साल 2016 का आखिरी महीना लग चुका है. वक्त के
पंख कभी थकते ही नहीं. हमारे चारों ओर खबरें भी तेजी से बदल रही हैं. नोटबंदी से
जनता का हलकान होना जारी है. इससे उबरने के आसार फिलहाल दिखाई नहीं देते. हैरत
होती है कि केंद्र सरकार ने इतना बड़ा फैसला पूरी तैयारी किए बिना कैसे लागू कर
दिया. उधर दुनिया में राष्ट्रवाद का बोलबाला बढ़ रहा है. अपने सर्वोच्च न्यायालय ने
भी हर फिल्म की शुरुआत में राष्ट्रगान बजाने और उस दौरान दर्शकों के खड़े होने को
अनिवार्य बना कर इसी प्रवृत्ति पर मोहर
लगाई है. कोर्ट का कहना है कि अब समय आ गया है कि नागरिक यह महसूस करें कि वे एक
राष्ट्र में रहते हैं और वे राष्ट्रगान के प्रति सम्मान दिखाने के दायित्व से बंधे
हैं. इससे कौन असहमत होगा लेकिन पुरानी पीढ़ी को याद होगा कि फिल्मों के अंत में
राष्ट्रगान बजाना बंद ही इसलिए किया गया था कि अधिसंख्य दर्शक उसका सम्मान नहीं
करते थे. शायद अब करने लगें.
बहरहाल. अपना लखनऊ भी मेट्रो वाला होने जा रहा है. नोश्चय ही मेट्रो से
यातायात काफी सुगम होगा लेकिन आबादी और वाहनों की बढ़ती रफ्तार शहर को और भी अराजक
बनाती रहेगी. दिल्ली का उदाहरण सामने है. विकास कहते हैं जिसे उसकी दिशा ही ऐसी
बना दी गई है. अपने प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं और सभी दावेदार दल जोर-आजमाइश
में लगे हैं. नेताओं के भाषण, वादे, घोषणाएं, और आरोप-प्रत्यारोप
सुन कर कहीं से नहीं लगता कि वे हमारी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के बारे में
सोच भी रहे हैं. उनका एकमात्र मकसद सत्ता हासिल करना लगता है. जो सत्ता में है वह
दावा करता है कि उसने कितने वादे पूरे कर दिए और अब क्या नए इरादे हैं. जो विपक्ष
में है वह आरोप लगा रहा है कि प्रदेश को बरबाद करके रख दिया. जब इनकी भूमिकाएं
बदलती हैं तो बोल भी बदल जाते हैं. आज जो सत्ता में हैं, जब वह विपक्ष में होते हैं तो ठीक वही भाषण देते हैं जो आज
के विपक्षी दे रहे हैं. सभी दलों पर यह बात लागू होती है.
धरती पर जीवन कठिन होता जा रहा है क्योंकि जीवन को आधार और सम्बल प्रदान करने
वाली प्राकृतिक शक्तियां लगातार कमजोर होती जा रही हैं. उनके कमजोर होने का कारण
हमारा वर्तमान ‘विकास’ है. हमारे इस विकास की त्रासदी यह है कि हम यानी मनुष्य खुद
कमजोर हो रहे हैं. चिकित्सा विज्ञान की प्रगति ने जीवन को काफी हद तक रोगमुक्त और
सुदीर्घ बना दिया है लेकिन हवा-पानी-भोजन जैसी जरूरी चीजों को विकृत करने में खुद
हमारे विकास ने कोई कसर नहीं छोड़ी. आज का यह विकास वास्तव में जीवन विरोधी हो गया
है. सृष्टि की मूल चीजों को इसने बिगाड़ दिया है और जीवन के कई रूप समाप्त हो चुके हैं, मगर इस ओर राजनीति में कोई चिंता नहीं दिखाई देती जबकि
राजनीति आज हमारे सारे कार्य-व्यापारों को प्रभावित-संचालित कर रही है. जो लोग जीवन के मूलाधारों की रक्षा के लिए आवाज
उठा रहे हैं, वे राजनीति से दूर
हैं. उनकी आवाज भले गूंजती हो, वह राजनीति को बदल
नहीं पाती.
यह हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है. (NBT, Dec 04, 2016)
No comments:
Post a Comment