लेकिन उन्हें पता है कि भाजपा के उभार ने उस इंजीनियरिंग को ध्वस्त कर दिया है.
यही कारण है कि मायावती ने इस चुनाव में सबसे ज्यादा टिकट मुसलमानों को दिए हैं. सपा के झगड़े से भाजपा को फायदा होने का डर दिखा कर वे मुसलमानों का अधिसंख्य वोट हासिल करने की जुगत में हैं. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा भी है कि मुसलमानों ने बसपा को ही वोट देना चाहिए क्योंकि वे ही भाजपा को हरा सकती हैं. तो, इस बार मायावती की रणनीति दलित-मुस्लिम एकता कायम करने रही है. 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से मुसलमानों के बड़े वर्ग का भरोसा मुलायम पर रहा है. मायावती को उम्मीद है कि इस बार समीकरण बदलेगा और मुसलमान पारिवारिक झगड़े से कमजोर हुई सपा को छोड़ कर उनके साथ आएंगे.
मुसलमानों का बहुमत बसपा के साथ जाता है तो मायावती एक बार फिर यूपी की सत्ता के बहुत करीब होंगी लेकिन समाजवादी पार्टी के बारे में चुनाव आयोग के फैसले ने इसे मुश्किल बना दिया है. मुसलमानों के समर्थन के बिना मायावती कुछ वर्षों के लिए राजनैतिक हाशिए पर चली जाएं तो आश्चर्य नहीं.
कांग्रेस: गठबंधन ही सहारा
कांग्रेस के लिए यह करो या मरो टाइप का चुनाव है.  कांग्रेस की हालत खराब है. इससे नीचे जाने का मतलब है कांग्रेस का लोप हो जाना. राम चंद्र गुहा जैसे इतिहासकार और समाजशास्त्री कांग्रेस के अवसान की भविष्यवाणी कर चुके हैं. इसलिए यू पी का चुनाव तय करेगा कि कांग्रेस और राहुल गांधी हाशिए से निकल कर मैदान में आ पाते हैं या गायब हो जाते हैं.
फिलहाल जो दृश्य है उसमें कांग्रेस यूपी में अकेले चुनाव लड़ने की हालत में नहीं दिखती. उसके पास न कार्यकर्ता बचे है न दमदार प्रत्याशी. दो मास पहले जो कांग्रेस बड़े जोर शोर से मैदान में ताल ठोक रही थी वह इस इंतजार में है कि सपा का अखिलेश धड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन के  लिए आगे आए. अब यह सम्भावना बन गई है. अगर सपा(अखिलेश) और कांग्रेस का गठबंधन होता है तो नया समीकरण बनेगा जिसमें मुसलमान वोटर नई उम्मीद देख सकते हैं. इस गठबन्धन में रालोद और चंद फुटकर दल भी शामिल किए जा सकते हैं.
जैसी कि चर्चा थी कि गठबंधन होने की स्थिति में डिम्पल-यादव और प्रियंका गांधी मिलकर चुनाव प्रचार करेंगी. यह दोनों लोकप्रिय चेहरे गठबंधन के लिए स्टार प्रचारक होंगे और निश्चय ही भीड़ खींचेंगे. अखिलेश और राहुल का एक मंच पर आना भी कम आकर्षक नहीं होगा.
देखिए, क्या-क्या मंजर सामने आते हैं. ( जनवरी 16, रात 10 बजे)


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